कुल मिलाकर चार प्रकार का ज्ञान होता है। मिथ्या ज्ञान, संशयात्मक ज्ञान, शाब्दिक ज्ञान, और तत्त्वज्ञान।

1- मिथ्या ज्ञान उसे कहते हैं, जब वस्तु कुछ और हो और व्यक्ति उसे समझता कुछ और हो। जैसे रस्सी को सांप समझना। यह मिथ्या ज्ञान है।

2- संशयात्मक ज्ञान उसे कहते हैं, जब वस्तु समझ में ही नहीं आए। जैसे यह वस्तु रस्सी है, या सांप है, कुछ भी समझ में नहीं आ रहा। कोई निर्णय नहीं हो पा रहा। ऐसी स्थिति में जो ज्ञान होता है, उसे संशयात्मक ज्ञान कहते हैं।

3- शाब्दिक ज्ञान। जब व्यक्ति शब्दों से तो किसी वस्तु को ठीक-ठीक समझ लेता है, जान लेता है, बोल भी देता है, परंतु वैसा आचरण नहीं कर पाता। ऐसी स्थिति वाले ज्ञान को शाब्दिक ज्ञान कहते हैं। जैसे क्रोध नहीं करना चाहिए। यह बात ठीक है। व्यक्ति समझता है, बोलता भी है, परंतु फिर भी इस के अनुकूल आचरण नहीं करता। व्यवहार में फिर भी क्रोध कर ही देता है। ऐसे ज्ञान को शाब्दिक ज्ञान कहते हैं।

4- तत्त्वज्ञान। जब शाब्दिक ज्ञान को व्यक्ति अपने आचरण में भी ठीक वैसा ही उतार लेता है, जैसा वह शब्दों से कह रहा था। तो उसके ज्ञान को तत्त्वज्ञान कहते हैं। यही वास्तविक ज्ञान है। ऐसे वास्तविक ज्ञान से ही पूर्ण लाभ होता है। जो व्यक्ति व्यवहार में क्रोध नहीं करता, उसका ज्ञान तत्त्वज्ञान है। ऐसे ही अन्य सभी क्षेत्रों में भी समझ लेना चाहिए।
जब हम लोगों से बात करते हैं, तो वे कहते हैं, कि “संसार में सुख भी है, और दुख भी है.” जी हां, यह बात सही है। फिर हम पूछते हैं, कि “सुख अधिक है या दुख अधिक है?” तब कुछ लोग कहते हैं, कि “सुख अधिक है, कुछ लोग कहते हैं, कि दुख अधिक है।”
एक दृष्टि से देखा जाए, तो दोनों बातें सत्य हैं, परंतु फिर भी दोनों में विरोध नहीं है। कैसे? “संसार में शारीरिक स्तर पर सुख अधिक है, दुख कम। और मानसिक स्तर पर सुख कम तथा दुख अधिक है। इसलिए इन दोनों बातों में विरोध नहीं है।” कैसे?
क्योंकि सुख-दुख दो प्रकार से होता है, एक शारीरिक और दूसरा मानसिक। अच्छा भोजन अच्छा बिस्तर अच्छा बर्तन अच्छा मकान अच्छी मोटर गाड़ी आदि से सुख भोगना, “यह शारीरिक सुख है।” और गर्मी ठंडी खांसी जुकाम टी बी कैंसर बुखार आदि रोगों से दुखी होना, “यह शारीरिक दुख है।”
कभी आपको पुरस्कार मिल गया, सम्मान मिल गया, कभी आपका बेटा या पोता कक्षा में प्रथम स्थान पर आया, उसे गोल्ड मेडल मिल गया और आप खुश हो गए। “यह मानसिक सुख है।” किसी ने आप पर झूठा आरोप लगा दिया, उस से आप चिंतित और परेशान हो गए, कोई काम आपका बहुत दिनों से अटका हुआ है वह पूरा नहीं हो रहा, लोग आपको धोखा देते हैं अन्याय करते हैं आदि, इस प्रकार की जो परेशानियां हैं, “यह मानसिक दुख है।”
“क्योंकि शारीरिक स्तर पर व्यक्ति एक वर्ष में 10 11 महीने स्वस्थ रहता है, और कुल मिलाकर एक आध महीना रोगी परेशान और दुखी होता है। और जब मानसिक स्तर पर देखते हैं, तो मानसिक सुख की घटनाएं वर्ष भर में बहुत कम होती हैं। एक वर्ष में 10 20 30 बार। और चिंता तनाव भय क्रोध लोभ ईर्ष्या अभिमान आदि मानसिक दुख तो प्रतिदिन होते हैं। इसमें रविवार की भी छुट्टी नहीं होती। कोई होली दीवाली पर्व पर भी छुट्टी नहीं होती। मानसिक दुख तो 365 दिन लगातार बना ही रहता है।”
इस विश्लेषण से यह पता चला कि “संसार में शारीरिक स्तर पर सुख अधिक एवं दुख कम है। तथा मानसिक स्तर पर सुख कम और दुख अधिक है।”
अब एक अन्य दृष्टि से “यदि शारीरिक और मानसिक दुखों की तुलना करें, तो इनमें मानसिक दुख अधिक खतरनाक हैं, और वे 365 दिन बने रहते हैं।” इस प्रकार से यह पता चलता है, कि “कुल मिलाकर संसार में सुख कम और दुख अधिक है।”
जब किसी व्यक्ति को इस प्रकार से दिखने लग जाए, कि “कुल मिलाकर संसार में सुख कम और दुख अधिक है,” तो समझ लेना चाहिए, कि “उसके जीवन में तत्त्वज्ञान प्राप्ति का आरंभ हो गया। फिर धीरे धीरे वह इस तत्त्वज्ञान को यदि अभ्यास करके आगे बढ़ाता जाएगा, तो उसके जीवन में तत्त्वज्ञान वैराग्य सुख शांति और आनंद भी बढ़ता जाएगा। जिसके जीवन में जितना तत्त्वज्ञान और वैराग्य अधिक होगा, वह उतना ही आध्यात्मिक स्तर पर अधिक सुखी होगा।”
“अतः सारी बात का सार यह हुआ कि 2 प्रकार के ज्ञानों से बचें। अर्थात मिथ्या ज्ञान और संशय ज्ञान से बचें। ये दोनों हानिकारक हैं। इनके स्थान पर शाब्दिक ज्ञान को अपने जीवन में स्थापित करें। फिर अपने शाब्दिक ज्ञान को बार-बार दोहराकर चिंतन मनन करके कुछ क्रियात्मक प्रयोग करके उसे तत्त्वज्ञान के स्तर पर लावें। इसी में जीवन की सफलता है, अन्यथा नहीं।”
—- “स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, निदेशक – दर्शन योग महाविद्यालय, रोजड़, गुजरात.”

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