श्री कृष्ण एक कर्म योगी थे जो एक वैदिक विद्वान थे

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कृष्ण जन्माष्टमी की शुभकामनाएं।

श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष आलेख की दूसरी किस्त गतांक से आगे।

श्री कृष्ण एक कर्म योगी थे जो एक वैदिक विद्वान थे।
चारों वेदों में लगभग 16000 ऋचाएं हैं।
श्रीकृष्ण वेद की 16000 ऋचाओं के ज्ञाता थे।
जिन्हें वास्तविक जानकारी नहीं होती है वे लोग अल्पज्ञता के कारण,व अविद्या के कारण इन्हीं 16000 ऋचाओं में श्री कृष्ण जी के रमण करते रहने को उनकी गोपिकाएं कहते हैं । जो श्री कृष्ण जी के चरित्र हनन की सबसे अनुचित,अनर्गल,अवतार्किक एवं गलत बात है।
कुब्जा दासी के प्रति आसक्ति श्री कृष्ण जी के विषय में निंदनीय अपराध है।हमें अपने महापुरुष की, युगपुरुष की, महामानव की, महाज्ञानी की, महाकर्मयोगी की, धर्म की पुनर्स्थापना करने वाले एकमात्र नीतिशास्त्र के ज्ञाता की क्षमता को कमतर प्रस्तुत करने का अधिकार नहीं है।

कृष्ण जी एक पुरुष थे। उनके अंदर ज्ञान -वैशिष्ट्य था। 16 कलाओं के ज्ञाता होने के कारण लोग उनको भगवान कहने लगे।
मैं विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगा कि कृष्ण जी की मात्र एक ही पत्नी थी रुकमणी। उन्हीं को सत्यभामा भी कहा जाता है।
शादी के पश्चात रुक्मणी और उनके पति कृष्ण ने 12 वर्ष तक ब्रह्मचर्य व्रत के लिए घोर तपस्या करके एक पुत्र पैदा किया, जिसका नाम प्रदुम्न था ,जो कृष्ण जी के अनुसार ही शरीर सौष्ठव एवं शरीर बनावट से पूर्णतया श्री कृष्ण जी के अनुसार ही
मिलता जुलता था। वही शरीर, वही कद काठी थी। कभी-कभी पीछे से माता रुक्मणी को भी संदेह हो जाया करता था कि कृष्ण जी हैं अथवा प्रदुम्न बेटा है। सुदर्शन चक्र उनके पास एक वैज्ञानिक यंत्र था। जिसकाअनुप्रयोग उन्होंने धर्म की स्थापना करने के लिए विशेष प्रतिकूल परिस्थितियों में ही किया। कभी अपने सुदर्शन चक्र का एवं शक्ति का दुरुपयोग श्री कृष्ण जी ने नहीं किया। जहां किया वहां धर्म की स्थापना के लिए प्रयोग किया गया।
कृष्ण जी नीति निपुण थे।
श्री कृष्ण ने महाभारत युद्ध में अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया था जो केवल 45 मिनट का था जिसमें कुछ श्लोक बोले गए थे। आज गीता पुस्तक के नाम पर एक गधा का बोझ प्रक्षेपित करते-करते बना दिया गया है। वह सब हम लोगों ने ही किया है।
ईश्वर सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान होता है। ईश्वर सर्वत्र व्याप्त होता है। ईश्वर सृष्टि का निर्माता होता है। ईश्वर एक देसी अथवा एक देह में नहीं आता। ईश्वर सर्वत्र व्याप्त होने के कारण भी सर्वांतर्यामी एवं सर्वव्यापक कहा जाता है।
ईश्वर सृष्टि का पालन करता है और ईश्वर ही संहार करता है। आत्मा जो किसी शरीर में आती है वह एक देसी होती है तथा अल्पज्ञ होती है। परिमित होती है।आत्मा सृष्टि का निर्माण नहीं करती ना सृष्टि का पालन करती और ना ही सृष्टि का संहार करती। यह सभी गुण ईश्वर के अंदर हैं। इन गुणों को जब श्रीकृष्ण जी के अंदर मान कर उनको ईश्वर मान लेते हैं और वास्तविक ईश्वर की उपेक्षा कर देते हैं तो वहां से हमारी बुद्धि पर अयोध्या का पर्दा पड़ना प्रारंभ हो जाता है। और अविद्या ही सभी दोषों का कारण होती है।
हम कहना यह चाहते हैं कि कृष्ण जी ईश्वर के अवतार नहीं थे।
कृष्ण जी को अवतार के रूप में स्थापित करने में पुराणों की महत्वपूर्ण भूमिका है । परंतु आर्य समाज के लोग सद्विद्या के कारण वास्तविक तथ्यों को तथा सत्य को सभी जानते और समझते हैं कि पुराण में जो इतिहास लिखा है उसमें कुछ सत्यता महर्षि दयानंद ने बताई है लेकिन वह सभी झूठ से अधिक सम्मिश्रण है। इसलिए पुराणों की सभी बात विश्वसनीय नहीं है। इसलिए आर्य समाज के गले नहीं उतरती है। आर्य समाज के लोग तार्किक बात करते हैं जो विद्या से परिपूरित होते हैं। पुराणों में इस प्रकार की बातें लिख दी है जो सृष्टि नियम के विपरीत हैं जो कभी संभव नहीं हो सकती।

उदाहरण के लिए पुराणों में निम्न विवरण आता है ।

महर्षि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश के एकादश समुल्लास में पूर्वपक्षी के निम्न प्रश्नों उत्तर दिया है।
पूर्व पक्षी ने शंका प्रस्तुत की कि
“18 पुराणों के कर्ता व्यास जी है। व्यास वचन का प्रमाण अवश्य करना चाहिए। इतिहास, महाभारत 18 पुराणों से वेदों का अर्थ पढ़ें, पढावें, क्योंकि इतिहास और पुराण वेदो ही के अर्थ अनुकूल है। पित्र -कर्म में पुराण और खिल अर्थात हरिवंश की कथा सुनें ।इतिहास और पुराण पंचम वेद कहते हैं ।अश्वमेध की समाप्ति में 9वें दिन थोड़ी सी पुराण की कथा सुनें। पुराण विद्या वेदार्थ के जानने ही से वेद हैं। इत्यादि प्रमाणों से पुराणों का प्रमाण और उनके प्रमाण से मूर्ति पूजा और तीर्थों का भी प्रमाण है क्योंकि पुराणों में मूर्ति पूजा और तीर्थों का विधान है ।”
इसका उत्तर देते हुए महर्षि दयानंद ने कहा कि
“क्योंकि जो 18 पुराण के कर्ता व्यास जी होते तो उनमें इतने गपोड़े नहीं होते। शारीरकसूत्र, योग शास्त्र के भाष्य व्यासोक्त ग्रंथों के देखने से विदित होता है कि व्यास जी बड़े विद्वान, सत्यवादी, धार्मिक योगी थे ।वह ऐसे मिथ्या कथा कभी न लिखते। और इससे यह सिद्ध होता है कि जिन संप्रदाय ,परस्पर विरोधी लोगों ने भागवत आदि नवीन कपोल -कल्पित ग्रंथ बनाए हैं उनमें व्यास जी के गुणों का लेश मात्र भी नहीं था, तथा वेद शास्त्र विरुद्ध असत्य बात लिखना व्यास सदृश विद्वानों का काम नहीं किंतु यह काम विरोधी ,स्वार्थी विद्वान लोगों का है ।
कृष्ण जी के नाम पर भागवत पुराण जिन्होंने रची है वह भी स्वार्थी और लालची लोग हैं।
क्योंकि भागवत पुराण मध्य युग में उस समय लिखी गई है जब भारतवर्ष पर विदेशीआक्रमणकारियों का शासन था। तब कुछ स्वार्थी और लोभी लोगों ने अपनी कलम को और अपनी आत्मा को चंद् सिक्कों के लिए बेचकर ,अपनी कलम को तवायफ बनाते हुए कृष्ण जी पर विभिन्न प्रकार के लांछन लगाकर प्रस्तुत किया। जिससे विधर्मी अपने मोहम्मद रसूल की काम पिपासा एवं लंपटता को छिपा सकें और हमारे महापुरूषों पर भी आक्षेप लगा सकें। इसलिए हम वास्तविकता से दूर होते चले गए और कृष्ण जी के संबंध में अनर्गल प्रलाप करने लगे।
भागवत पुराण का एक उदाहरण लें जिसमें लिखा है कि विष्णु की नाभि से कमल ,कमल से ब्रह्मा, और ब्रह्मा के दाहिने पैर के अंगूठे से स्वायंभुव,और बाएं अंगूठे से शतरूपा रानी, ललाट से रुद्र और मरीचि आदि 10 पुत्र ,उनसे 10 प्रजापति, उनकी 13 लड़कियों का विवाह कश्यप से, उनमें से दिती से दनु,दनु से दानव ,अदिति से आदित्य, विनता से पक्षी, कद्रु से सर्प, शर्मा से कुत्ते ,स्याल आदि और अन्य स्त्रियों से हाथी ,घोड़े, ऊंट ,गधा, भैसा ,घास, फूस और बबूल आदि वृक्ष कांटे सहित उत्पन्न हो गए।
वाह रे वाह! बुद्धि , विद्या एवं तर्क के दुश्मन भागवत के बनाने वाले क्या कहना आपका?
तुमको ऐसी ऐसी मिथ्या बातें लिखने में तनिक भी लज्जा और शर्म नहीं आई ,निपट अंधे ही बन गये ।
सर्व विदित है कि स्त्री और पुरुष के वीर्य के संयोग से मनुष्य बनते हैं। परंतु परमेश्वर के सृष्टिकृम के विरुद्ध पशु ,पक्षी, सर्प आदि कभी भी स्त्री के गर्भ से उत्पन्न नहीं हो सकते , तथा हाथी ,ऊंट, सिंह ,कुत्ता ,गधा, वृक्ष आदि का स्त्री के गर्भाशय में स्थित होने का अवकाश (अर्थात स्थान)भी कहां हो सकता है। सिंह आदि उत्पन्न होकर अपने मां-बाप को क्यों नहीं खा गए ? क्या मनुष्य शरीर से पशु ,पक्षी ,वृक्ष आदि का उत्पन्न होना संभव हो सकता है? शोक है उन लोगों की इस महा असंभव लीला पर जिसने संसार को अभी तक भ्रम में रखा । इसी कारण हमारा देश विश्व गुरु से पतन होते-होते गर्त में चला गया। और हम गुलाम हो गए। यदि इन पुराणों के रचने वाले गर्भ में ही मर गए होते तो इन पापों से बचते और आर्यवर्त देश दुखों से बच जाता।
भला हो इस देश का जो महर्षि दयानंद उस सही समय पर आए और वेद की विद्या का दर्शन कराया। तथा देश को जगाया।

जबकि श्री कृष्ण जी महाराज तो सत्यवादी, धार्मिक, विद्वान और योगी थे।
राधा नामक कोई स्त्री नहीं थी जिसके प्रेम पाश में कृष्ण जी बंधे हों। एक राधा का उल्लेख आता है जो कृष्ण जी की मामी होती थी। मामी के साथ कृष्ण जी का प्रेम हो नहीं सकता मामी माता के समान है। यह एक काल्पनिक चरित्र है जो कृष्ण जी के चरित्र का हनन करने के लिए बनाया गया है। मध्ययुगीन भारत में चाहे सूरदास हो अथवा अन्य कई कवि रहे हों उन्होंने राधा के काल्पनिक चरित्र को लेकर कृष्ण जी की अनेक प्रेम लीलाएं ,जो वासना से भरी होती हैं, का प्रदर्शन किया है। हम कितने दुर्बुद्धि लोग हैं जो अपने महापुरुष को स्वयं लांछित करते हैं। मैंने मथुरा के आचार्य वागीश जी को शास्त्रार्थ करने की चुनौती दी थी कि आप राधा नामक चरित्र को स्थापित कर दें, उन्होंने मेरी चुनौती को स्वीकार नहीं किया। जबकि वह राधा के ही भक्त हैं और राधा की ही कथा करते हैं। कृष्ण जी से ऐसी आशा की जा सकती है कि वह दूसरों की पत्नियों, बेटियां और माता के साथ लंपटता करते घूमते हों। उनके कपड़े चुराते हों, उनको नंगी करते हो, देखते हों। जिनके घर में मक्खन की कोई कमी नहीं थी,क्या वो मक्खन चुराएंगे। शर्म करो और यह गाना गाना बंद करो कि
“नैनन में श्याम समा गया ।
मोह प्रेम को रोग लगा गया।”

कृष्ण जी ने धर्म की स्थापना करने के लिए दुष्टों का संहार करने में कोई संकोच नहीं किया। दुष्ट का दलन और दमन करके सत्पुरुषों का सहयोग किया।
श्री कृष्ण जी ने अपने सगे मामा कंस को मरवाया। श्री कृष्ण जी ने अपनी बुआ श्रुतश्रवा (जो कि मगध के राजा दमघोष को ब्याही थी) उनके पुत्र अर्थात अपनी बुआ के पुत्र शिशुपाल का वध किया। श्री कृष्ण जी ने ‌ अपने मामा कंस के श्वसुर जरासंध का वध किया। श्री कृष्ण जी ने दुर्योधन का वध कराया। अपने सगे चाचा को मारा।
श्री कृष्ण जी ने यह सब अत्याचारी और दुराचारी लोगों का वध किया अथवा कराया ,वह धर्म की स्थापना के लिए कराया।
हम श्रीकृष्ण जी का कर्म योगी के रूप में सम्मान करते हैं परंतु ईश्वर का अवतार नहीं मानते। क्योंकि आत्मा और परमात्मा में बहुत ही अंतर होता है।
आत्मा परमात्मा नहीं हो सकती और परमात्मा आत्मा नहीं हो सकता क्योंकि ईश्वर जीव और प्रकृति तीनों अनादि ,नित्य है।
कृष्ण जी की आत्मा जो उस शरीर में आई थी अब उसमें नहीं है । इस प्रकार वह शरीर उनका नष्ट हो चुका, देहांतर हो चुका है, शरीरान्तर हो चुका है। इसलिए वह नित्य नहीं कहे जा सकते।
उनकी ईश्वर से तुलना करना विपर्यय अर्थात मिथ्या ज्ञान है। यही अविद्या है।
हमें अविद्या को छोड़कर विद्या को ग्रहण करना चाहिए।
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट ग्रेटर नोएडा,
चलभाष
9811 838317
7827 681439

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