बिखरे मोती-भाग 101 धन के संग में धर्म भी, ज्यों-ज्यों बढ़ता जाए। मन हटै संसार से, प्रभु चरणों में लगाय ।। 938 ।। व्याख्या :- इस नश्वर संसार में मनुष्य की धन दौलत जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, यदि उसी अनुपात में दान पुण्य अथवा भक्ति और धर्म के कार्यों में रूचि बढ़ती है, तो मन […]
Author: विजेंदर सिंह आर्य
कोयला हीरा एक है, किंतु भिन्न है मोल
बिखरे मोती-भाग 100 भौतिकता में मन फंसा, क्या जाने मैं कौन? नशा विकारों का चढ़ा, चेतन कर दिया मौन ।। 934 ।। व्याख्या :- इस संसार में ऐसे भी लोग हैं जो तन से तो मनुष्य हैं किंतु मन में पाशविकता इतनी भरी पड़ी है कि वे राक्षस और पिशाच की श्रेणी में आते हैं। […]
बिखरे मोती-भाग 99 ऋजुता का जीना सदा, राखै हरि समीप। एक कुटिलता के कारनै, बुझै ज्ञान का दीप ।।931।। व्याख्या :- ऋजुता से अभिप्राय है कि सरलता अर्थात हृदय का कुटिलता रहित होना। जिनका हृदय ऋजुता से ओत-प्रोत होता है उन्हें प्रभु का सानिध्य प्राप्त होता है। वे प्रभु-कृपा के पात्र होते हैं, किंतु हृदय […]
बिखरे मोती-भाग 106 चल मनुवा उस देश को, जहां मिलै आनंद। प्रकृति से है परे, वह प्यारा परमानंद ।। 955 ।। व्याख्या :- महर्षि पतंजलि ने कहा था कि संसार के सारे क्लेश तन, मन और बुद्घि में है। मन का स्वभाव है-माया (प्रकृति) में रमण करना, और बुद्घि को भी माया में ही लगाये […]
बिखरे मोती-भाग 90 कर्म बदल सत्कर्म में, जीवन के दिन चार। पुण्य मुद्रा स्वर्ग की, भर इसके भण्डार ।। 898 ।। व्याख्या : हे मनुष्य! यह जीवन क्षणभंगुर है। जितना हो सके कर्मों को पुण्य में परिवर्तित कर क्योंकि स्वर्ग की मुद्रा पुण्य है। इसी के आधार पर तुझे स्वर्ग में प्रवेश मिलेगा। इसलिए समय […]
वह परमात्मा अज्ञान से अत्यंत परे है
बिखरे मोती-भाग 89 जितना समीप परमात्मा, इतना कोई नाहिं। कारण बनकै रम रहा, हर कारज के माहिं ।। 893 ।। व्याख्या : प्रकृति से अधिक समीप स्थूल शरीर है, स्थूल शरीर से अधिक समीप सूक्ष्म शरीर है, सूक्ष्म शरीर से अधिक समीप कारण शरीर है, कारण शरीर से अधिक समीप अहम है और अहम से […]
देह, आत्मा, जगत की, कभी एकता न होय
बिखरे मोती-भाग 88 कृपा जीवन बदल देती है, रंक को राजा बना देती है। दिखने में कृपा मामूली लगती है किंतु गुणकारी और प्रभावशाली इतनी होती है कि जिंदगी का कायाकल्प कर देती है। देखने में तो लाइटर की चिंगारी भी बड़ी सूक्ष्म होती है, किंतु जब वह चूल्हे की अग्नि बनकर जलती है तो […]
बिखरे मोती-भाग 87 कर्म करो ऐसे सदा, मीठी याद बन जाय। तू पंछी उस देश का, जाने कब उड़ जाये ।। 885 ।। व्याख्या : हे मनुष्य! यह जीवन क्षणभंगुर है। इसका कोई भरोसा नही है। तू पृथ्वी पर कर्म-क्रीड़ा करने के लिए आनंद लोक से आया है। इसलिए यहां पर ऐसे कर्म कर ताकि […]
कड़ुवा और क्रोध में, मत बोलो कभी बोल
बिखरे मोती-भाग 86 मांगे से तीनों घटें, प्यार पुरस्कार सत्कार। सहज भाव से होत है, सदा तीनों का विस्तार ।। 873 ।। बिन मांगे मत सीख दे, बिन श्रद्घा के दान। वाणी पर संयम रखें, वे नर चतुर सुजान ।। 874 ।। सीख अर्थात उपदेश, सलाह मन को चिंता में नही, चिंतन में जो लगाय। […]
आत्मबोध से मिटत है,जग में सभी अभाव
बिखरे मोती-भाग 83 जग में दुर्लभ ही मिलें, उर में साधुभाव। यही तो दैवी संपदा, पार लगावै नाव ।। 860 ।। साधुभाव-अंत:करण के श्रेष्ठ भावों को साधुवाद कहते हैं। श्रेष्ठभाव अर्थात सद्गुण-सदाचार दैवी संपत्ति है। व्याख्या : इस संसार में जमीन जायदाद और धन वैभव के स्वामी तो बहुत मिलते हैं किंतु दैवी संपत्ति का […]