पुण्य श्लोका महारानी अहिल्याबाई होल्कर*

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(शिवप्रकाश-विभूति फीचर्स)
पुण्यश्लोका महारानी अहिल्याबाई होल्कर, का जीवन सादगीपूर्ण एवं शासन शैली संवेदनशील, सहज, धर्मनिष्ठ, न्यायप्रिय एवं लोक कल्याणकारी थीं। इन्हीं गुणों के कारण उनकी प्रजा उन्हें सदैव लोकमाता के रूप में देखती थी। उनके अप्रतिम गुणों को देखकर ब्रिटिश इतिहासकार जॉन केयस ने उन्हें “दार्शनिक रानी” ( The Philosopher Queen) की उपाधि दी ।
अहिल्याबाई पिता मंकोजीराव शिंदे एवं माता सुशीलाबाई के परिवार में 31 मई 1725 को जन्मी थीं। उनका जन्मस्थान चौंडी (अहमदनगर, महाराष्ट्र) था, जो अब अहिल्यानगर के नाम से ही परिवर्तित हो गया है। धनगर जाति में जन्म लेने के बाद भी उनकी प्रतिभा को पहचानकर पेशवा बाजीराव एवं मल्हारराव होल्कर दोनों के परस्पर परामर्श के उपरान्त अहिल्याबाई का विवाह मल्हारराव ने अपने पुत्र खंडेराव के साथ संपन्न कराया । युद्ध में वीरगति प्राप्त होने के कारण उनको पति वियोग सहना पड़ा । अपने जीवन काल में उन्होंने श्वसुर मल्हार राव होल्कर, नवासे ( पुत्री के पुत्र) एवं पुत्री सभी की असमय मृत्यु को देखा। इसी असहय वेदना को सहते- सहते वे स्वयं भी 70 वर्ष की उम्र में 1795 में संसार छोड़कर चली गई।
पति की मृत्यु के पश्चात अपने श्वसुर के आग्रह पर उन्होंने राजकाज सम्हालना प्रारंभ किया। उनका शासन प्रजावत्सल, न्यायप्रिय, सुशासन का प्रतीक था। धर्म के प्रति भक्ति के कारण उन्होंने अपनी राजधानी इंदौर से परिवर्तित कर पवित्र नदी नर्मदा के किनारे महेश्वर में स्थानांतरित की । उनका महेश्वर में राजधानी स्थानान्तरित करने का उद्देश्य था कि राज्य संचालन के साथ-साथ वह माँ नर्मदा की सेवा एवं आराधना कर सकें । माँ नर्मदा के किनारे उनका महल एक सर्वस्व त्यागी सन्यासिनी का महल था । जिसमें उन्होंने अपनी आयु के 28 वर्ष व्यतीत किए थे।
देश की सरकारें वर्तमान समय में अपनी आर्थिक नीतियों के केंद्र में समाज के जिस पिछड़े वर्ग के उत्थान एवं लघु उद्योग केंद्रित नीतियों का विचार करती हैं, आज से लगभग 300 वर्ष पूर्व महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने इस दूरदृष्टि का परिचय देते हुए 1745 में एक राजज्ञा द्वारा बुनकर, सुतार, कारीगरों से महेश्वर में निवास करने का आग्रह किया । आर्थिक विकास की दिशा में उनके द्वारा की गई अनेक पहल में से एक महेश्वर में निर्मित साड़ी आज भी संपूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है , जिसे महेश्वरी साड़ी के नाम से जाना जाता है । इस उद्योग को प्रोत्साहित करने के लिए वह स्वयं भी वहाँ निर्मित वस्त्र पहनती थी एवं देश- विदेश से आने वाले महानुभावों को भेंट स्वरूप इन्हीं वस्त्रों को प्रदान भी करती थीं । प्राकृतिक आपदा में किसानों का सहयोग, सेना के आवागमन से होने वाली फसलों की क्षतिपूर्ति की व्यवस्था भी उन्होंने की थी । आत्मनिर्भरता के साथ-साथ शिक्षा का केंद्र महेश्वर बने इसके लिए विद्वानों, धर्माचार्यों को बुलाकर संस्कृत पाठशाला प्रारंभ करने का कार्य भी उनके द्वारा हुआ।
मल्हारराव के युद्ध अभियानों पर जाने के उपरांत महारानी अहिल्याबाई राज्य का संचालन भी कुशलता के साथ करती थीं। पत्राचार के माध्यम से मल्हार राव को अपने राज्य के समाचार भेजना एवं प्रत्युत्तर में राज्य संचालन के लिए सुझाव लेना यह उनकी नियमित प्रक्रिया थी । सेवा एवं रसद सामग्री का प्रबंध, कर वसूली आदि की व्यवस्था बड़ी निपुणता के साथ उन्होंने की थी ।
महारानी स्त्री होने के बाद भी न केवल राज्य संचालन में निपुण बल्कि एक कुशल योद्धा भी थीं। बचपन में ही सैन्य शिक्षा, घुड़सवारी, शस्त्र संचालन उन्होंने सीखा था । राघोवा के आक्रमण के समय अपने राज्य की रक्षा के लिए कूटनीति का परिचय देते हुए उन्होंने पुराने संबंधों के आधार पर सिंधिया, भोंसले, गायकवाड आदि का सहयोग माँगा । राघोवा को उचित दंड देने के लिए 500 महिलाओं की सैन्य टुकड़ी को प्रशिक्षित भी किया । राघोवा को उनके द्वारा लिखा पत्र आज भी उनकी कूटनीतिक दूरदर्शिता को प्रकट करता है, जिसमें उन्होंने लिखा कि “आप मुझे अबला समझकर राज्य हड़पने के लिए यहां आए हैं लेकिन मेरी शक्ति आपको युद्ध क्षेत्र में ज्ञात होगी । मैं महिला सेना के साथ आपका मुकाबला करूंगी।यदि मैं युद्ध में पराजित हो गई तब मेरी हंसी और आपकी प्रशंसा कोई नहीं करेगा और यदि आप युद्ध में हार गए तो आप कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे ।” केवल राघोवा ही नहीं अपने राज्य की सीमाओं पर राजस्थान की ओर से मिलने वाली चुनौती का भी उन्होंने साहस के साथ सामना कर शत्रु को कुचलने का कार्य किया । सेना का संचालन, सैनिकों की चिकित्सा आदि भी उन्होंने कुशलता के साथ की । नाना फड़नवीस ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा था कि “अब तक देवी अहिल्याबाई की धार्मिकता की प्रशंसा तो हम सुनते आए हैं मगर हम नहीं जानते थे कि वह बहादुर भी हैं अपने शत्रुओं के दांत खट्टे कर सकती हैं।”
महारानी अहिल्याबाई का शासन कठोर एवं न्यायप्रिय शासन था । उन्होंने जाति-पांति, ऊँच – नीच के भेदभाव से ऊपर उठकर चोरों के भय से जनता को मुक्ति प्रदान करने वाले नौजवान से अपनी पुत्री का विवाह किया । गरीब एवं कमजोर लोगों की सेवा में वह हमेशा तत्पर रहती थी। पति की मृत्यु के पश्चात् पति की संपत्ति पर पूर्ण अधिकार की व्यवस्था एवं स्त्री को दत्तक लेने का अधिकार देना यह उनके महिला सशक्तिकरण के उदाहरण हैं । उनके राज्य में रहने वाले भीलों (जनजाति) को अपराध मुक्त करने के लिए कृषि के औजार उपलब्ध कराकर सशक्त करने का कार्य उन्होंने किया। अपराध करने पर कठोर दंड एवं समस्याओं का त्वरित समाधान यह उनके शासन की विशेषता थी । पक्षपात रहित सभी को समान न्याय उनके शासन में था । इसके लिए अपने सेनापति के पुत्र को भी अपराध करने पर उन्होंने जेल में डलवा दिया था। प्रजा को न्याय दिलाने के लिए न्यायालय एवं न्यायाधीशों की नियुक्ति उन्होंने की थी। अपने राज्य कर्मचारियों के प्रति संवेदनशील एवं आत्मीयतापूर्ण व्यवहार, युद्ध में वीरगति पाने वाले सैनिक परिवारों के कल्याण की व्यवस्था को राज्य कोष से करने का प्रबंध उन्होंने किया था। अपने प्रति कठोर जीवन जीते हुए, प्रजा का पुत्र की तरह पालन, लोक कल्याण की योजनाएं एवं न्यायप्रियता के कारण उनको लोकमाता की उपाधि मिली ।
राज्य संचालन में अनेक गुण होने के बाद भी उनका शासन मूलतः धर्म अधिष्ठित शासन था । जहां उनके व्यक्तिगत जीवन में सेवा, त्याग -तपस्या एवं दान का महत्व था वहीं उन्होंने मंदिरों के जीर्णोद्धार, उनकी स्थायी आर्थिक व्यवस्था, यात्रियों के लिए विश्राम स्थल एवं अन्न क्षेत्र स्थापित कराए। अपना राज्य भगवान शिव को समर्पित कर वह उनके प्रतिनिधि के रूप में शासन चलातीं थी। हिमालय में स्थित भगवान बद्रीनाथ, केदारनाथ , दक्षिण में रामेश्वरम, पश्चिम में द्वारिका से लेकर पूर्व में जगन्नाथ पुरी तक उनके द्वारा चलाए सेवा कार्य आज भी प्रसिद्ध है । तीर्थ स्थानों पर गंगाजल भिजवाने की व्यवस्था देश को एक सूत्र में बांधती दिखाई देती है । काशी विश्वनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार सहित देश के लगभग समस्त तीर्थक्षेत्रों के विकास, हरिद्वार के गंगा घाटों सहित देश भर की नदियों के किनारे सैकड़ो स्थानों पर उन्होंने पक्के घाटों का निर्माण कराकर तीर्थ यात्रियों के लिए उचित स्नान की व्यवस्था करायी। समस्त अगणित धार्मिक कार्य वह अपने भाग में प्राप्त संपत्ति के द्वारा कराती थी । वह दीन- दुखी, गरीबों के लिए समर्पित निष्ठावान कर्मयोगी थी।
दक्षिण के प्रसिद्ध इतिहासकार रायबहादुर चिंतामणि विनायक वैद्य ने महारानी के संदर्भ में लिखा है कि वह लोकोत्तर स्त्री अपने अनेक गुणों के कारण महाराष्ट्र के लिए ही नहीं वरन् समूची मानवजाति के लिए भूषण रूप हुई है । इंदौर में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी अपने उद्बोधन में कहा था कि “मैं देवी अहिल्याबाई को भी नमन करता हूं उनका पुण्य स्मरण करता हूं। देवी अहिल्याबाई ने शासन संचालन में छोटी-छोटी आवश्यकताओं को प्राथमिकता दी, उनके जीवन का एक-एक अध्याय इतना प्रेरक होता है कि आने वाली पीढ़ियों को उनसे सीख मिलती रहेगी । लोकमाता महारानी अहिल्याबाई के जीवन से प्रेरणा लेकर उनकी 300 वीं जयंती के अवसर पर हम उनके दिखाये मार्ग का अनुसरण करते हुए एकात्म, समृद्ध, समरस एवं शक्तिशाली भारत का निर्माण करें तथा अपनी सांस्कृतिक विरासत पर गर्व करते हुए विश्व कल्याण करने का संकल्प लें । महारानी अहिल्याबाई होल्कर को उनकी 300वीं जन्म-जयंती पर यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी। लेखक भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय सह संगठन महामंत्री हैं।(विभूति फीचर्स)

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