*कितनी प्रभावी परिणामदायक दायक होती हैं, पेरेंट्स टीचर मीटिंग*?।

लेखक आर्य सागर खारी

यह दृश्य है ग्रेटर नोएडा के एक नामी प्राइवेट स्कूल का,अवसर है पेरेंट्स टीचर मीटिंग का।

पेरेंट्स टीचर मीटिंग या पीटीएम प्रत्येक तिमाही या मासिक स्तर पर या हर 2 महीने में आयोजित की जाती है स्कूलों में।

आज मैंने अलग-अलग आयु वर्ग के बच्चों की पीटीएम इंटरेक्शन को नजदीक से देखा सुना जाना। सभी मां-बाप महत्वाकांक्षी होते हैं क्योंकि बगैर कामना के तो पलक भी नहीं झपकाया जाता। प्रत्येक अभिभावक अच्छे से अच्छे नामी स्कूल में अपने बच्चों को पढ़ाते हैं या पढाना चाहते हैं सभी की यही कामना होती है उनका बच्चा एकेडमिक जीवन में शीर्ष पर पहुंचे लेकिन चाहने मात्र से कुछ नहीं होता। मां-बाप द्वारा बच्चे के निर्माण को लेकर अपनी जिम्मेदारी शिक्षक शिक्षिकाओं पर हस्तांतरित या थोपने की मनोवृति अब तेजी से स्थान ले रही है। वह यह सोचते हैं स्कूल टीचर के पास जादू की छड़ी है जिसके छूने मात्र ही से उनका बच्चा महा मानव बन जाएगा।

भारतीय संस्कृति में माता-पिता आचार्य तीनों को ही शिक्षक माना गया है तीनों ही मिलकर बच्चों का निर्माण करते हैं।

प्राइवेट स्कूल के शिक्षक शिक्षिकाएं अपना दायित्व का ईमानदारी से निर्वहन कर रहे हैं प्रचलित वर्तमान शिक्षा परिपाटी के अनुसार। क्लासरूम सब्जेक्ट के साथ-साथ वे एथिकल वैल्यूज नैतिक शिक्षा मानवीय मूल्यों का भी संचरण बच्चों में करने का प्रयास करते हैं या करती हैं।

शिक्षक या शिक्षिका के अपने निजी जीवन की भी समस्या होती है वह भी गृहस्थी होते हैं उनके भी बच्चे होते हैं इसके बावजूद वह कक्षा में औसत 30 बच्चों को बहुत धैर्य के साथ संभालते हैं ।एक शिक्षिका को 40 से 50 मिनट मिलता है 30 बच्चों को अपना विषय पढ़ने के लिए अपने निर्धारित पीरियड में। उसमें भी चंचल प्रवृत्ति के शैतान बच्चे हर कक्षा में होते हैं उनको समझाने शांत करने में 10 से 15 मिनट जो प्रोडक्टिव होते हैं वह नष्ट हो जाते हैं अन्य बच्चों का भी नुकसान होता है यह आधुनिक शिक्षा व्यवस्था का सबसे बड़ा दोष है । प्राचीन शिक्षा व्यवस्था की झलकियां हमें आपस्तम्ब आदि धर्म सूत्रों में मिलती है उस व्यवस्था में ऐसे बच्चों का शिक्षा आरंभ संस्कार तत्काल ने करके आचार्य कुल में प्रवेश के एक से डेढ़ वर्ष के पश्चात किया जाता था जब तक वह सभी मानदंडों पर खरा उतर नहीं जाता था उसे ऑब्जर्वेशन में रखा जाता था । यहां शिक्षा देने से पहले पहले शिक्षा के पात्र छात्र-छात्रा को बनाया जाता था।

आज की पेरेंट्स टीचर मीटिंग में देखा कुछ बच्चे मां-बाप के साथ तो कुछ केवल अपनी माताजी या पिताजी के साथ आए ।

कुछ अभिभावकों ने आते ही बच्चे को लेकर रोना धोना शुरू कर दिया कि पहले तो ठीक था अब पता नहीं इसे क्या हो गया किसी बात को नहीं मानता जिद्दी हो गया है फोन टीवी आदि की स्क्रीन ज्यादा से ज्यादा शेयर करने लगा है तो कुछ ने खुले हृदय से अभिभावक के तौर पर अपनी असफलता को स्वीकार किया कुछ ने शिक्षिकाओं पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया लर्निंग मेथड को लेकर।

लेकिन टीचरों ने जब तथ्य तर्क साक्ष्य शालीनता के साथ ऐसे अभिभावक के समक्ष प्रतिवाद स्वरुप अपनी बात रखी तो अभिभावक बगले झांकने लगे । वह यह समझ गए समस्या स्कूल क्लासरूम में नहीं उनके घर में ही है।

कुछ बच्चों ने क्लास टीचर के व्हाट्सएप ग्रुप में मां-बाप का नंबर ना देकर कोई अन्य नंबर ऐंड करा दिया और मां-बाप की हैसियत से व्हाट्सएप ग्रुप को हैंडल कर रहे थे।

एक दो बच्चे ऐसे भी पाए गए जो नाइंथ ,टेंथ ग्रेड में थे क्लास में अश्लील वल्गर लैंग्वेज का इस्तेमाल करते हैं। एक बात यह निकली जो बच्चे ऐसे गालिबाज है डबल मीनिंग शब्दों का क्लास रूप में इस्तेमाल करते हैं उनमें मां-बाप दोनों ही वर्किंग है अर्थात मां भी जॉब करती है पिता भी जॉब करता हैं।हमारी संस्कृति में माता को निर्माता कहा गया है माता वह जो संतान का निर्माण करती है। ऐसे बच्चे जिनमें दोनों ही मां-बाप जॉब करते हैं प्राय ऐसे बच्चे आज उद्दंड हो रहे हैं यह अपवाद नहीं है नही है सामान्य नियम बन रहा है ।

प्राइवेट स्कूलों के शिक्षक शिक्षिकाएं ऐसे बच्चों की उदण्डता मजबूरी में ही सहन कर लेते हैं क्योंकि शिक्षा अब पूरी तरह व्यावसायिक है स्कूल में पढ़ने वाला विद्यार्थी विद्यार्थी न होकर स्कूल के प्रबंधन की आय में बढ़ोतरी का जरिया है।

शिक्षक में आज भी राष्ट्र का ,अच्छे नागरिकों का निर्माण करने की योग्यता है लेकिन शिक्षा के व्यवसायीकरण पूंजीवादी शक्तियों ने उसको बेबस परामुक्खापेक्षी कर दिया है।

शिक्षा के अधिकार कानून में जो बालक बालिकाओं को शारीरिक दंड देने को प्रतिबंधित किया गया है कहीं ना कहीं यह उपबंध विद्यार्थियों को उद्दंड बना रहा है।

बगैर दंड के कोई नही सुधरता आज जो देश विकसित है अनुशासित हैं चाहे उनकी ट्रैफिक व्यवस्था हो अनुशासन हो साफ सफाई व्यवस्था हो वहां दंड व्यवस्था कठोर है दंड ही सभी पर शासन करता है राजा भी दंड के ही अधीन होता है तो प्रजा की तो बात ही छोड़िए प्राचीन वैदिक शासन व्यवस्था दंड को ही राजा माना गया है। आचार्य बालक बालिकाओं को दंड कैसे दे तो उसका भी विधान प्राचीन शिक्षा सूत्रों में मिलता है आचार्य अंदर से कृपा दृष्टि रखे सुधार की दृष्टि से उन्हें कोमल दंड दे जिससे उनके मर्म आहत न हो ना ही उनके अंगविघात हो स्वत: ही नियमों के पालन की भावना उसमें आ जाए।

लेखक आर्य सागर खारी।

Comment: