सेवा संस्कार से शून्य होते हमारे बच्चे और स्कूल
यह बहुत ही कष्ट का विषय है कि आज के बच्चे अपने माता-पिता के प्रति सेवाभावी नहीं हो पा रहे हैं । जब माता-पिता के प्रति सेवाभावी या कहना मानने वाले नहीं है तो वह समाज के प्रति भी अपनी जिम्मेदारियों से भागते हैं , सेवा भाव का तो प्रश्न ही समाप्त हो जाता है। सब एक-दूसरे का खून चूस रहे हैं समाज और समाज की व्यवस्था दोनों ही समाप्त हो चुकी है ।आपको पता है ऐसा क्यों हो रहा है ?इसका कारण केवल एक है कि विद्यालयों से संस्कार देने का समग्र तंत्र ही समाप्त कर दिया गया है । हममें से जो 50 वर्ष की अवस्था के लोग हैं वह अपने बचपन को थोड़ा याद करें तो पता चलेगा कि सभी बच्चे अपनी कक्षा की सफाई अपने आप करते थे । झाड़ू पोछा तक का काम वहां पर अपने आप करना पड़ता था । गुरुजी के लिए यदि चाय बनानी होती थी तो वह भी बनानी पड़ती थी । इन सब चीजों से बच्चों के भीतर सेवा संस्कार प्रबल होता था । इसी प्रकार के कार्यों को बच्चे घर में भी माता पिता के लिए करते थे।विद्यालय में स्कूल के हेड मास्टर सप्ताह में 1 दिन सफाई अभियान चलाते थे । जिसमें सभी बच्चों को अनिवार्य रूप से सम्मिलित होना पड़ता था । इतना ही नहीं बच्चे को विनम्र और अहंकारशून्य बनाने के लिए प्राचीन काल से ही भारत में भिक्षाटन भी कराया जाता रहा है । जिससे बच्चे को छोटे बड़े का भेद समझ में आ जाए और सबको समान समझने का संस्कार उसके भीतर प्रबल हो जाए ।यदि आज किसी बच्चे के हाथ में झाड़ू देख ली जाए तो तथाकथित पत्रकार वहां पर जाकर खड़े हो जाते हैं कि देखिए विद्यालय में कितना बड़ा अपराध हो गया है ? बच्चे को सेवा संस्कार सिखाए जा रहे हैं , बच्चे को समाज के लिए उपयोगी होने का हुनर सिखाया जा रहा है । आज का कानून भी बच्चों को सेवा संस्कार न सीखने देने के लिए काम करता हुआ दिखाई देता है। सारी व्यवस्था इसी प्रकार की सोच की बन गई लगती है । न्यायालय भी कोई व्यवस्था न देकर अव्यवस्था में सहायक बन रहे हैं।इसी प्रकार माता-पिता भी यह नहीं चाहते कि हमारा बच्चा विद्यालय में जाकर झाड़ू लगाए या सेवा संस्कार के सीखने का प्रयास करें । जब ऐसे बच्चे बाहर निकल कर आते हैं तो वह जिद्दी , सेवा भाव से शून्य और समाज के लिए सर्वथा अनुपयोगी होते हैं । वह केवल जेब भरो और संवेदना शून्य रहो — इस प्रकार के संस्कारों में विश्वास रखते हैं । इसी प्रकार के संस्कारों ने आज का समाज भावशून्य बना दिया है ।संवेदनाशून्य समाज में हम रहे हैं और फिर भी कह रहे हैं कि हम तथाकथित सभ्य समाज के लोग हैं। सभ्य समाज कैसे बनता है और कैसे उसमें बच्चे में सभ्यता के संस्कार आते हैं ? – इसे तो आज की शिक्षा समझ ही नहीं पा रही है । यही कारण है कि सारे समाज में आग लगी हुई है । संबंधों में आग लगा कर सब कुछ नष्ट भ्रष्ट हो चुका है । पता नहीं हम किधर जा रहे हैं ? निश्चित रूप से हमारा भविष्य अंधकारमय है । संभलने की आवश्यकता है । समय रहते यदि हम सचेत नहीं हुए तो रहा सहा सब नष्ट हो जाएगा।आवश्यकता गुरुकुल शिक्षा पद्धति को लागू करने और वैदिक संस्कारों को बच्चों के भीतर डालने की है। जिससे एक भावपूर्ण समाज की संरचना हम कर सकें। समतामूलक समाज तब तक संभव नहीं है जब तक भावपूर्ण संबंधों को हम संस्कारों के माध्यम से बनाने की ओर ध्यान नहीं देंगे।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत