पिंडदान-पितृ- विसर्जन रहस्य

-स्वामी विवेकानन्द जी सरस्वती, प्रभात आश्रम
(पूज्य स्वामी विवेकानन्द जी का यह लेख 22 वर्ष पहले शांतिधर्मी में प्रकाशित हुआ था। पितृपक्ष श्राद्ध तर्पण प्रकरण में यह लेख अवश्य ही पठनीय और विचारणीय है।- सहदेव समर्पित)

किसी भी भारतीय मास के दो पक्ष होते हैं, पहला पक्ष कृष्ण पक्ष अर्थात् अन्धेरा पक्ष। दूसरा शुक्ल पक्ष अर्थात् उजला पक्ष के नाम से जाना जाता है। प्रत्येक पक्ष प्रायः पन्द्रह दिन का होता है, जिससे दोनों पक्षों को मिलाकर प्रायः 30 दिन का मास होता है। कभी-कभी तिथियों के घटने-बढ़ने के कारण न्यूनाधिक दिन का भी एक मास हो जाता है। आश्विन मास भी इन्हीं भारतीय 12 महीनों में से एक है, जिसे ग्रामों में असौज या क्वार (कुवार) भी कहते हैं। इस महीने की विशेषता यह है कि इसके कृष्ण पक्ष को पितृ पक्ष तथा शुक्ल पक्ष को देव पक्ष कहते हैं। जिसे पितृ पक्ष कहते हैं उस पक्ष में भारतवर्ष के ग्राम-ग्राम में जहां भी हिन्दू आर्य रहता है वह अपने मरे हुए पितरों को पानी तथा पिण्ड देता है, ब्राह्मणों एवं कौवों को भोजन कराता है। यह कार्यक्रम आश्विन कृष्णा प्रतिपदा से आश्विन की अमावस्या तक लगातार चलता रहता है। इस कार्य को समस्त हिन्दू बड़ी श्रद्धा एवं विश्वास के साथ करते हैं। इस प्रकार के कार्यों को देखकर पाश्चात्य सभ्यता में पला हुआ व्यक्ति ही नहीं अपितु प्रत्येक बुद्धिवादी व्यक्ति हंसे बिना नहीं रहता। भला ! इस विज्ञान के युग में भी इतनी भोली बातें। अतः इस क्रिया और प्रथा के सम्बन्द्द में कुछ विचार लेना अप्रासंगिक न होगा।
पिण्डदान क्रिया कलाप का विधान केवल पुराणों में ही नहीं किन्तु शतपथ ब्राह्मण के द्वितीय काण्ड में भी किया गया है और वहाँ यह क्रिया पिण्ड पितृ यज्ञ के नाम से प्रसिद्ध है। जो क्रियायें पिण्ड पितृयज्ञ में करायी जाती हैं वे सब पौराणिक क्रियाओं से मिलती जुलती हैं। अतः पौराणिक पोप लीला कहकर भी इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।
हमारे भारतीय धार्मिक सभी पर्व प्रायः किसी न किसी गूढ़ अर्थ को छिपाये हुए हैं। जिस प्रकार कोई खण्डहर जो आज अपनी जीर्ण शीर्ण अवस्था में उपेक्ष्य तथा अनाकर्षक बना हुआ है। पहले कभी अपेक्षणीय तथा आकर्षण का केन्द्र बना रहा होगा। लाखों लोग उसे देखने में अपना सौभाग्य समझते रहे होेंगे। उसी प्रकार यह पर्व भी है। जब कभी वेद का प्रचार, ग्राम-ग्राम, घर-घर में रहा होगा, प्रत्येक व्यक्ति वैदिक मर्यादाओं का पालन करता रहा होगा- उस समय उसका समुज्जवल स्वरूप कुछ और ही था। उसका विकृत रूप अब जितना हास्यास्पद प्रतीत होता है, सुसंस्कृत रूप इससे भी अधिक आकर्षक तथा सुखद।
वह स्वरूप यह है कि वैदिक वर्ण व्यवस्था के अनुसार चार वर्ण और चार आश्रम होते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये चार वर्ण; ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास ये चार आश्रम। 50 वर्ष की उम्र के पश्चात प्रत्येक मनुष्य को वानप्रस्थ लेना होता था। वन में जहां पर गुरुकुल होते थे, उनके आसपास या गुरुकुल में ही निवास स्थान बनाकर रहता था। उस समय वह वानप्रस्थ व्यक्ति ब्रह्मचर्य काल में जो विद्या पढ़ा होता था, उसका पुनः स्वयं अच्छी प्रकार से अभ्यास तथा गुरुकुल में निःशुल्क विद्यादान करता था और शेष समय आत्मचिंतन एवं सेवा में व्यतीत करता था। गुरुकुलों (शिक्षा केन्द्रों) के जंगल में होने के कारण वर्षा होने से बाहर से यातायात का सम्पर्क टूट जाता था। घनघोर जंगल होने के कारण वर्षाकालीन जीव जन्तु मच्छर आदि अधिक हो जाते थे, जिससे वहां पर उस समय में रहने वालों को कष्ट होना स्वाभाविक था। इसलिए वानप्रस्थ आश्रम सेवी लोग जंगलों को छोड़कर ग्रामों में, जहां ग्राम से बाहर कुटिया बनी होती थी, उसमें निवास करते थे। उस समय गृहस्थ ज्ञान-धर्म पिपासुओं को यह लाभ होता था कि ज्ञान प्रकाशक धर्मोपदेशक उनके बिल्कुल समीप आ जाते थे। खाली समय में गृहस्थ लोग उन पितरों (वानप्रस्थ) लोगों के पास जाकर उनके पवित्र जीवन से लाभ उठाते थे, और समाधान प्राप्त करते थे। इस प्रकार लगातार तीन-चार महीने तक ज्ञान गंगा उनके समीप बहती थी और वे उसमें निमज्जन करते थे। भाद्रमास के बाद जब वर्षा कम होती थी तो मच्छरादि के कम होने से वानप्रस्थ लोग पुनः अपने-अपने अरण्यस्थ आश्रमों की ओर प्रस्थान करते थे। गृहस्थ कृषकों का नव कृषि कार्य का अब शुभारम्भ होता था। अतः वे भी उनकी विदाई सहर्ष करते थे क्योंकि खाली समय में ज्ञान गंगा में स्नान कराने वाले ये वानप्रस्थी थे। उनके विदाई का काल 15 दिन का इसलिए रखा गया कि इसमें किसी प्रकार अतिशीघ्रता के कारण चंचलता या अन्य दोष न आ जाये। वानप्रस्थ लोग शांत होते हैं अतः उनकी विदाई भी शांतिपूर्वक होनी चाहिए। 15 दिन में धीरे-धीरे सभी पितर (वानप्रस्थ लोग) आगे पीछे अपने-अपने आश्रमों में लौट जाते थे। यह उनकी विदाई की क्रिया ही पितृ विसर्जन के नाम से इस समय प्रसिद्ध है जिसका सुसंस्कृत रूप दिखाया गया।
अब रहा पिण्डदान तो उसे भी थोड़ी गहराई में जाकर समझना चाहिए। पिण्ड का अर्थ केवल पिण्ड नहीं। पिण्ड को भोजन के अर्थ में भर्तृहरि ने नीतिशतक में प्रयोग किया है, ‘‘श्वा पिण्डदस्य कुरुते गजपुंगवस्तु, धीरं विलोकयति चाटुशतैश्च भुङक्ते।’’ मुद्राराक्षस में भी पिण्ड का प्रयोग भोजन के अर्थ में किया गया है-दैन्यादुन्मुख दर्शना पलपनैः पिण्डार्थ मायास्यतः। सेवा लाघव कारिणी कृतधियः स्थाने स्ववृत्ति विदुः।। इससे यह पता चला कि पिण्ड शब्द भोजन का वाचक है। वैसे पिण्ड शब्द व्याकरण की दृष्टि से ‘पिंडि, संघाते’ धातु से अच् प्रत्यय करके बना है, जिसका अर्थ है कि कुछ वस्तुओं को मिश्रित कर एक ठोस समूह बनाना। उस मिली हुई भोज्य वस्तु का नाम ही पिण्डदान कहा जाता है। पितरों को कैसी वस्तु और किस प्रकार देनी चाहिए यह वर्तमान पिण्डदान के समय की प्रतीक भूत क्रियाओं से उपलक्षित होता है। वर्तमान समय में जो पितरों को पिण्डदान दिया जाता है वह चावल की खीर पकाकर शक्कर, घृत मिलाकर गोल पिण्ड (संघात) बना यज्ञोपवीत को बायें हाथ की ओर लटकाकर कुशा के साथ मिलाकर दिया जाता है इस बस क्रिया में ही सारा रहस्य भरा है।
खीर, शक्कर, घृत, हलका सुपच तथा पौष्टिक भोजन है। चरक संहिता में खीर को ‘‘परमान्न’’ कहा है। पितर लोग वृद्ध हो गये हैं उनके दांत और आँत अब पूरी कचैरी खाने और पचाने लायक नहीं रहे, इसलिए खीर जैसा सुपच भोजन उनको देना चाहिए। घृत, शक्कर इसलिए मिलाते हैं कि पौष्टिक तथा सुमधुर भोजन होना आवश्यक है अन्यथा खुश्की आयेगी। दर्भ के साथ चिपका कर इसलिए दिया जाता है कि पितर (वानप्रस्थ) लोग घृत मिश्रित खीर शक्कर खाकर कहीं आलसी प्रमादी एवं विलासी न बन जायें। तपस्वी तो उन्हें होना ही चाहिए। कुशा तप का प्रतीक है तथा वानप्रस्थी जीवन का मेरूदण्ड है। इसके बिना वह विलासमय जीवन है, वानप्रस्थ नहीं। बाईं ओर यज्ञोपवीत इसलिए करते हैं कि सीने में बाईं ओर हृदय है और प्रेम की वस्तु है इस क्रिया के द्वारा यह व्यक्त किया है कि गृहस्थ लोग कहते हैं कि पितरो ! हम सब आपके हृदय से आभारी हैं। हमारे मस्तिष्क में ही नहीं किन्तु हृदय में आप लोगों के लिए पर्याप्त स्थान है। आपका यह स्वागत दिखावा मात्र नहीं है, किन्तु हम तो इसे हृदय से कर रहे हैं। गोल पिण्ड इसलिए बनाया जाता है कि जब पितर (वानप्रस्थ) लोग गुरुकुल में जा रहे हैं तो उनके लिए भोजन व्यय बार-बार न भेजना पड़े इसलिए पिण्ड (संघात) इकट्ठा ही दिया जाता है ताकि उनको मानसिक चिंता और अशांति न हो। गोल बनाने का कारण यह है कि कितना उनको दिया इसकी घोषणा करने की आवश्यकता नहीं। गोल मटोल भाषा में ही उनको दे देना चाहिए, विज्ञापन की आवश्यकता नहीं।
इन सब क्रियाओं के पश्चात् एक क्रिया की जाती है। जिसे नीवी शिथिल करने की क्रिया कहते हैं। प्रायः लोग धोती के परिकर (फेरा मुर्री) में रुपये रखते हैं। उसको उनकी विदाई के समय ढीली करने का तात्पर्य है कि हे पितरो ! हमारा सम्पूर्ण कोष आपकी सेवा के लिए है, जब भी आपको धन की आवश्यकता पड़ेगी हमने जो इस समय आपको दिया है उतना ही नहीं, किन्तु हमारा सर्वस्व आपके चरणों में होगा। आपको कोई चिंता करने की आवश्यकता नहीं।
इस प्रकार यह पिण्डदान और पितृ-विसर्जन की क्रिया वैदिक संस्कृति के उस समुज्ज्वल स्वरूप की ओर संकेत करती है जिसके अनुसार आचरण करने से गृह-कलह, शिक्षक, परिवार की वृद्धि आदि की समस्या का स्वतः ही समाधान हो जाता है। देव दयानन्द उसी संस्कृति के विशुद्ध रूप को पुनः भारत में ही नहीं किन्तु विश्व में लाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने संस्कार विधि की रचना की, किन्तु दुर्भाग्य से संगठन का बल साथ न होने के कारण वह पुस्तक में ही पड़ी रह गयी। प्रभु की दया हो कि हम पिण्डदान और पितृ-विसर्जन के रहस्य को समझकर उसे कार्य रूप में बदल सकें। (शांतिधर्मी में प्रकाशित)
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