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कविता

बाजारवाद के चंगुल में

ऑक्टोपस की कँटीली भुजाओं सरिस जकड़ रहा है सबको व्यापक बाजारवाद जन साधारण की औकात एक वस्तु जैसी है कुछ विशेष जन वस्तु समुच्चय ज्यों हैं हम स्वेच्छा से बिक भी नहीं सकते हम स्वेच्छा से खरीद भी नहीं सकते पूँजीपति रूपी नियंता चला रहा है पूरा बाजार जाने- अनजाने हम सौ-सौ बार बिक रहे […]

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हम भेड़ हैं

हाँ, हम भेड़ हैं हमारी संख्या भी बहुत अधिक है सोचना-विचारना भी हमारे वश में नहीं न अतीत का दुःख न भविष्य की चिंता बस वर्तमान में संतुष्ट क्रियाशील, लगनशील, अनुगामी अगुआ के अंध फॉलोवर अंध भक्त, अंध विश्वासी अनासक्त सन्यासी क्योंकि हम भेड़ हैं। हाँ, हम भेड़ हैं किंतु खोज रहे हैं उस भेड़िये […]

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गीता विजय उद्घोष

कृष्ण की गीता पुरानी हो गई है, या कि लोगों की समझ कमजोर है। शस्त्र एवं शास्त्र दोनों हैं जरूरी, धर्म सम्मत कर्म से शुभ भोर है।। था करोड़ों सैन्य बल, पर पार्थ में परिजनों के हेतु भय या मोह था। कृष्ण को आना पड़ा गीता सुनाने, सोचिए कि क्या सबल व्यामोह था! वह महाभारत […]

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कैसे हम सच्चाई को जान पाएँगे

जब गजनवी के दरबार से सोमनाथ का आकलन और खिलजी के दरबार से पद्मावती का आकलन, बख्तियार के दरबार से नालंदा का आकलन तथा गोरी के दरबार से पृथ्वीराज का आकलन पढ़ेंगे तो – कैसे हम सच्चाई को जान पाएँगे! जब बाबर के दरबार से राणा साँगा का मूल्यांकन और हुमायूँ के दरबार से सती […]

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कान खोलकर सुन लो ….

कान खोलकर सुन लो कान खोलकर सुन लो- हे अंध-संविधान समीक्षकों! हे तथाकथित कानून रक्षकों! हे समाज के ठेकेदारों! है मज़हबी जालसाज़ों! हे वासना को प्यार कहने वाले कामलोलुपों! हे पाप को प्यार कहने वाले पापियों! हे फिल्मी जोकरों! हे लिव इन रिलेशनशिप के पैरोकारों! हे सनातनी जीवन पद्धति के विरोधियों, गद्दारों! आज हम डंके […]

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नागार्जुन की कविता- जो नहीं हो सके पूर्ण-काम मैं उनका करता हूँ प्रणाम

जो नहीं हो सके पूर्ण-काम मैं उनका करता हूँ प्रणाम। कुछ कुंठित औ’ कुछ लक्ष्य-भ्रष्ट जिनके अभिमंत्रित तीर हुए; रण की समाप्ति के पहले ही जो वीर रिक्त तूणीर हुए! —उनको प्रणाम! जो छोटी-सी नैया लेकर उतरे करने को उदधि-पार; मन की मन मे ही रही, स्वयं हो गए उसी में निराकार! —उनको प्रणाम! जो […]

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मौत झोली लिए घूम रही है….

मौत झोली लिए घूम रही है मृत्यु उस बंदर की तरह है जो एक मक्के के खेत में घुस जाने पर नए-नए भुट्टे तोड़ता जाता है, और बगल में लगाता जाता है। अफसोस कि बंदर जैसे ही दूसरा भुट्टा अपनी बगल में लगाता है, पहला बगल से गिरता जाता है, बंदर सारा खेत समाप्त कर […]

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“प्रकृति परिवर्तनशील है”

बिखरे मोती “प्रकृति परिवर्तनशील है” किन्तु इस नियम में अपवाद भी है, जैसे:- हवा सदा बहती रहे, पर्वत रहें कठोर। रवि सदा तपता रहे, सांझ होय चाहे भोर।।1998॥ भक्ति की परिकाष्ठा के संदर्भ में – भक्ति चढ़े परवान तो, छूट जाय संसार। कण-कण में दिखने लगे, सबका प्राणाधार॥1999॥ वैश्वानार एक रूप अनेक – फूलों में […]

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गीता मेरे गीतों में , गीत 71 ( गीता के मूल ७० श्लोकों का काव्यानुवाद)

अन्त में ……. सन्देश – आज के अर्जुन ! जाग जा पगले, नींद अधर्म की क्यों सोता? देश – धर्म पर संकट भारी , समय व्यर्थ में क्यों खोता ? जिनको तू अपना समझे था ,वही तुझे ललकार रहे। तेरा धर्म यही बनता है , निर्भय हो संहार करे।। सत्य सनातन की रक्षा हित , […]

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गीता मेरे गीतों में , गीत 70 ( गीता के मूल ७० श्लोकों का काव्यानुवाद)

संदेह मेरे सब मिट गए माधव ! सब धर्मों को छोड़कर जो शरण प्रभु की आ जाता। हो जीवन का कल्याण उसी का सारे वैभव पा जाता।। तू शरण में आ जा अर्जुन मेरी ,मैं ही जगत की हूँ माता। जो भी करता याद मुझे , मैं अंतर्मन में मिल जाता।। कर्त्तापन का बहम दूर […]

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