व्यंग्य लेख – डॉ. दीपक आचार्य यह नियति ही हो गई हैं जहाँ कुछ हरा-भरा चरने, देखने , चूसने , सूंघने और खाने लायक कहीं नज़र आया नहीं कि बेशर्म होकर लपक पड़ते हैं सारे के सारे उधर। खेतो में फूली पीली सरसों क्या लहलहाने लगी, मोयलों की पूरी की पूरी सेना ही […]
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