विश्वगुरू के रूप में भारत-53 दासता से मुक्ति का दिया भारत ने विश्व को संदेश भारत ने अपना स्वाधीनता संग्राम उसी दिन से आरंभ कर दिया था जिस दिन से उसकी स्वतंत्रता का अपहत्र्ता पहला विदेशी आक्रांता यहां आया था। इस विषय पर हम अपनी सुप्रसिद्घ पुस्तक श्रंखला ‘भारत के 1235 वर्षीय स्वाधीनता संग्राम का […]
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विश्वगुरू के रूप में भारत-52 दूध को जब तक आप बिना पानी मिलाये बेच रहे हैं, तब तक वह व्यवहार है, पर जब उसमें पानी की मिलावट की जाने लगे और अधिकतम लाभ कमाकर लोगों का जीवन नष्ट करने के लिए बनावटी दूध भी मिलावटी करके बेचा जाने लगे तब वह शुद्घ व्यापार हो जाता […]
विश्वगुरू के रूप में भारत-51 (16) रैक्ण-वैध या लब्धव्य राशियों में से जो संशयित राशि है, अर्थात जिसकी प्राप्ति की आशा पर संशय है व रैक्ण कही जाती है। (17) द्रविण-उपार्जित राशि में से जो लाभराशि हमारे व्यक्तिगत कार्य के लिए है-उसे द्रविण कहा जाता है। (18) राध:-द्रविण में से जो भाग बचकर अपनी निधि […]
विश्वगुरू के रूप में भारत-50 आज का अर्थशास्त्र इसे ‘ले और दे’ की व्यवस्था कहता है, पर वेद की व्यवस्था ले और दे (त्रद्ब1द्ग ड्डठ्ठस्र ञ्जड्डद्मद्ग) से आगे सोचती है। वह कहती है कि जिसने आपको जो कुछ दिया है उस देने में उसके भाव का सम्मान करते हुए उसे कृतज्ञतावश उसे लौटा दो। जिससे […]
उधर शासन के लोग भी चोरी करते हैं, वहां भी भ्रष्टाचार है। वे भी जनधन को उचित ढंग से प्रयोग नहीं करते और उसे भ्रष्टाचार के माध्यम से अपनी तिजोरियों में भरने का प्रयास करते हैं। ऐसे में करदाता और शासक वर्ग देश में सांप-छछूंदर का खेल खेलता रहता है। करदाता कर बचाने की युक्तियां […]
इसके पश्चात पुन: गायत्री मंत्र का स्थान वैदिक सन्ध्या में आता है। जिसकी व्याख्या की हम पुन: कोई आवश्यकता नहीं मान रहे हैं। उसके पश्चात अगला मंत्र ‘समर्पण’ का है- हे ईश्वर दयानिधे भवत्कृपयानेन जपोपासनादिकर्मणा धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्य: सिद्विर्भवेन्न:। अर्थात-”हे ईश्वर दयानिधे! आपकी कृपा से जो-जो उत्तम-उत्तम काम हम लोग करते हैं, वे सब आपके अर्पण […]
विशाल शत्रु दल से जीत पाना हमारे योद्घाओं के लिए तभी संभव हो पाया था-जब हमने ईश्वरीय शक्ति को अपना सम्बल मान लिया था। हम चोर नहीं थे और ना ही हम कोई अनुचित कार्य कर रहे थे, इसलिए ईश्वर ने भी हमारा साथ दिया और हमसे संसार में विषम परिस्थितियों में भी बड़े-बड़े कार्य […]
जो जन अज्ञानवश हमसे वैर करता है या किसी प्रकार का द्वेष भाव रखता है, और जिससे हम स्वयं किसी प्रकार का वैर या द्वेषभाव रखते हैं-उस वैर भाव को हम आपके न्याय रूपी जबड़े में रखते हैं। जबड़े की यह विशेषता होती है कि जो कुछ उसके नीचे आ जाता है उसे वह चबा […]
इस मंत्र के पश्चात ‘अघमर्षण मंत्र’ आते हैं। इनमें ईश्वर की सृष्टि रचना का चिंतन किया जाता है, अर्थात हम और भी गहराई में उतर जाते हैं। जिस आनंद की अभी तक झलकियां मिल रही थीं, हम उन्हें पकड़ते हैं और कुछ अबूझ पहेलियों के उत्तर खोजने लगते हैं। पहला मंत्र है- ओ३म् ऋतं च […]
प्रात:काल की संध्या में अपने इष्ट से मिलन होते ही कितनी ऊंची चीज मांग ली है-भक्त ने। मांगने से पहले उसे सर्वव्यापक और सर्वप्रकाशक जैसे विशेषणों से पुकारा है, जो उसके लिए उचित ही है। पहली भेंट में इतनी बड़ी मांग करना कोई दीनता प्रकट करना नहीं है, अपितु अपनी पात्रका को कितना ऊंचा उठा […]