गीता का अठारहवां अध्याय अठारहवें अध्याय में गीता समाप्त हो जाती है। इसे एक प्रकार से ‘गीता’ का उपसंहार कहा जा सकता है। जिन-जिन गूढ़ बातों पर या ज्ञान की गहरी बातों पर पूर्व अध्याय में प्रकाश डाला गया है, उन सबका निचोड़ इस अध्याय में दिया गया है। एक अच्छे लेखक की अपनी विशेषता […]
Category: गीता का कर्मयोग और आज का विश्व
गीता का सत्रहवां अध्याय अपनी चर्चा को निरंतर आगे बढ़ाते हुए श्रीकृष्णजी कहने लगे कि जो दान, ‘देना उचित है’-ऐसा समझकर अपने ऊपर प्रत्युपकार न करने वाले को, देश, काल तथा पात्र का विचार करके दिया जाता है उस दान को सात्विक दान माना गया है। इस प्रकार का दान सर्वोत्तम होता है, क्योंकि इस […]
गीता का सत्रहवां अध्याय अन्त में श्रीकृष्णजी तामसिक यज्ञ पर आते हैं। वे कहने लगे हैं कि जो यज्ञ विधिहीन है, जिसमें अन्नदान नहीं किया जाता, जिसमें मंत्र का विधिवत और सम्यक पाठ भी नहीं होता और ना ही कोई दक्षिणा दी जाती है, वह तामस यज्ञ कहलाता है। इस प्रकार के यज्ञों को अशिक्षित, […]
गीता का सत्रहवां अध्याय श्रीकृष्ण जी कह रहे हैं कि संसार में कई लोग ऐसे भी होते हैं जो कि दम्भी और अहंकारी होते हैं। ऐसे लोग अन्धश्रद्घा वाले होते हैं और शारीरिक कष्ट उठाने को ही मान लेते हैं कि इसी प्रकार भगवान की प्राप्ति हो जाएगी। यद्यपि ऐसे कठोर तपों का शास्त्रों में […]
गीता का सत्रहवां अध्याय मनुष्य के पतन का कारण कामवासना होती है। बड़े-बड़े सन्त महात्मा और सम्राटों का आत्मिक पतन इसी कामवासना के कारण हो गया। जिसने काम को जीत लिया वह ‘जगजीत’ हो जाता है। सारा जग उसके चरणों में आ जाता है। ऐसे उदाहरण भी हमारे इतिहास में अनेकों हैं जिन्होंने कामवासना को […]
गीता का सोलहवां अध्याय काम, क्रोध और लोभ इन तीनों को गीता नरक के द्वार रहती है। आज के संसार को गीता से यह शिक्षा लेनी चाहिए कि वह जिन तीन विकारों (काम, क्रोध और लोभ) में जल रहा है-इनसे शीघ्र मुक्ति पाएगा। आज के संससार में गीता से दूरी बनाकर अपने मरने का अपने […]
गीता का सोलहवां अध्याय श्रीकृष्णजी की यह सोच वर्तमान विश्व के लिए हजारों वर्ष पूर्व की गयी उनकी भविष्यवाणी कही जा सकती है जो कि आज अक्षरश: चरितार्थ हो रही है। स्वार्थपूर्ण मनोवृत्ति के लोगों ने जगत के शत्रु बनकर इसके सारे सम्बन्धों को ही विनाशकारी और विषयुक्त बना दिया है। अल्पबुद्घि नष्टात्मा करें भयंकर […]
गीता का सोलहवां अध्याय माना कि अर्जुन तू और तेरे अन्य चार भाई दुर्योधन और उसके भाइयों के रक्त के प्यासे नहीं हो, पर तुम्हारा यह कत्र्तव्य है कि संसार में ‘दैवीय सम्पद’ लोगों की सुरक्षा की जाए और ‘आसुरी सम्पद’ लोगों की गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए उनके विरूद्घ युद्घ किया जाए। यदि […]
गीता का सोलहवां अध्याय गीता के 15वें अध्याय में प्रकृति, जीव तथा परमेश्वर का वर्णन किया गया है तो 16वें अध्याय में अब श्रीकृष्णजी मनुष्यों में पाई जाने वाली दैवी और आसुरी प्रकृतियों का वर्णन करने लगे हैं। इन प्रकृतियों के आधार पर मानव समाज को दैवीय मानव समाज और आसुरी मानव समाज इन दो […]
गीता का पन्द्रहवां अध्याय गीता में ईश्वर का वर्णन गीता का मत है कि सूर्य में जो हमें तेज दिखायी देता है वह ईश्वर का ही तेज है। ‘गीताकार’ का कथन है कि जो तेज चन्द्रमा में और अग्नि में विद्यमान है, वह मेरा ही तेज है, ऐसा जान। किसी कवि ने कहा है- कह […]