बिखरे मोती संस्कार की प्रबलता के संदर्भ में:- संस्कार जिसमें प्रबल,वही कला-निष्णात संस्कार जिसमें प्रबल, वही कला -निष्णात। साधन साथी सद्गुरु, मिले हरि का हाथ॥1583॥ व्याख्या:- पाठकों की जानकारी के लिए बृहदारण्यक – उपनिषद के अनुसार “मरणासन्न मनुष्य की आत्मा चक्षु से, मुर्धा से या शरीर के किसी अन्य प्रदेश से निष्क्रमण कर देती है। […]
श्रेणी: बिखरे मोती
ऊँचा सोचो सर्वदा, ऊँचे रखो भाव। जैसा चिन्तन चित्त में, वैसा बने स्वभाव॥1504॥ व्याख्या:- छान्दोग्य-उपनिषद की सूक्ति है “यत पिण्डे जो ब्रह्माण्डे” अर्थात जो हमारे शरीर में है, वही ब्रह्माण्ड में है। पिण्ड और ब्रह्माण्ड का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। हमारे हृदय में चित्त है, जिसमें आत्मा रहता है और आत्मा के अन्दर परमात्मा रहता है, […]
कर्मयोग में शान्ति रस,ज्ञानयोग में अखण्ड कर्मयोग में शान्ति रस, ज्ञानयोग में अखण्ड। भक्तियोग में अनन्त रस, यदि होवै प्रचण्ड ॥1503॥ व्याख्या:- प्रायः लोग कर्मयोग से अभिप्राय कर्म करने मात्र से लेते हैं जबकि वास्तविकता यह है कि कर्मयोग नि:स्वार्थ भाव से केवल दूसरों के हित के लिए कर्म करता है। इससे उसके मन को […]
जीवन में कितना रहा, सोचो हर्ष – विषाद। शान्त चित्त से बैठकर, क्या किया प्रभु को याद॥1504॥ व्याख्या:- विवेकशील व्यक्ति को अपने जीवन के भूतकाल की ओर वर्तमान समय की समीक्षा अवश्य करना चाहिए और देखना चाहिए कि मेरा भूत कैसा रहा, वर्तमान कैसा चल रहा है तथा भविष्य कैसा होगा ? क्या मेरा भूतकाल […]
बिखरे मोती देह का सार है आत्मा, सृष्टि का है ब्रह्म। जान सके तो जान ले, इनमें आनन्दम्॥1496॥ व्याख्या:- पाठकों को यहां यह बता देना प्रासंगिक रहेगा कि जीवात्मा तथा ब्रह्म यह दोनों प्रज्ञ है अर्थात् ज्ञान वाले हैं,चेतना वाले हैं,जबकि शरीर तथा प्रकृति प्राज्ञ है अर्थात् ज्ञान वाले नहीं है,चेतना वाले नही है किन्तु […]
जीवन में संचित करो, जितना हो हरि- नाम। मानुष-धन रह जाएगा, काम आये हरि-नाम॥ 1439॥ व्याख्या:- कैसी विडम्बना है मनुष्य अपनी उर्जा का अधिकांश भाग धन-संग्रह में लगा देता है जबकि होना यह चाहिए था कि उसे अपनी जीवन- ऊर्जा को धर्म- संग्रह और प्रभु भक्ति में लगाना चाहिए। उसके जीवन का अन्तिम लक्ष्य भी […]
चिता किनारे तक रहें, रूप सृजन श्रंगार। मृत्यु ऐसा सत्य है, करें भीगी आँख स्वीकार॥1494॥ व्याख्या:- न जाने किस डोरी में बंधा हुआ मनुष्य जीवन पर्यन्त कठपुतली की तरह नाचता है किन्तु जैसे ही मृत्यु का क्रूर झपट्टा लगता है, तो सब क्रियाएं गतिशून्य हो जाती हैं।उसके रूप श्रृंगार और सृजन की कहानी भी चिता […]
ब्रह्मानन्द में लीन जो,दूर रहें सन्ताप ब्रह्मानन्द में लीन जो, दूर रहें सन्ताप। सर्दी को हर लेते है, ज्यों सूरज का ताप॥1487॥ व्याख्या:- जिस प्रकार सूर्य की तेज धूप सर्दी को हर लेती है,ठीक इसी प्रकार ब्रह्मानन्द में लीन रहने वाले साधक के सारे सन्ताप स्वतः दूर हो जाते हैं।इस संदर्भ में तैत्तीरोपनिषद् ( ब्रह्मानन्द […]
हंस उड़ेगा ताल से, नाम बदल फिर आय। जैसी करनी कर चला, वैसी योनि पाय॥1483॥ व्याख्या:- यह क्षणभंगुर संसार है। हंसरूपी आत्मा तालरूपी शरीर से एक दिन प्रयाण करेगी यह शाश्वत सत्य है। आवागमन का क्रम यहां निरंतर चल रहा है। नाम,स्थान और जन्म को सिवाय ईश्वर के और कोई नहीं जानता है। कर्माशय के […]
प्रकृति को देखिए , करती रोज पदार्थ। नर तो वही श्रेष्ठ है , जो करता परामर्श॥ 1481॥ व्याख्या :- हमारे ऋषि – मुनि प्रकृति की सुरम्य उपत्यका में बैठकर चिंतन-मनन और ध्यान करते थे। वे प्रकृति से बहुत कुछ सीखते थे । जैसे प्रकृति के पंचभूत – पृथ्वी सबको आश्रय देती है ,भरण […]