गीता का आठवां अध्याय और विश्व समाज एकाक्षर ब्रह्म गीता के आठवें अध्याय में ब्रह्म, कर्म, अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ तथा अन्तकाल की सुन्दर व्याख्या की गयी है। अर्जुन ने गीता के आठवें अध्याय के आरम्भ में प्रश्न कर लिया है कि पुरूषोत्तम वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत किसे […]
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गीता का सातवां अध्याय और विश्व समाज ईश्वर विषयक भ्रम जो लोग विभिन्न देवी देवताओं की पूजा में लगे रहते हैं, या विभिन्न व्यक्तियों को ईश्वर मानकर उनकी पूजा करते रहते हैं-उन्हें श्रीकृष्ण जी बुद्घिहीन मानते हैं। कहते हैं कि जो बुद्घिहीन लोग मुझ अव्यक्त को व्यक्त हुआ मानने लगते हैं, अर्थात भिन्न-भिन्न देवताओं के […]
गीता का सातवां अध्याय और विश्व समाज ज्ञान-विज्ञान और ईश्वर का ध्यान आत्र्त-जिज्ञासु भजें अर्थार्थी दिन रात। युक्तात्मा ज्ञानी भजै उसकी अनोखी बात।। श्रीकृष्ण दूसरे प्रकार के भक्त का नाम जिज्ञासु बताते हैं। जिज्ञासु का अर्थ है-जानने की इच्छा रखने वाला। यह भक्त अपना ज्ञानवद्र्घन करने के लिए मेधा की उपासना करता है। वह ईश्वर […]
गीता का सातवां अध्याय और विश्व समाज आज के संसार में प्रकृतिवादी लोग ऐसी ही मानसिकता और सोच रखते हैं। प्रकृतिवादी नास्तिक बन गये हैं। उन्हें प्रकृति से आगे ईश्वर के होने की बात स्वीकार ही नहीं है। वे मानते हैं कि ये प्रकृति ही सब कुछ है और यह स्वयं यन्त्रवत चल रही है। […]
गीता का सातवां अध्याय और विश्व समाज महर्षि पतंजलि ‘योग दर्शन’ में कहते हैं कि संसार और शरीर आदि के अनित्य पदार्थों को नित्य, मिथ्या-भाषण, चोरी आदि अपवित्र कर्मों को पवित्र, विषय सेवन आदि दु:ख को सुख रूप, शरीर और भौतिक जड़ पदार्थों को चेतन समझना यह अविद्या है। अनित्य को नित्य मानकर करै जो […]
गीता का सातवां अध्याय और विश्व समाज ज्ञान-विज्ञान और ईश्वर का ध्यान गीता के सातवें अध्याय का शुभारम्भ करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि हे पार्थ! मुझ में मन को आसक्त करके अर्थात कर्मफल की आसक्ति के भाव को छोडक़र और संसार के भोगों या विषय वासनाओं को त्यागकर जिस प्रकार तू मुझे […]
गीता का छठा अध्याय और विश्व समाज अच्छे बुद्घिमानों का और पवित्रात्माओं का परिवार ऐसे ही योगभ्रष्ट लोगों को एक पुरस्कार के रूप में मिलता है। जिनके संसर्ग, सम्पर्क और सान्निध्य में रहकर वह योगभ्रष्ट व्यक्ति या योगी शीघ्र ही आगे बढऩा आरम्भ कर देता है। वह पूर्व जन्म के बुद्घि संयोग को फिर से […]
गीता का छठा अध्याय और विश्व समाज योगेश्वर श्री कृष्णजी कहते हैं कि अर्जुन यह कार्य अर्थात मन को जीतना या वश में करना अभ्यास तथा वैराग्य के माध्यम से सम्भव है। अभ्यास और वैराग्य से होती मन की जीत। मन को लेते जीत जो पाते रब की प्रीत।। इस प्रकार श्रीकृष्णजी ने मन को […]
गीता का छठा अध्याय और विश्व समाज भारत की ऐसी ही परम्पराओं में से एक परम्परा यह भी है कि जब किसी व्यक्ति को कोई कष्ट होता है तो दूसरा उसके विषय में यह कहता है कि यह कष्ट मुझे ऐसे ही अनुभव हुआ है जैसे कि मुझे ही हुआ हो। लोग अक्सर कहते हैं […]
गीता का छठा अध्याय और विश्व समाज अब पुन: हम उस आनन्द के विषय में ‘ब्रह्मानन्दवल्ली’ (तैत्तिरीय-उपनिषद) का उल्लेख करते हैं। जिसका ऋषि कहता है कि यदि कोई बलवान युवावस्था को प्राप्त वेदादि शास्त्रों का पूर्ण ज्ञाता सम्पूर्ण पृथ्वी का राजा होकर राज भोगे तो उसे उस राज से जो आनन्द प्राप्त होगा वह एक […]