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संपादकीय

कोऊ नृप होइ हमें का हानि-क्यों बनी ऐसी सोच?-भाग-3

राष्ट्र धर्म की उपेक्षा घातक स्वतंत्रता के उपरांत हमारा राष्ट्रधर्म था राजनीति को मूल्य आधारित बनाना, शासक को शासक के गुणों से विभूषित करना तथा राष्ट्र को दिशा देने में सक्षम बनाने वाले राजनीतिक परिवेश का निर्माण करना। हमने इसी धर्म को निशाने में चूक की। परिणामस्वरूप राजनीति बदमाशों के पल्ले पड़ गयी जो आज […]

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संपादकीय

कोऊ नृप होइ हमें का हानि-क्यों बनी ऐसी सोच?-भाग-2

इस बात को दृष्टिगत रखते हुए कृष्ण जी कहते हैं-‘स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मोभयावह:’ अपने धर्म में मर जाना भी उत्तम है, क्योंकि दूसरे का धर्म भयावह है। इसे एक बात से हम समझ लें कि अध्यापक (ब्राह्मण) का कर्म पढ़ाना है, राजा का कर्म राज करना है। राज करने से पढ़ाना सरल है। यदि कोई […]

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संपादकीय

कोऊ नृप होइ हमें का हानि-क्यों बनी ऐसी सोच?

देखिये गीता में श्रीकृष्ण जी अर्जुन से कहते हैं- ‘वीरता, तेज, धीरता, चतुरता, युद्घ में पीठ न दिखाना, दानशीलता और शासन करना ये क्षत्रिय के स्वाभाविक गुण हैं।’ श्री कृष्ण जी कहते हैं कि अपने स्वभाव के अनुसार अपने-अपने कर्म में जो व्यक्ति लगा रहता है, वह सिद्घि को प्राप्त करता है। सभी व्यक्तियों का […]

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