गीता का अठारहवां अध्याय अपने आपको मुझमें लगा, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन कर, मुझे नमस्कार कर, ऐसा करने से तू मुझ तक पहुंच जाएगा। क्योंकि तू मेरा प्रिय है। श्रीकृष्णजी ऐसा कहकर अर्जुन रूपी बालक को भगवान रूपी माता केदुग्धामृत का पान करने के लिए उसकी ओर बढऩे की प्रेरणा दे रहे हैं। इस […]
Category: गीता का कर्मयोग और आज का विश्व
गीता का अठारहवां अध्याय यहां पर श्रीकृष्णजी ने अपनी सुंदर शैली में यह स्पष्ट कर दिया है कि संसार के लोग मोहवश चाहे किसी काम को न कर सकें-परन्तु कर्मशील लोग संसार के सभी कार्यों को वैसे ही पूर्ण करते हैं-जैसी उनसे अपेक्षा की जाती है। ईश्वर की शरण का गुह्म उपदेश ईश्वर की शरण […]
गीता का अठारहवां अध्याय इन्हीं की ओर संकेत करते हुए श्रीकृष्ण जी उपदेश दे रहे हैं कि अहंकार, दर्प, बल, काम, क्रोध और धन सम्पत्ति को छोडक़र ममता से रहित होकर जो शान्त स्वभाव का हो जाता है-वह -‘ब्रह्मभूय’- अर्थात ब्रह्म के साथ एकाकार होने के योग्य हो जाता है। इस प्रकार मानव जीवन के […]
गीता का अठारहवां अध्याय वह परमपिता-परमात्मा इस जगत का मूल कारण है। उसी से सब प्राणी जन्म लेते हैं, उसी से यह सारा जगत व्याप्त है। उस ईश्वर की अपने कर्म से पूजा करके मनुष्य सिद्घि को प्राप्त कर लेता है। कहने का अभिप्राय है कि यदि व्यक्ति को सिद्घि को प्राप्त करना है तो […]
गीता का अठारहवां अध्याय त्रिविध सुख क्या है तीसरे सुख अर्थात तामसिक सुख के विषय में श्रीकृष्ण जी का मानना है कि तामसिक सुख प्रारम्भ से अन्त तक आत्मा को मोह में फंसाये रखता है। मोह का आवरण सबसे अधिक भयानक होता है। यह एक ऐसा आवरण है जिससे हर व्यक्ति चाहकर भी मुक्त नहीं […]
गीता का अठारहवां अध्याय अधर्म को धर्म समझ लेना घोर अज्ञानता का प्रतीक है। मध्यकाल में बड़े-बड़े राजा महाराजाओं ने और सुल्तानों ने अधर्म को धर्म समझकर महान नरसंहारों को अंजाम दिया। ये ऐसे नरसंहार थे -जिनसे मानवता सिहर उठी थी। वास्तव में ये कार्य तामसी बुद्घि के कार्य थे। ऐसे लोगों से संसार को […]
गीता का अठारहवां अध्याय त्रिविध कत्र्ता और गीता त्रिविध कर्म के पश्चात श्रीकृष्णजी त्रिविध कत्र्ता पर आते हैं। इसके विषय में वह बताते हैं कि कत्र्ता भी सात्विक, राजसिक और तामसिक-तीन प्रकार के ही होते हैं। सात्विक कत्र्ता के बारे में बताते हुए श्रीकृष्णजी कहते हैं कि ऐसा कत्र्ता आसक्ति से मुक्त रहता है, उसका […]
गीता का अठारहवां अध्याय अंग्रेजों के कानून ने किसी ‘डायर’ को फांसी न देकर और हर किसी ‘भगतसिंह’ को फांसी देकर मानवता के विरूद्घ अपराध किया। यह न्याय नहीं अन्याय था। यद्यपि अंग्रेज अपने आपको न्यायप्रिय जाति सिद्घ करने का एड़ी चोटी का प्रयास आज भी करते हैं। इसके विपरीत गीता दुष्ट के विनाश करने […]
गीता का अठारहवां अध्याय योगीराज श्रीकृष्णजी अर्जुन को बताते हैं कि किसी भी देहधारी के लिए कर्मों का पूर्ण त्याग सम्भव नहीं है। ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई व्यक्ति कर्मों का पूर्ण त्याग कर दे। कर्म तो लगा रहता है, चलता रहता है। गीता की एक ही शर्त है जिसे श्रीकृष्णजी पुन: दोहरा […]
गीता का अठारहवां अध्याय अठारहवें अध्याय में गीता समाप्त हो जाती है। इसे एक प्रकार से ‘गीता’ का उपसंहार कहा जा सकता है। जिन-जिन गूढ़ बातों पर या ज्ञान की गहरी बातों पर पूर्व अध्याय में प्रकाश डाला गया है, उन सबका निचोड़ इस अध्याय में दिया गया है। एक अच्छे लेखक की अपनी विशेषता […]