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संपादकीय

कश्मीर का दर्द

15 अगस्त 1947 ईं को जो स्वतंत्रता हमें मिली थी, वह लंगड़ी-लूली स्वतंत्रता थी, क्योंकि विभाजित भारत में मिला-अखण्ड भारत तो अंग्रेजी साम्राज्यवाद की कुचालों के भूचाल में और सियासत की शतरंजी चालों के सागर में कहीं विलीन हो गया था।कोई दुष्ट दुष्टता करके कहीं छिप नही गया था। फिर भी शतरंज बिछी रह गयी। […]

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संपादकीय

आतंकवाद गया ही कहां था?

पिछले दिनों अमेरिका का बोस्टन और भारत का बंगलौर आतंकी घटनाओं से दहलाए गये हैं। कई टिप्पणीकारों या समाचार पत्रों ने अमेरिका के बोस्टन में घटी आतंकी घटना पर कहा है कि अमेरिका में आतंकवाद फिर लौटा। मुझे टिप्पणीकारों की ऐसी टिप्पणियों पर तरस आता है। क्योंकि ऐसी बातें करना अपनी बुद्घिहीनता का ही परिचय […]

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संपादकीय

कायदे आजम, वायदे आजम और फायदे आजम

1947 में जब देश बंटवारे की तरफ बढ़ रहा था, तो उस समय देश के पांच बड़े नेताओं की मानसिकता कुछ इस प्रकार थी- -जिन्नाह तपेदिक से बीमार थे। -गांधी ‘बाबा’ लाचार थे। -नेहरू सत्ता के लिए तैयार थे। -सबसे अधिक चिंतित सरदार थे। -माउंटबेटन सबसे मक्कार थे। सचमुच देश की सारी राजनीति उस समय […]

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संपादकीय

पाक विस्थापित हिंदुओं को दें नई जिंदगी

24 अक्टूबर 1945 को संयुक्त राष्ट्र संघ (संयुक्त राष्ट्र) की स्थापना हुई थी। इस विश्व संगठन की स्थापना का महत्वपूर्ण उद्देश्य था कि संसार के किसी भी कोने में उत्पीडऩ ना हो, शोषण ना हो। एक वर्ग या संप्रदाय के लोग किसी दूसरे वर्ग या सम्प्रदाय के व्यक्ति पर इसलिए अत्याचार ना करें कि दूसरे […]

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संपादकीय

मनमोहन और आडवाणी की ‘फीलगुड’ और मोदी की धमक

देश की दो बड़ी पार्टियां-कांग्रेस और भाजपा। दोनों पार्टियों के दो बड़े नेता मनमोहन सिंह और लालकृष्ण आडवाणी। दोनों को अपने बारे में फीलगुड है कि देश उन्हें पीएम देखना चाहता है। इस भावना को आप महत्वाकांक्षा नही कह सकते इसे तो फीलगुड का एक विकार माना जाना ही श्रेयस्कर है। क्योंकि इन दोनों को […]

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संपादकीय

निजी सुरक्षा के नाम पर अर्थशक्ति का अपव्यय

भारत के आधुनिक राजनेता जो किसी नरेश से कम नही है जब राजमहलों से बाहर निकलते हैं तो उनके मिजाज, नाज और साज सब अलग प्रकार के होते हैं।गाडिय़ों का लंबा चौड़ा काफिला, पुलिस की व्यवस्था, सरकारी मशीनरी का भारी दुरूपयोग, निजी सुरक्षाकर्मी, कुछ गाडिय़ों में भरा हुआ मंत्रिमंडल (नित्य साथ रहने वाले चापलूसों की […]

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संपादकीय

गुजरात:सूर्य उदय होना चाहता है

गांधीजी ने एक बार कहा था-‘गांधीवाद नाम की कोई वस्तु नही है और मैं अपने बाद कोई संप्रदाय छोडऩा नही चाहता। मैं किसी नये वाद, सिद्घांत या मत को चलाने का दावा नही करता। मैंने तो केवल अपने ढंग से आधारभूत सच्चाईयों को अपने नित्य प्रति के जीवन एवं समस्याओं पर लागू करने का प्रयत्न […]

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संपादकीय

मानवाधिकारवादी सुनें:पंछी की तड़प

महाभारत के युद्घ में सर्वाधिक शालीन और मर्यादा की प्रतिमूर्ति, असाधारण व्यक्तित्व और प्रतिभा के धनी महात्मा विदुर का चिंतन इस राष्ट्र की गौरवपूर्ण थाती है। उनका चिंतन हजारों वर्षों से हमारा मार्गदर्शन करता आया है और अनंतकाल तक करता रहेगा। इस महात्मा ने लोकहितकारी शासक और शासन की आवश्यकता पर बल देते हुए मानवाधिकारों […]

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संपादकीय

बिगड़ता पर्यावरण संतुलन और यज्ञ

आर्थिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए ही नही अपितु सामाजिक व्यवस्था को भी सही प्रकार से चलाये रखने के लिए ‘ले और दे’ का सिद्घांत बड़ा ही कारगर माना जाता है। भारतीय संस्कृति में तो इसे और भी अधिक श्रद्घा और आस्था का प्रतीक बनाकर धार्मिक व्यवस्था के साथ जोड़ दिया गया। […]

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संपादकीय

इतिहास की समाधि पर कैमरून

भारत में शिक्षा पद्घति की प्रचलित परंपरा को बदलकर अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली को भारत में लागू कर अंग्रेज जाति के भारत में युग युगों तक शासन करने का सपना बुनने वाले लॉर्ड मैकाले ने जब इतिहास को थोड़ा दूर से देखा और उसका अंतिम समय आया तो उसे ‘सच का बोध हुआ’ और उसने कहा-मुझे […]

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