बिखरे मोती संयम खूंटे से बाँधले, वाणी रूपी गाय, खुली छोड़ने पर तेरी, यस – खेती चर जाय।।1661।। भावार्थ :- जिनकी वाणी में प्राण और प्राण में प्राण होता है, संसार में ऐसे लोग बिरले ही होते हैं। वाणी माननीय व्यक्तित्व का सर्वश्रेष्ठ गहना है। सब गहने एक दिन अपनी चमक खो देते हैं किन्तु […]
श्रेणी: बिखरे मोती
साधना से सृजन करे, कोई दाता या शूर। सृष्टि-हित में रत रहे, ईश्वर का है नूर॥1656॥ भावार्थ:- अपनी आजीविका आजीविका के लिए सामान्य व्यक्ति कुछ न कुछ उत्पन्न करने अथवा निर्माण करने में लगा हुआ है किन्तु संसार में ऐसे ही व्यक्ति होते परमपिता परमात्मा की बनाई सृष्टि के कल्याण के लिए निर्माण अथवा अनुसंधान […]
स्मृति मेधा क्षमा, धृति श्री यश वाक। जग में सात विभूतियाँ, बाकी तो सब ख़ाक॥1645॥ व्याख्या :- संसार में सात विभूतियाँ (विलक्षणता) ऐसी हैं, जो किसी एक व्यक्ति के पास एक साथ बड़ी दुर्लभ मिलती है। ऐसा व्यक्ति कोई पुण्यसील आत्मा होता है, जिसका प्रारब्ध महान् होता है। प्रभु का प्रिय कृपा-पात्र होता है। 1 […]
आत्मा के दिव्य गुणों का वर्धन कीजिए:- भक्ति में बाधक राग और द्वेष जब तक राग और द्वेष हैं, मन में रहे तनाव। भक्ति को बाधित करें, टिके न भगवद् – भाव॥1638॥ परमात्मा का प्रिय, कोई बिरला ही होता है:- प्रभु प्यारे को सब चुनें, प्रभु चुनें कोई एक। उस पर कृपा सब करें, जिस […]
मैं- मेरे पर हो रहा, इस जग में घमासान। तू- तेरे के भाव से, खुश होते भगवान॥1635॥ व्याख्या:- विश्व के परिदृश्य पर एक समग्र दृष्टि डालें तो प्रतीत होता है संसार में लोग सुखी कम है दु:खी ज्यादा है किन्तु फिर भी लोग जीना चाहते हैं ऐसा क्यों ? ऐसा इसलिए है व्यक्ति की मूल […]
प्रकृति के तत्व दो, एक अग्नि एक सोम। दोनों के संयोग से, चल रहा सृष्टि- होम॥1634॥ व्याख्या:- सुना है सृष्टि के आग और पानी दो शत्रु हैं, जो निर्माण या नाश का नृत्य करते हैं।भाव यह है कि मनुष्य जो भी निर्माण करता है, उसका यह विनाश कर देते हैं। जल जहां सब कुछ बहा […]
जो सिमरै संसार को, तो जगता है काम। जो सिमरै ओंकार को, तो होता निष्काम॥1623॥ व्याख्या:- भाव यह है कि जब व्यक्ति भगवान का भजन करने के लिए बैठता है और चिन्तन संसार का करता है,तो काम ( तृष्णाएं) उत्पन्न होता है। काम से राग – द्वेष ईर्ष्या, घृणा, क्रोध, सम्मोह (मुढ़ता) उत्पन्न होते हैं,स्मृतिभ्रंश […]
वेद,यज्ञ,तप,दान से, मिलते नहीं भगवान। कृपा होय अहेतु की, दर्शन दें भगवान॥1614॥ ( उद्धरण-श्रीमदभगवद गीता, अध्याय 11/40) व्याख्या:- वेदों का अध्ययन किया जाय, यज्ञों का विधि-विधान से अनुष्ठान किया जाय, शास्त्रों का अध्ययन किया जाय, बड़े-बड़े दान किए जाय, बड़ी उग्र तपस्या की जाय और तीर्थ,व्रत आदि शुभ कर्म किए जाय- ये सब के सब […]
जब चित्त चैतन्य से जुड़ता है चित्त जुड़े चैतन्य से, भासै दिव्य – प्रकाश। वाणी और व्यवहार में, ऋजुता भरी मिठास॥1613॥ व्याख्या:- ध्यान देने वाली विशेष बात यह है कि जो जितना जड़ता (अज्ञान और अहंकार) में है वह उतना ही चैतन्य (परमपिता परमात्मा) से दूर है। प्रभु कृपा से यदि किसी के चित्त की […]
बुद्धि जानै प्रकृति को, ब्रह्म को जाने नाय। ज्यों दीये की लोय से, सूरज मिलता नाय॥1608॥ भावार्थ:- बुद्धि का गम्य क्षेत्र सीमित है जबकि ब्रह्म अनन्त है, असीमित है। ब्रह्म स्वतः प्रकाश है। इसलिए उसे बुद्धि के प्रकाश से जाना नहीं जा सकता,जैसे सूर्य स्वत: प्रकाशित है, उसे किसी दीपक से नहीं जाना जा सकता […]