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अध्याय … 59 समय करे बर्बाद जो ……

175 श्रेष्ठ पुरुष की संगति , सबसे ऊंचा लाभ। मूरख के संग जो रहे, जाय दुखों के धाम।। जाय दुखों के धाम , कभी ना चैन से सोता। मूर्ख संगत से बड़ा , कोई नहीं दुख होता।। श्रेष्ठ पुरुष के संग से, सुधरे जीवन की गति। प्रारब्ध के योग से , हो श्रेष्ठ पुरुष की […]

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अध्याय … 58 हिल जाए भूगोल ….

172 छाल के कपड़े पहन के, मुनि बहुत संतुष्ट। हीरे सोने लाद कर , राजा हुआ संतुष्ट।। राजा हुआ संतुष्ट, दोनों का संतोष बराबर। दरिद्र वही होता मानव, तृष्णा करे उजागर।। तृष्णा के वशीभूत हो, दरिद्र का बिगड़े हाल। वह संतोषी धनवान है, पहने वृक्ष की छाल।। 173 मीत ! यह संभव नहीं, सज्जन बदले […]

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कुंडलियां ,अध्याय 57 : वाणी मीठी बोलिए

अध्याय … 57 169 परहित के लिए त्याग दें, अपना सब धन माल। सत्पुरुष होते वही, गीत गाय संसार।। गीत गाय संसार , करें सब वंदन उनका। आत्मकल्याण, जग उत्थान, धर्म हो जिनका।। जगहित करे सो उत्तम, मध्यम करे अपना हित। नीच करे दूजों को हानि, सबसे उत्तम परहित।। 170 वाणी मीठी बोलिए, गहना सबसे […]

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अध्याय … 56 गीता ने समझा दिया……

166 जो करना उत्तम कर्म, कर डालो तुम आज। मौत शिकंजा कस रही,पूरण कर लो काज।। पूरण कर लो काज , ना फिर समय मिलेगा। जो कुछ भी पैदा किया ,सब कुछ यहीं रहेगा।। उत्तम कर्म ही संसार में , कहलाता है धर्म। याद धर्म को राखिए, जो करना उत्तम कर्म।। 167 गीता ने समझा […]

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अध्याय … 55 क्रोधी व्यक्ति जब मिले ……

163 कामवासना रोग है, दुखदाई हो जाय। मोह भयंकर है रिपु, बंधन लोभ बताय ।। बंधन लोभ बताय , क्रोध भयंकर अग्नि। जो इनमें फंस गया, राह मौत की पकड़ी।। कामी फंसे काम में, लज्जा उड़ाए वासना। ऋषियों ने ऐसा कहा, रोग है कामवासना।। 164 धन चाहिए तो नींद का, करना है परित्याग। तंद्रा , […]

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अध्याय … 54 जाति बंधन छोड़ दो ……

160 भोगों का उपभोग भी, ना कर पाते लोग। भरथरी कह कर गए , भोग रहे हैं भोग।। भोग रहे हैं भोग, पल-पल हम मरते जाते। जितना चाहें निकलना,उतना फंसते जाते।। बीत जाए यूं ही जीवन, नहीं समझते लोग। जीवन में नहीं कर पाते, भोगों का उपभोग।। 161 जाति बंधन छोड़ दो, यही मनुज का […]

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अध्याय … 53 वेद पढ़े और शास्त्र भी……

157 धन पैरों की धूल है, जोबन नदी समान । आयु को ऋषि ने कहा, बहत हुआ जल मान।। बहत हुआ जल मान, मूरख पीछे पछतावे।। देख बुढापा रोवत है, समय से धोखा खावे। पड़त शोक की अग्नि में , करता रोज रुदन । निकल जा हाथ से , तब काम ना आवे धन।। 158 […]

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अध्याय … 52 भाई ऐसा होत……

154 पांच कोश का पींजड़ा , जा में पंछी बंद। पांच प्राण और इंद्रियां, भवन चाक-चौबंद।। भवन चाक- चौबंद, इंद्रिय संख्या ग्यारह। संचालक बन आत्मा, इनको बैठ निहारै।। सतोगुणी बुद्धि रहै , तब इंद्रियां हों निर्दोष। समझ खेल का खेल है, देह के पांचों कोश।। 155 भ्राता की दशा देखकै , मन में उठे उमंग। […]

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कुंडलियां … 51 वही कफन ऊपर पड़ा……

151 शब्द, रूप, स्पर्श हैं , रस, गंध भी साथ। पांच विषय विष के घड़े ,कर देते हैं नाश।। कर देते हैं नाश , जीव घड़ा लटकाए घूमे। जब भी लगती प्यास, विष घड़े को चूमे।। विष पी पीकर मरते जाते, रंक रहे या भूप। समझदार समझ गए, क्या होते शब्द-रूप ? 152 मैंने खोजा […]

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कुंडलियां … 50 बीज में बरगद छुपा…..

148 खोजो अपने रूप को, जपो नाम दिन रैन। पा लोगे निज रूप को, पड़ेगा मन को चैन।। पड़ेगा मन को चैन, वर्षा अमृत की होगी। करता उल्टे काम जगत में, बनकर भोगी।। अविद्या, अस्मिता, राग के, मत लेना सपने। छोड़ द्वेष-निवेश को, मूल को खोजो अपने।। 149 बीज में बरगद छुपा, यही दर्शन का […]

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