राहुल गांधी की अड़ियल राजनीति और देश का भविष्य

लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष की भूमिका का निर्वाह करते राहुल गांधी लगता है अब पप्पू नहीं रहे हैं, बल्कि वह इससे आगे बढ़कर एक नए स्वरूप में दिखाई दे रहे हैं। वह जिस रूप में दिखाई दे रहे हैं, उसमें उनका नौसिखियापन कहीं नहीं झलकता। यद्यपि कई लोग उनके बोलने को अभी भी उनका नौसिखियापन ही मान रहे हैं, जबकि नौसिखियापन वह होता है जिसमें व्यक्ति सीखने की प्रक्रिया से गुजर रहा होता है। परन्तु जब किसी व्यक्ति के भीतर यह अहंकार पैदा हो जाए कि वह सब कुछ सीख चुका है, वह सर्वज्ञ हो चुका है और अब उसके लिए सीखने के लिए कुछ शेष नहीं रहा, अपनी मान्यता, अपनी सोच और अपने अड़ियल दृष्टिकोण को ही वह अपनी प्रतिभा की पूर्ण पराकाष्ठा की प्राप्ति मान लेता है तो वह नौसिखियापन से आगे बढ़ जाता है। उसका वह जिद्दी स्वरूप उसके जीवन का स्थाई दृष्टिकोण बन चुका होता है। हमें समझ लेना चाहिए कि राहुल गांधी अब अपने इसी स्थाई दृष्टिकोण को प्राप्त कर चुके हैं। इससे अलग अब उनकी राजनीति कभी भविष्य में जा ही नहीं सकती। यदि राहुल गांधी के इस स्थाई दृष्टिकोण को भी कुछ लोग उनका नौसिखियापन मान रहे हैं तो समझिए कि ऐसा मानने वाले लोग स्वयं ही ‘ पप्पू ‘ हैं।
राहुल गांधी इस समय जिस प्रकार का अड़ियल , अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक दृष्टिकोण अपनाकर संसद के भीतर अपने विचारों को अभिव्यक्ति दे रहे हैं, उसके पीछे गहरा षड़यंत्र है । इस षड़यंत्र में वे सभी देशी विदेशी शक्तियां अपना काम कर रही हैं, जो प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत की बढ़ती वैश्विक प्रतिष्ठा को पचा नहीं पा रही हैं। उन्हें अस्थिर भारत चाहिए। सांप्रदायिक आधार पर बंटा हुआ भारत चाहिए। विभिन्न सांप्रदायिक मान्यताओं यहां तक कि जातीय आधार पर भी टूटा फूटा और बिखरा हुआ भारत चाहिए । राहुल गांधी जातीय आधार पर जनगणना करने की मांग करके हिंदू समाज को जिस प्रकार बिखेरने और तोड़ने का प्रयास कर रहे हैं, उससे देशी और विदेशी शक्तियों का भारत के बारे में ऐसा सपना ही साकार हो रहा है। बेरोजगारी और ऐसी ही दूसरी जनसमस्याओं को लेकर मोदी का विरोध करते-करते जन समर्थन अपने साथ जुटाकर राहुल गांधी और उनके साथी अखिलेश यादव जैसे युवा नेता जिस अंतिम लक्ष्य पर पहुंचना चाहते हैं , वह भारत के लिए अत्यंत भयावह हो सकता है। इनका मुस्लिम तुष्टिकरण भविष्य में कैसे गुल खिला सकता है ? इस पर विचार करने की आवश्यकता है।
राहुल गांधी को इस नए स्वरूप में देखकर यह नहीं समझना चाहिए कि वह अपरिपक्व या नौसिखिया राजनेता की भूमिका में हमको दिखाई दे रहे हैं बल्कि वह एक ढीठ राजनीतिज्ञ के रूप में अवतरित हो चुके हैं। वह भली प्रकार जानते हैं कि वह जिन किसानों को समर्थन देकर मोदी सरकार के विरुद्ध उकसा रहे हैं, वह किसान नहीं बल्कि आतंकवादी हैं। उन आतंकवादियों के पीछे विदेश में बैठी कौन-कौन सी शक्तियां कम कर रही हैं, इस बात को भी राहुल गांधी भली प्रकार जानते हैं, परन्तु उन्हें सत्ता प्राप्ति की जल्दी लगी हुई है। इसके लिए वह किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। जिन आतंकवादियों ने उनकी दादी इंदिरा गांधी की हत्या की थी, आज उन्हीं का समर्थन करके वह अपनी दादी के बलिदान का भी उपहास कर रहे हैं।
वह संसद में एक अराजक तत्व की सी भूमिका निभा रहे हैं, उन्हें शोर चाहिए और शोर के साथ-साथ संसदीय लोकतंत्र की
गरिमाएं टूटती हुई दीखनी चाहिए, इसी में उन्हें अपनी राजनीति सफल होती हुई दिखाई देती है। उनकी एक जिद है कि मुझे उस दिशा के विपरीत सोचना है जिस दिशा में इस देश की मौलिक चेतन सोचती है। वह कांग्रेस की उस दोगली विरासत के प्रतिनिधि बन चुके हैं, जिसने 1947 में देश बंटवाया था। वही विकृत चिंतन, वही विकृत सोच और वही विकृत कार्यशैली के रूप में एक नए नेता को देखकर मां भारती की आत्मा रो रही है। समझदार लोग इस बात को लेकर चिंतित होने लगे हैं कि हम फिर 1947 की ओर बढ़ रहे हैं। अब से 100 वर्ष पहले भी देश के सामने देश के विभाजन की हल्की-हल्की तस्वीर उभरने लगी थी, अब फिर लोगों को चिंता होने लगी है कि राहुल गांधी देश को फिर उसी विभीषिका की ओर ले जा रहे हैं। संसद में एक उनके एक वक्तव्य पर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण माथा पकड़े हुए देखी गईं, क्योंकि वह जिस प्रकार चीजों की व्याख्या कर रहे थे, वह लोगों की समझ में नहीं आ रहा था और राहुल गांधी थे कि अपनी बात पर अड़े हुए थे। वह कहते हैं कि मैं माफी नहीं मांगूंगा। सावरकर जी के संदर्भ में इस बात को वे बार-बार दोहराते हैं। जब वह ऐसा कहते हैं तो उनकी भाषा अत्यंत तीखी होती है। इसका अभिप्राय है कि उनके भीतर एक ऐसा हठीला राजनीतिज्ञ पैदा हो चुका है जो हर हालत में अपनी मान्यताओं को ही अंतिम सत्य मानने की भूल कर रहा है। वह विनम्रता और शालीनता का नाटक करते हैं ,क्रोध न करने की बात करते हैं, परंतु उनके चेहरे की भाव भंगिमा बताती है कि वह भीतर से कितने अधिक क्रोध और घृणा के भावों से भरे हुए हैं ?
राहुल गांधी की मनोवृत्ति और सत्ता प्राप्ति की उत्कट इच्छा दोनों ही देश विरोधी बन चुकी हैं। वे गंभीरता का प्रदर्शन करते हुए जनमानस पर अपना प्रभाव डालने की बजाय 99 सीट लेकर अपने आप को एक विजेता राजनीतिज्ञ के रूप में स्थापित कर रहे हैं । एनडीए के द्वारा स्पष्ट बहुमत प्राप्त करने के उपरांत भी उसे पराजित कहकर एक नए विमर्श को स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं कि ये लोग हार चुके हैं। उन्होंने लोकसभा चुनाव के समय भाजपा द्वारा संविधान बदलने का झूठा प्रचार किया। अपने इस झूठे प्रचार पर शर्माने की बजाय वह और भी अधिक ढिठाई के साथ अपनी बात को बार-बार प्रस्तुत कर रहे हैं कि भाजपा को हम संविधान बदलने नहीं देंगे।
लोकसभा में आम बजट को प्रस्तुत करने के तौर तरीके अभी तक भी वही हैं, जो कांग्रेस के शासनकाल में रहे थे। उन्हीं परंपराओं पर आज राहुल गांधी नए ढंग से नए प्रश्न खड़े कर रहे हैं। उन्होंने नेता प्रतिपक्ष के रूप में बजट चर्चा में भाग लेते हुए कहा कि बजट तैयार करने वालों में कोई एससी, एसटी और ओबीसी अधिकारी नहीं है। उनके इस प्रकार के आरोप लगाने के दृष्टिकोण ने समाज में विभाजन की एक नई रेखा को खींचने का काम किया है। ऐसा कहने से तात्कालिक आधार पर उनकी राजनीति सफल हो सकती है, लेकिन क्या इससे राष्ट्र का भी कोई भला हो सकता है ? उन्हें स्वयं कांग्रेस की अतीत की राजनीति को देखना चाहिए, जब कांग्रेस ने ऐसी परिस्थितियों सृजित की थीं, जिनमें डॉ अंबेडकर को पार्लियामेंट में जाने से रोकने का हर संभव प्रयास किया गया था। उस समय उनकी दादी श्रीमती इंदिरा गांधी के पिता पंडित जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री थे । अपने मौलिक स्वरूप में कांग्रेस कितनी अधिक एससी, एसटी की हिचिंतक रही है ? यह इन घटनाओं को समझने पढ़ने से अपने आप स्पष्ट हो जाएगा। राहुल गांधी सोचते होंगे कि जनता की स्मृति बड़ी दुर्बल होती है और वह सब कुछ भूल जाती है। परन्तु उन्हें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि आज का समय ऐसा नहीं है , जब तथ्यों को आप कहीं कूड़ेदान में डाल आएं तो वह किसी की नजर ना आएं ,आज के विज्ञान के युग में बहुत कुछ पारदर्शी हो चुका है।
देश का जनमानस यह भली प्रकार जानता है कि राहुल गांधी जिस प्रकार की भड़काऊ राजनीति कर रहे हैं, वह देश के हित में नहीं है। यदि देश की जनता को राहुल गांधी की भड़काऊ राजनीति ही रास आ रही होती तो वह राहुल गांधी को इस बार भी सत्ता सौंप सकती थी, परंतु देश के मतदाताओं ने ऐसा नहीं किया। इसके उपरांत भी उन्होंने सिरों की गिनती का खेल खेलने का प्रयास किया। इसके चलते उन्होंने 272 के जादुई आंकड़े को बनाने की योजना पर विचार किया। परन्तु भला हो नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू का कि वे राहुल गांधी और उनके साथियों के जाल में नहीं फंसे।
राहुल गांधी का यह कहना कि ऊंची जाति के अध्यापक प्रश्न पत्र बनाते हैं, जिससे आरक्षित वर्ग के बच्चे परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाते हैं, उनकी भड़काऊ राजनीति का ही एक अंग है। वह जिस प्रकार प्रधानमंत्री श्री मोदी के विरुद्ध प्रारंभ से ही अशोभनीय भाषा का प्रयोग करते रहे हैं , उसे भी किसी दृष्टिकोण से भी लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता । ऐसा नहीं है कि इस देश में विपक्ष इस समय ही है , विपक्ष तो पहले दिन से काम करता आया है । विपक्ष के नेता पहले दिन से ही देश के प्रधानमंत्री का बहुत सम्मान करते रहे हैं । यद्यपि उनके अपने समकालीन प्रधानमंत्री से मौलिक मतभेद उतने ही गहरे थे, जितने आज राहुल गांधी और प्रधानमंत्री मोदी के विचारों में मतभिन्नता है। लोहिया नेहरू की खूब धज्जियां उड़ाते थे, परन्तु दोनों के बीच की आत्मीयता भी प्रशंसनीय और अनुकरणीय रही। इसी प्रकार अटल जी इंदिरा गांधी की बखिया उधेड़ने में किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ते थे, इसके उपरांत भी अटल जी का भाषा स्तर कभी गिरा नहीं। यहां तक कि राहुल गांधी के पिता राजीव गांधी भी प्रतिपक्ष के नेता की भूमिका में जब रहे तो उन्होंने भी शालीनता का परिचय दिया। इसके विपरीत राहुल गांधी तीखे और क्रोधी अंदाज में जिस प्रकार अपनी बातों को लोकसभा में रख रहे हैं, वह पूर्णतया अलोकतांत्रिक है। वे मनमाने और बेतुके तर्क देने में भी किसी प्रकार का संकोच नहीं कर रहे हैं, जिससे समझदार लोग बहुत दुखी हैं। 2014 से ही हम देखते आ रहे हैं कि जब-जब भी संसद का कोई सत्र चलता है तो प्रधानमंत्री मोदी विपक्ष के नेताओं के साथ लोकतांत्रिक समन्वय स्थापित करने के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाकर उनसे अपील करते रहे हैं कि संसद का सत्र गंभीरता से चलना चाहिए। इसके अतिरिक्त लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति भी इस प्रकार की अपील निरंतर करते रहे हैं, परंतु राहुल गांधी ने 2014 से लेकर 2024 तक किसी भी सत्र को शांति से चलने नहीं दिया। देश के लोगों की गाढ़ी कमाई का कितना धन संसद के सत्रों पर खर्च होता है, इसे वह भली प्रकार जानते हैं, परन्तु उनका अंतिम लक्ष्य संसद सत्र चलवाना नहीं है, इसके विपरीत अडंगा डालना उनकी राजनीति का एक महत्वपूर्ण अंग है। जिसका परिचय वह बार-बार दे रहे हैं और अब तो उनका यह दृष्टिकोण उनकी राजनीतिक ढिठाई तक पहुंच चुका है। जिसे भारत विरोधी विदेशी शक्तियों ने पहचान लिया है । यही कारण है कि भारत विरोधी विदेशी शक्तियां राहुल गांधी के पीछे मजबूती के साथ आकर खड़ी हो गई हैं। जिससे राहुल गांधी को नई ऊर्जा मिली हुई दिखाई दे रही है।
समय राहुल गांधी के लिए भी संभलने का है और देश के मतदाताओं के लिए भी संभलने का है । राहुल गांधी लोकतंत्र की परंपराओं को समझें और देश के लोग देश के नेताओं के आचरण को समझें । तभी देश का भला हो सकता है, अन्यथा हम जिस भयावह भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं और उसकी छाया जिस प्रकार गहरी होती जा रही है, वह हम सबके लिए दावानल बन सकती है।

डॉ राकेश कुमार आर्य

( लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं।)

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