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विश्वगुरू के रूप में भारत संपादकीय

विश्वगुरू के रूप में भारत-10

यद्यपि हाल ही के वर्षों में रोगी यूरोप भारत की योग पद्घति की ओर झुका अवश्य है, उसे कुछ-कुछ पता चला है कि निरे भौतिकवाद से भी काम नहीं चलने वाला और यह भी निरे भौतिकवाद ने उसकी रातों की नींद और दिन का चैन छीन लिया है। तब हारा थका और भौतिकवाद से पराजित […]

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विश्वगुरू के रूप में भारत संपादकीय

विश्वगुरू के रूप में भारत-7

आज भी मुस्लिम जगत और ईसाई जगत के नाम पर विश्व दो खेमों में बंट चुका है, और हम देख रहे हैं कि ये दोनों खेमे विश्व को कलह-कटुता परोस रहे हैं। इसके बीच ना तो कोई वैदिक जगत है और ना ही कोई हिंदू जगत है। इसका न होने का कारण यही है कि […]

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विश्वगुरू के रूप में भारत संपादकीय

विश्वगुरू के रूप में भारत-8

भारत के आर्य लोगों का संदेश था कि हर व्यक्ति को स्वराज्य के सुराज्य का रसास्वादन लेने का पूर्ण अधिकार है। वेद कहता है कि- ‘सा नो भूमिस्त्विषिं बलं राष्टï्रे दधातूत्तमे'(अथर्व 12/1 /8) इसका भावार्थ है कि हमारी मातृभूमि उत्तम राष्टï्र में कांति और शक्ति धारण करे, अर्थात हम लोग कांति और शक्ति धारण करने […]

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विश्वगुरू के रूप में भारत संपादकीय

विश्वगुरू के रूप में भारत-6

भारत में ‘कंस’ को निपटाने के लिए ‘कृष्ण’ उत्पन्न होते रहे हैं, और भारत की जनता ने ऐसे जननायक कृष्ण को ‘भगवान’ की श्रेणी में रखकर यह बताने का प्रयास किया है कि वह लोककल्याणकारी शासक को भगवान के समान इसलिए मानती है कि भगवान का कार्य भी लोककल्याण ही होता है। अत: यदि उसके […]

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विश्वगुरू के रूप में भारत संपादकीय

विश्वगुरू के रूप में भारत-5

हमारे लिए युद्घ अंतिम विकल्प रहा भारत के चिंतन में किसी को कष्ट पहुंचाना या किसी देश की क्षेत्रीय अखण्डता को नष्ट करना या किसी देश पर हमला करके उसके नागरिकों का नरसंहार करना या उनके अधिकारों का हनन करना कभी नहीं रहा। यही कारण रहा कि युद्घ भारत के लिए किसी समस्या के समाधान […]

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मुद्दा राजनीति विशेष संपादकीय संपादकीय

आवश्यकता भारत जोड़ो आंदोलन

अभी-अभी भारत ने 1942 में छेड़े गये-‘अंग्रेजो! भारत छोड़ो’ आंदोलन की 75वीं वर्षगांठ मनाई है। वैसे हमारा मानना है कि यदि 1857 की क्रांति के इतिहास का और उस समय घटे घटनाचक्र का सूक्ष्मता से अवलोकन किया जाए तो पता चलता है कि भारतवासियों ने 1942 से 85 वर्ष पूर्व अंग्रेजों के विरूद्घ ‘भारत छोड़ो […]

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विश्वगुरू के रूप में भारत संपादकीय

विश्वगुरू के रूप में भारत-4

सामाजिक संघर्ष में लिप्त लोगों को सही मार्ग पर लाने के लिए कानून बनाया जाता है और उसके माध्यम से उन्हें दंडित किया जाता है। जबकि ‘धर्म में युद्घ’ की स्थिति में लिप्त लोगों को सही मार्ग पर लाने के लिए नीति और विधि का सहारा लिया जाता है। इस नीति में दण्ड की एक […]

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विश्वगुरू के रूप में भारत संपादकीय

विश्वगुरू के रूप में भारत-3

ऐसी परिस्थितियों में उन अनेकों ‘फाहियानों,’ ‘हुवेनसांगों’ व ‘मैगास्थनीजों’ का गुणगान करना हम भूल गये जो यहां सृष्टि प्रारंभ से अपनी ज्ञान की प्यास बुझाने के लिए आते रहे थे और जिन्होंने इस स्वर्गसम देश के लिए अपने संस्मरणों में बारम्बार यह लिखा कि मेरा अगला जन्म भारत की पवित्रभूमि पर होना चाहिए। जिससे कि […]

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विश्वगुरू के रूप में भारत संपादकीय

विश्वगुरू के रूप में भारत-2

भारत की इस प्रवाहमानता के कारण भारत के चिंतन में कहीं कोई संकीर्णता नहीं है, कही कोई कुण्ठा नहीं है, कहीं किसी के अधिकार को छीनने की तुच्छ भावना नहीं है, और कहीं किसी प्रकार का कोई अंतर्विरोध नहीं है। सब कुछ सरल है, सहज है और निर्मल है। उसमें वाद है, संवाद है-विवाद नहीं […]

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विशेष संपादकीय विश्वगुरू के रूप में भारत संपादकीय

विश्वगुरू के रूप में भारत-1

यदि कोई मुझसे ये पूछे कि भारत के पास ऐसा क्या है-जो उसे संसार के समस्त देशों से अलग करता है?-तो मेरा उत्तर होगा-उसका गौरवपूर्ण अतीत का वह कालखण्ड जब वह संसार के शेष देशों का सिरमौर था अर्थात ‘विश्वगुरू’ था। जब मेरे से कोई ये पूछे कि भारत के पास ऐसा क्या है-जिससे वह […]

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