डॉक्टर के.एम. पणिक्कर की मान्यता : गुर्जर वंश के शिलालेख

डॉक्टर के.एम. पणिक्कर की मान्यता

डॉक्टर के.एम. पणिक्कर ने अपने ‘भारत का इतिहास’ में अरब आक्रमणकारियों के विरुद्ध गुर्जर प्रतिहारों के संघर्ष का उल्लेख करते हुए लिखा है कि गुर्जर प्रतिहारों ने अरब आक्रमणकारियों के समय देश का नेतृत्व संभालकर अरब आक्रमणकारियों से उसके धर्म व संस्कृति की रक्षा का जो कार्य किया उसके लिए भी राष्ट्र की ओर से वे धन्यवाद के पात्र हैं।’
यदि गुर्जर प्रतिहार वंश के शासक उस समय अपने इस राष्ट्रधर्म का निर्वहन नहीं करते तो यह निश्चित रूप से जाना जा सकता है कि आज का भारत हमें कहीं मानचित्र में दिखाई नहीं देता । इसके कितने टुकड़े होते और इसका क्या नाम होता ? – इसकी अब कल्पना भी नहीं की जा सकती । क्योंकि इस्लाम अपनी जिस सोच के आधार पर बढ़ता रहा है उसका अन्तिम परिणाम देशों का विभाजन कर वहाँ पर अपनी शरीयत को लागू करना ही रहा है । आज विश्व भर में जितने भी इस्लामिक देश हैं उन सबके मूल में वहाँ की हँसती खेलती सभ्यता को उजाड़ने का खूनी खेल दिखाई देता है । इस खूनी खेल को भारत में हम केवल गुर्जर प्रतिहार वंश की गौरवपूर्ण उपस्थिति के कारण ही रोकने में सफल हुए थे।

डॉक्टर सत्यकेतु विद्यालंकार का मत

डॉक्टर सत्यकेतु विद्यालंकार ने अपनी पुस्तक ‘भारतवर्ष का इतिहास’ में अरब आक्रमणकारियों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि ‘अरबों के प्रसार को रोकने के लिए गुर्जर सेनाओं की अजेय दीवार खड़ी
थी।’
इस पर हम आगे स्थाई स्थान प्रकाश डालेंगे कि किस प्रकार गुर्जर प्रतिहार वंश के महान प्रतापी शासक गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के पास 36 लाख की सेना थी । जिसका इस्लामिक जगत में बहुत भारी आतंक था । सम्राट मिहिर भोज और उसकी सेना से घबराकर अरब के बड़े-बड़े लुटेरे और डाकू स्वभाव के नेता भारत की ओर कदम रखने से भी घबराते थे।

डॉ रतीभान सिंह नागर का मत

डॉ रतीभान सिंह नागर ने गुर्जर जाति को राजपूतों की उच्च शाखा तथा प्रतिहार व चालूक्य आदि वंशों को उसके उप शाखाएं माना है । उन्होंने ‘हिंदू रतन’ नामक अपनी पुस्तक में लिखा है कि ‘गुर्जरों ने और अरब आक्रमणकारियों के प्रसार को रोककर वस्तुतः देश के प्रतिहारी अर्थात द्वार रक्षक का कार्य किया था।’

गुर्जर वंश का गौरवशाली इतिहास :

राणा अली हसन चौहान क्या कहते हैं ?

शुक्राचार्य नाम का एक आचार्य था उसकी शिक्षाएं अपवित्र घोषित हो गई थीं। उसके शिष्य असुर कहलाते थे और उसे असुर गुरू कहते थे। वह महान ऋषि भृगु का पुत्र था। उसकी पुत्री प्रसिद्ध राजा ययाति से ब्याही गई थी। उसी का पुत्र यदु था जिसकी संतानें आज तक हैं और यादव कहलाती हैं। इसी वंश में श्रीकृष्ण पैदा हुए। एक त्रास दस्यु था जो ऋषि सोमार का ससुर था।
रामायण काल में श्री रामचंद्र, लक्ष्मण प्रतिहार, भरत व शत्रुघ्न रघु के वंशज दशरथ के पुत्र थे यह सब आर्य थे।
संस्कृत तथा यूरोपीय भाषाओं के सामान्य स्रोत या उद्गम की खोज की दौड़ १७८४ ईस्वी में शुरू हुई। आर्यावर्त को आर्यों की मूल मातृभूमि तथा संस्कृत को उनकी भाषा सिद्ध करने के लिए बहुत पुराना तथा विशाल संस्कृत साहित्य है। परन्तु योरोप के लोगों ने भाषा शास्त्र, ऐतिहासिक तथ्यों तथा वास्तविकताओं को बहुत तोड़ा मरोड़ा है। आर्यों को इस उपमहाद्वीप से बाहर का साबित करने के लिए विभिन्न मत प्रतिपादित किए गए परन्तु उनके द्वारा इस विषय में दिए गए तर्क आर्यावर्त को आर्यों का मूलस्थान सिद्ध करने में ही प्रयुक्त हो सकते हैं।
– महाभारत में प्राग्ज्योतिष पुर आसाम, किंपुरुष नेपाल, हरिवर्ष तिब्बत, कश्मीर, अभिसार राजौरी, दार्द, हूण हुंजा, अम्बिस्ट आम्ब, पख्तू, कैकेय, गन्धार, कम्बोज, वाल्हीक बलख, शिवि शिवस्थान-सीस्टान-सारा बलूच क्षेत्र, सिंध, सौवीर सौराष्ट्र समेत सिंध का निचला क्षेत्र दण्डक महाराष्ट्र सुरभिपट्टन मैसूर, चोल, आन्ध्र, कलिंग तथा सिंहल सहित लगभग दो सौ जनपद महाभारत में वर्णित हैं जो कि पूर्णतया आर्य थे या आर्य संस्कृति व भाषा से प्रभावित थे। इनमें से आभीर अहीर, तंवर, कंबोज, यवन, शिना, काक, पणि, चुलूक चालुक्य, सरोस्ट सरोटे, कक्कड़, खोखर, चिन्धा चिन्धड़, समेरा, कोकन, जांगल, शक, पुण्ड्र, ओड्र, मालव, क्षुद्रक, योधेय जोहिया, शूर, तक्षक व लोहड़ आदि आर्य खापें विशेष उल्लेखनीय हैं।

। गुर्जर प्रतिहार का एक जमाने में पूरे देश में एकक्षत्र राज्य था। इस जाति के एक प्रतापी नरेश राजा मिहिरभोज ने ईस्वी सन् 836 से 888 तक कन्नौज में राज किया था। उनके राज्य की सीमाएं पश्चिम में गांधार और काबुल से लेकर पूरब में बर्मा तक फैली थीं। अलीहसन साहब लिखते हैं कि पृथ्वीराज चौहान जैसे वीर गुजर शासकों के पतन के बाद राजपूताने में जो शासक बैठे वे गुर्जर नरेशों की ही संतानें थीं लेकिन उन्होंने चूंकि मुगल व उनके पहले आए तुर्कों न गुर्जरों को उपेक्षित कर रखा था इसलिए उन्होंने खुद को राजपूत कहना शुरू किया यानी राजाओं के पुत्र। बाद में 19वीं सदी में जब अंग्रेजों ने वीरगुर्जरों के विद्रोहों से आजिज आकर उन्हें जरायमपेशा घोषित कर दिया तो राजपूतों ने उनसे अलग दिखने के लिए कर्नल टॉड जैसे मुंशी का सहारा लिया और उसे रिश्वत देकर अपना एक अलग इतिहास लिखाया जिसमें राजपूतों को एक अलग जाति करार दिया गया।

कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी जी क्या कहते हैं ?

कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी गुजरात प्रांत के एक ब्राह्मण लेखक हुए हैं । जो स्वयं स्वतंत्रता सेनानी भी रहे और भारतीय संस्कृति एवं इतिहास पर उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखीं । उन्होंने अपने जीवन में अनुभव किया कि गुर्जरों के बारे में इतिहासकार श्री ओझा , वैद्य और गांगुली की इस मान्यता को निराधार और अनुसार माना कि गुर्जर राजपूत थे। उन्होंने यह स्वीकार किया कि राजपूत जाति का मुस्लिम शासन काल से पूर्व कोई अस्तित्व नहीं मिलता । मुस्लिम काल के पूर्व राजपूत जाति का अस्तित्व ना मिलने के कारण उनको ब्रिटिश इतिहासकारों और उनका अनुसरण करने वाले कुछ भारतीय इतिहासकारों ने गलत ढंग से विदेशी लिखा । उन्हें इतिहासकारों की यह मान्यता भी पूर्णतया निराधार ही प्रतीत हुई कि गुर्जरों आदि विदेशियों को आबू के हवन यज्ञ द्वारा शुद्ध करके राजपूत बनाया गया था तथा उसी समय अर्थात आठवीं शताब्दी के प्रारंभ में राजपूत जाति बन गई थी। श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी का यह विचार था कि यदि गुर्जर विदेशी थे और उनके प्रतिहार , परमार , चालुक्य , चौहान आदि वंश शुद्ध करके राजपूत बना लिए गए थे तो उसके पश्चात भी वे वंश शिलालेखों आदि में स्वयं को गुर्जर क्यों लिखवाते रहे ? कहीं भी उन्होंने अपने आप को राजपूत क्यों नहीं लिखवाया ?।
गुर्जरों का विदेशी होना श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी की राष्ट्रीय भावनाओं के लिए एक प्रकार का कुठाराघात ही था । क्योंकि उसका ऐसा अर्थ निकालने से विदेशी शासकों के इस काल्पनिक मत की ही पुष्टि होती कि भारतीय सदा विदेशियों द्वारा ही शासित रहे हैं।
वर्तमान गुर्जरों के बारे में खोज करने पर श्री मुंशी ने पाया कि कश्मीर , पेशावर , पंजाब , हिमाचल , उत्तर प्रदेश , मध्य प्रदेश , राजस्थान , गुजरात तथा दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश तक फैले हुए गुर्जर सुंदर , सुडौल , बलिष्ठ आर्य आकृति वाले हैं और उन दूरस्थ प्रदेशों में रहते हुए उनकी वेशभूषा , भाषा , रीति – रिवाज एक जैसे हैं । इतना ही नहीं वह हर स्थान पर अपनी गुर्जरी भाषा अर्थात प्राचीन गुर्जरी अपभ्रंश के ही कुछ बदले हुए रूपों को आज भी बोलते हुए अपनाते हैं । जो वर्तमान पश्चिमी राजस्थान की भाषा है । उनका यह भी मत था कि गुर्जरों के लोकगीत आज भी राजस्थान में गुजरात के लोकगीतों जैसे ही हैं । गुर्जरों की यह गुर्जरी भाषा जिसको मध्ययुगीन साहित्य में गुर्जरी अपभ्रंश कहा गया था निश्चय ही आर्य भाषा है । श्री मुंशी के खोज वृत्तांत का सारांश है कि उन्होंने कश्मीर से आंध्र तक के दूरस्थ क्षेत्रों में रहने वाले गुर्जरों की वेशभूषा को राजस्थान में गुजरात से संबंधित बताते हुए गुर्जर महिलाओं को राजस्थानी घाघरा लहंगा पहने देखा था । उन्होंने वर्तमान राजस्थान के राजपूतों के साथ ही गुर्जरों का तुलनात्मक अध्ययन करके दोनों में काफी समानता पाई । श्री मुंशी ने अपने लेखन के माध्यम से गुर्जरों के विदेशी होने की उत्पत्ति के सिद्धांत का खंडन किया। उनके प्रतिहार , परमार , चालुक्य , चौहान आदि वंशों की विदेशी उत्पत्ति का भी खंडन किया और उसी आधार पर राजपूतों की विदेशी उत्पत्ति का भी खंडन किया।


11 वीं शताब्दी के कवि धनपाल जैन की तिलकमंजरी पुस्तक में भोज परमार गुर्जर राजवंश के प्रमाण वासिष्ठस्म कृतस्मयो वरशतैरस्त्यग्निकुण्डोद्भवो ।भूपालः परमार इत्यभिधया ख्यातो महीमण्डले ॥अद्याप्युद्गतहर्षगद्गदगिरो गायन्ति यस्यार्बुदे ।विश्वामित्रजयोज्झितस्य भुजयोर्विस्फूजितं गुर्जराः ॥३ (हिंदी में अनुवाद) राजा भोज का वश पर वसिष्ठ की स्त्री अरुन्धती रोने लगी ।उसकी ऐसी अवस्था को देख मुनि को क्रोध चढ़ गया और उसने अथर्व मंत्र पढ़ कर आहुति के द्वारा अपने अग्निकुंड से एक वीर उत्पन्न किया ।वह वीर शत्रुओं का नाशकर वसिष्ठ की गाय को वापिस ले आया ।इससे प्रसन्न होकर मुनि ने उसका नाम परमार रखा और उसे एक छत्र देकर राजा बना दिया ।धनपाल ‘ नामक कवि ने वि० सं० १०७० ( ई० स० १०१३ ) के करीब राजा भोज की आज्ञा से तिलकमञ्जरी नामक गद्य काव्य लिखा था ।उसमें लिखा है : आबू पर्वत पर के गुर्जर लोग , वसिष्ठ के अग्निकुंड से उत्पन्न हुए और विश्वामित्र को जीतनेवाले , परमार नामक नरेश के प्रताप को अब तक भी स्मरण किया करते हैं ।गिरवर ( सिरोही राज्य ) के पाट नारायण के मन्दिर के वि० सं० १३४४ ( ई० सं० १९८७ ) के लेख में इस वंश के मूल पुरुष का नाम उत्पन्न होने के स्थान पर वसिष्ठ की नन्दिनी गाय के हुकार से पल्हव , शक , यवन , आदि म्लेच्छों काउत्पन्न होना लिखा है : तस्या हुंभारवोत्कृष्टाः पल्हवाः शतशो नृप ॥१८ ॥भूय एवासृजद्घोराच्छकाम्यवनमिश्रितान्।


गुर्जर जाति के क्षत्रिय होने के प्रमाण. ( इ ) पं . वासुदेव प्रसाद शास्त्री : – पं . वासुदेव शास्त्री जी ने गुर्जर शब्द को जातिवाचक स्वीकार करते हुए लिखा है – ‘ किचं यथा . . . . . . . . . . . . . . . क्षत्रियपि गुर्जरा। गुर्जराणां क्षत्रियाणामभावे गुर्जराख्यो जनपदः कथंस्थात । द्रश्यन्ते हि वंगा अंगा कलिंगादयो जनपदाः क्षत्रिया ख्यैव प्रसिद्धिगताः । स्पष्टं चेदं जनपद शब्दाक्षत्रियादभित्यादि पाणिनी सूत्रः गुर्जर व्याख्या च क्षत्रिये स्वैव मुख्याभवति ब्रह्मणादिषुतु देश सम्बन्धाज्जायते । । तथाहि गुरी उद्यमने इति धातोः सम्पदादित्वाद्भावे विकल्प गुरं शत्रु कलंक शत्रोद्यमनेजरयति नाशयति इति गुर्जराः शब्द कल्यं दूमेऽयेतादर्श व्युत्पत्ति।


शारीरिक विशिष्टता-गुर्जर जाति की शारीरिक विशेषता की बात करें, तो लम्बा कद,
लम्बोतरा सिर, चौड़ा ललाट, सुडौल बदन, पैनी लम्बी नाक और गेंहुआ रंग के आधार पर
नृवंश विज्ञान और भाषा विज्ञान के विद्वानों ने गुर्जर जाति को विशुद्ध आर्य रक्त से उत्पन्न माना है।
प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता सर हर्बर्ट रिज्ले ने सन् 1901 में प्रकाशित Anthropological Report
जिसे सम्पूर्ण भारतीय जातियों की नस्ल परीक्षा करके तैयार किया गया था, इसमें गुर्जर जाति को
सर्वश्रेष्ठ आर्य नस्ल का सिद्ध किया है। गुर्जरों की नाक का इण्डेक्स 66.8 पाया गया था, जो
भारत के किसी भी अन्य जाति का नहीं था। इससे यह पूरी तरह सिद्ध है कि गुर्जर लोग विशुद्ध
आर्य हैं। उनमें किसी अनार्य जाति या नस्ल का मिश्रण नहीं है। कृपया अधिक से अधिक शेयर करें
सौजन्य से
जंडेल सिंह गुर्जर बैंसला
ग्वालियर मध्यप्रदेश🙏🙏

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