बिखरे मोती पंचतत्त्व से दूर है, महत्त्व से महान । कारण रूप में व्यापता कण-कण में भगवान॥ 1476॥ भावार्थ – पृथ्वी से परे अर्थात् दूर जल है,जल से दूर तेज (अग्नि) है, तेज से दूर वायु है,वायु से दूर आकाश है,आकाश से दूर महतत्त्व है, महतत्त्व से दूर प्रकृति है,और प्रकृति से दूर परमात्मा है। […]
श्रेणी: बिखरे मोती
ज्ञान से होता कर्म है,श्रद्धा से सत्कर्म ज्ञान से होता कर्म है, श्रद्धा से सत्कर्म । धर्म होय वैराग्य से , ऐश्वर्य दे धर्म ॥1475॥ व्याख्या:- ज्ञान से अभिप्राय है – “जो जैसा है,उसे वैसा ही जानना और मानना ज्ञान कहलाता है”।”ज्ञान का क्रिया में परिवर्तित होना कर्म कहलाता है।”हमारे धर्म – शास्त्रों में […]
आत्मज्ञानी है वही, आत्मरमण करे रोज। स्थित आत्मस्वरूप में , करे ब्रह्म की खोज॥1474॥ व्याख्या:- पाठकों को यह बताना अपेक्षित रहेगा कि यह मरण-धर्मा शरीर उस अमृत रूप अशरीर आत्मा का अधिष्ठान है,उसके रहने का स्थान है।आत्मा स्वभाव से अशरीर है,परन्तु जब तक इस शरीर के साथ अपने को एक समझ कर रहता है तब […]
बिखरे मोती श्रद्धा विवेक वैराग्य से भक्ति चढ़े परवान । भक्ति करे कोई सूरमा, जाको हरि में ध्यान॥1471॥ व्याख्या:- साधारणतया लोग ऐसे व्यक्ति को भक्त कहते हैं,जो राम-नाम का जप करता है अथवा ओ३म् नाम का जप करता है। वस्तुतः भक्ति तो चौथा सोपान है, जो अध्यात्म का शिखर है।इस शिखर तक पहुँचने से पूर्व […]
रसना हरि को नाम ले, मत करना प्रमाद। अनहद – चक्र मे बजे, सुन अनहद का नाद॥ 1469॥ व्याख्या:- मनुष्य प्रकृति में परमपिता परमात्मा की उत्कृष्टतम रचना है।चौरासी लाख योनियों में केवल मनुष्य को ही प्रभु ने ऐसी रसना का अमोघ उपहार दिया है,जिससे वह संवाद के साथ-साथ भगवान की भक्ति भी कर सकता […]
बिखरे मोती धन को बदलो धर्म में , करो लोक – कल्याण। हाथ दिया ही संग चले, खुश होवें भगवान॥1467॥ व्याख्या :- मानव – जीवन क्षणभंगुर है,न जाने कौन सा स्वांस जाने के बाद फिर लौट कर ना आये। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपने तन ,मन और धन से धर्म को कमाये अर्थात् […]
बिखरे मोती जैसा जिह्वा जप करे, वैसे मन में भाव। दोनों में हो एकता, पार लगेगी नाव ॥1463॥ व्याख्या:- प्रायःदेखा गया है कि कतिपय लोग अपनी रसना से किसी वेद – मंत्र अथवा श्लोक का जप तो करते हैं किंतु चित्त में आर्जवता(सरलता) नहीं कुटिलता होती है अर्थात् छल, कपट, ईर्ष्या, द्वेष,प्रतिशोध और जघन्य […]
मृत्यु खावै रोग को, पाप आत्मा खाय। ऐसी करनी कर चलो, जो परमधाम मिल जाय॥1461॥ व्याख्या :- मृत्यु का क्षण बड़ा दार्शनिक होता है।आदर्श और यथार्थ का यह कितना कठोर संगम है? मृत्यु की गोद में जीवन के सारे स्वप्न सो जाते हैं। वियोग जीवन का परम सत्य है।एक न एक दिन सभी को […]
बिखरे मोती हरि भजै दुर्गुण तजै, मन होवै प्रपन्न। ऐसे साधक से सदा, हरी रहे प्रपन्न॥1458॥ प्रपन्न – अहंकार का गलना और प्रभु के समर्पित होना,प्रभु के शरणागत होना साधक -भक्त धन – माया दोनों छिनें, मृत्यु छीने प्राण। सर सूखे हंसा उड़़े, सब कुछ हो सुनसान॥1459॥ बाहर की प्रताड़ना, देती मन को त्रास। […]
अशेष की जो विभूतियां, जाने सिर्फ अशेष अक्षत मन से सिमरले, परम – पिता का नाम। आत्मा का भोजन भजन, लिया करो सुबह-शाम॥1448॥ अक्षत मन – पूरा मन, पूर्ण मनोयोग भक्ति में हो प्रेम-रस, साधक होवै लीन। अवगाहन हरि में करे। जैसे जल में मीन ॥1449॥ अवगाहन – विचरण रूहानी – दौलत के छिपे , […]