इसे संसद का क्षरण ही कहा जा सकता है ….
डॉ दयानंद कादयान
संसद भवन लोकतंत्र का मंदिर होता है। इस मंदिर को सनातन व आधुनिक रूप देकर नए गरिमामय स्वरूप में लाया गया है। परंतु संसदीय कार्रवाइयों के क्षरण का विषय हर लोकतंत्र प्रेमी के के लिए चिंता का विषय बना हुआ है।लेकिन किसी ने भी इसके लिए कुछ करने की जरूरत नहीं समझी है। पिछले 7 दशकों से ऐसा एक भी मौका याद नहीं आता जिसके तहत किसी भी राजनेता ने संसदीय गरिमा को बढ़ाने के लिए कोई गंभीर प्रयास किया हो। इसमें नरेंद्र मोदी और राजग तो अपवाद दिखाई देते हैं। इसके अलावा जो लोग भी चुनकर संसद भवन पंहुचे।उन्होंने इस लोकतंत्र के आधार स्तंभों को कमजोर करने का काम ही किया। विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता नेतृत्व देने के बजाय संसद में असहाय मूक दर्शक ही साबित हुए है। संसद की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता को सबसे ज्यादा प्रभावित राजनीति के अपराधीकरण ने किया है। राजनीति का अपराधीकरण अब और बढ़ गया है। लोकसभा के आंकड़ों के अनुसार 18वीं लोकसभा में भी 251 सांसद दागी छवि के पंहुचे है।जम्मू कश्मीर के बारामूला निर्वाचन क्षेत्र से इंजीनियर रशीद शेख चुनाव जीत कर आए हैं जो टेरर फंडिंग केस में तिहाड़ जेल में बंद है। इसी प्रकार पंजाब की खड़ूर साहब लोकसभा से अमृतपाल सिंह ने चुनाव जीता है जो असम की डिब्रूगढ़ जेल में रासुका में बंद है। स्वर्गीय इंदिरा गांधी के हत्या केस में आरोपित बेअंत सिंह के पुत्र सर्वजीत सिंह पंजाब की फरीदकोट सीट से सांसद चुने गए हैं।इसी प्रकार मुख्तार अंसारी के भाई अफजल अंसारी भी उत्तर प्रदेश की गाज़ीपुर सीट से चुनाव जीते हैं। इस तरह के उम्मीदवारों से राजनीति के अपराधीकरण के बढ़ावे पर अंकुश नहीं लग सकता।
मोदी की तीसरी पारी की सरकार का पहला संसद सत्र एक सप्ताह से भी ऊपर चला है। इसमें सांसदों का शपथग्रहण हुआ, राष्ट्रपति का अभिभाषण हुआ,अभिभाषण पर चर्चा तथा चर्चा के दौरान विपक्ष ने जहां सरकार पर अन्य अनेक आरोप लगाए। वहीं सरकार ने विपक्ष के आरोपों का जवाब दिया। पहली बार राहुल गांधी ने नेता विरोधीदल के तौर पर संसद में अभिभाषण पर चर्चा में भाग लिया। उन्होंने विषयान्तर होकर सरकार पर अनेक आरोप लगा दिए। उन्होंने हिंदुओं को हिंसा फैलाने सब कह दिया तथा संसद में बैठे लोगों को हिंदू न होने का आरोप लगाकर उनकी गरिमा को ठेस पहुंचाने का प्रयास किया। ह हालांकि नरेंद्र मोदी ने लोकसभा व राज्यसभा में विपक्ष के आरोपों का केवल जवाब ही नहीं दिया बल्कि मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को घेरे में लाने का भी प्रयास किया। इस छोटी सी अवधि के सत्र में सबसे बड़ी कमी यह दिखाई दी की सत्ता पक्ष ने जिस धैर्य के साथ नेता प्रतिपक्ष समेत सभी विपक्षी नेताओं को सुना,वहीं विपक्ष ने ऐसा नहीं किया। पीएम के संबोधन के दौरान कांग्रेस समेत विपक्षी सांसद हल्ला करता रहे व नारेबाजी करते रहे। व्यवधान पैदा करते रहे। सुनाने के साथ सुनने की विशेषता की भी जरूरत होती है। विपक्षी खासकर कांग्रेस सदन के कामकाज में रूकावट डालने में सबसे आगे रही है। केवल आरोप लगा लेना ही काफी नहीं उसका जवाब सुनना भी आवश्यक है।पीएम मोदी के संबोधन के दौरान लोकसभा और राज्यसभा में कांग्रेस सांसदों ने जिस प्रकार का को हल्ला किया वह अशोभनीय है। संसद की गरिमा के विरुद्ध है। सांसदों का सदन में दायित्व है जब कोई सांसद सदन में अपनी बात रखें तो उपस्थित सांसदों को शांतचित रहकर उसे सुनना चाहिए। संसद के सत्र के हल्लाह की भेंट चढ़ना लोकतंत्र की मर्यादाओं के खिलाफ है। लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका अहम है,लेकिन वह रचनात्मक होनी चाहिए। रुकावट डालने वाले नहीं होनी चाहिए।दुर्भाग्य से हमारी संसद में विपक्ष ने अपनी भूमिका अवरोधक की कर ली हैव विपक्ष को यह भ्रम हो गया है कि जनादेश उनके पक्ष में है। जबकि ऐसा कुछ नहीं है। देश की जनता ने जनादेश मोदी व राजग को दिया है। इसलिए राजग ने तीसरी बार केंद्र में सरकार बनाई है।राहुल गांधी को या भ्रम है कि भाजपा व संघ के लोग हिंसा की बात करते हैं। जबकि ऐसा नहीं है, यह हिंदुओं के एक बड़े वर्ग को अपमानित करने जैसा है। और वह भी संसद के एक लोकतांत्रिक मंच से पीएम मोदी ने नीट परीक्षा में पेपर लीक का भी जवाब दिया और आश्वासन दिया किसी भी दोषी को बख्सा नहीं जाएगा। संसद में विपक्ष को हमले करने की बजाय रचनात्मक लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए काम करना चाहिए।
राहुल गांधी और कांग्रेस ने गैर जिम्मेदाराना रवैया अभी नहीं अपनाया बल्कि इस गैर जिम्मेदाराना हरकतों का सिलसिला तो दशकों पुराना है। यदि हम 2018 की 19 जुलाई की कार्रवाई को देखें तो राहुल गांधी ने बड़े गैर जिमेंदाराना तरीके से नरेंद्र मोदी व राजग सरकार पर हमले किए थे।भाषण के बाद आत्ममुग्ध राहुल संसद की परंपरा को तोड़ते हुए कुर्सी पर बैठे प्रधानमंत्री के गले भी पड़ गए थे।इसके बाद अपनी कुर्सी पर बैठकर राहुल ने जिस ढंग से आंखों की भाव भंगिमा चलाई थी उससे संसद ही नहीं बल्कि डेढ़ एकड़ जनता शर्मसार हो गई थी। उन्होंने राफेल सौदे को लेकर भी सरकार को गिराने का प्रयास किया,परंतु यह प्रयास राहुल गांधी को महंगा पड़ गया था। क्योंकि फ्रांस ने उनके आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया था। राहुल ने कहा था कि इस विमान सौदे में विमान की कीमत बढ़ा दी गई थी।इस कारण बड़ा घोटाला हुआ है। इसका जवाब देते हुए सरकार ने कहा था कि दोनों देशों में सूचना गोपनीय रखने का समझौता किया गया था। इस प्रकार राहुल गांधी की गैर जिम्मेदाराना हरकतों से संसद शर्मसार हुई है।
संसद में हंगामों के समय की पड़ताल की जाए तो 11वीं लोकसभा का पांच फीसदी समय इस प्रकार की हकतों में बर्बाद हुआ था। 12वीं लोकसभा में यह बढ़कर 20 फीसदी हो गया था। तेरहवीं लोकसभा में 22.4 फिसदी समय हंगामों के भेट चढ़ा था।इसी तरह चौदहवीं लोकसभा के पहले सत्र का अधिकांश समय बर्बाद हो गया था। इस दौरान एक भी मुद्दे पर बातचीत की सहमति तक नहीं बन सक इस क्रम में यह नहीं भूलना चाहिए कि संसदीय कार्रवाई को चलाने में होने वाला खर्च बढ़ता जा रहा है। 1950 के दशक में प्रतिदिन के ₹36000 की तुलना में आज संसदीय कार्रवाई पर प्रत्येक दिन का खर्च 2 करोड़ के नजदीक पहुंच चुका है। अगर जनता की गाढी कमाई से प्राप्त धन का सदुपयोग नहीं होगा तो संसदीय तंत्र के प्रभाव पर प्रश्न चिन्ह का लगना स्वाभाविक है। राजनीतिक दलों के नेताओं को स्थिति की गंभीरता को समझना होगा। उन्हें संसदीय तंत्र पर आम जनता के विश्वास और प्रतिष्ठा को बहाल करना होगा । अगर संसद की प्रतिष्ठा को बहाल करना है तो सबसे पहले दोनों प्रमुख राजनीतिक घटक राजग और इंडिया गठबंधन को अपने विवादों पर अंकुश लगाना होगा। इसके अलावा सभी राजनीतिक पार्टियों को इस बात पर सहमत होना होगा कि वे आपराधिक रिकॉर्ड या छवि वाले लोगों को टिकट नहीं देगी। दागी मंत्रियों को लेकर खबरें संसदीय कार्रवाई एक बेहतर विकल्प मुहैया करा सकती है। संसद में सांसदों को मर्यादा पूर्वक आचरण करना होगा।जनता को यह अधिकार देना होगा कि जो भी सांसद संसद की गरिमा को नुकसान पहुंचाए उसके खिलाफ आचरण समिति में शिकायत की जा सके और उस पर कार्रवाई सुनिश्चित की जा सके। इस क्रम में प्रमुख विपक्षी दल होने के नाते कांग्रेस पार्टी को भी अपने रवैये में सुधार करना चाहिए। जब अटल बिहारी वाजपेई विपक्ष के नेता थे तो वह देशहित के मुद्दों पर तत्कालीन सरकार का दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर समर्थन करते थे। 1971 के भारत पाक युद्ध में जब भारत का प्रदर्शन बढ़िया हुआ तो उन्होंने इंदिरा को दुर्गा माता तक कह दिया था। आज राहुल गांधी ने भी विपक्ष के नेता के तौर पर अटल बिहारी वाजपेई की शालीनताओं और संसदीय नियमों को अपनाना होगा। राजीव गांधी भी 1989 से 1991 तक विपक्ष के नेता रहे थे परंतु उनका शालीन वहश गरिमापूर्ण आचरण आज भी अनुकरणीय है। अब सभी सांसदों से जनता की यही अपेक्षा है कि वह सांसद संसदीय आचरण और नियमों में रहकर भारत की संसद की गरिमा को शीर्ष तक पहुंचने में मदद करें ताकि अमृत काल में भारत का लोकतंत्र दुनिया के लिए मिसाल बन सके।
डॉ दयानंद कादयान