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सामान्यतः यह धारणा है कि आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों में शुष्क तर्क अधिक है; वहाँ भक्ति का अभाव है। पर वास्तविकता यह है कि भक्ति और ईश्वरोपासना से सम्बन्धित अनेक विशद विचार स्वामी जी के ऋग्वेदभाष्य, यजुर्वेदभाष्य, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, पँचमहायज्ञविधि, संस्कारविधि, सत्यार्थप्रकाश आदि सभी ग्रन्थों में यत्र-तत्र पाये जाते है। महर्षि दयानन्द ने भक्तिरूपी अमृत के पिपासुओं को तृप्त करने के लिए एक विशिष्ट ग्रन्थ ‘आर्याभिविनयः’ लिखा है, जिसमें एक सच्चे ईश्वर-भक्त, योगी, ईश्वर-साक्षात्कर्ता और परमेश्वर के परम उपासक-साधक की वाणी से निसृत उद्गार पाये जाते है। आर्यों के इस विशेष (अभि) विनय-संग्रह में महर्षि दयानन्द जी द्वारा १०८ वेदमन्त्रों की भावभीनी भक्तिपरक व्याख्या की गई है।
वस्तुतः दयानन्द वांग्मय में ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना, भक्ति-संन्ध्या से सम्बन्धित पृष्ठों की संख्या सैंकडों में नहीं, सहस्त्रों में है। स्वामी जी के ग्रंन्थों में उनका प्रिय विषय ‘ईश्वर का स्वरूप और उसकी उपासना’ बारम्बार निरूपित है, जिसमें से डॉ. ज्वलन्तकुमार शास्त्री जी के अनुसार महर्षि दयानन्द जी के भक्तिवाद की निम्नलिखित विशेषताएँ प्रकट होती है –
“(i) स्वामी जी ईश्वर के गुण, क्रिया, सामर्थ्य, स्वभाव और वैशिष्ट्यादि के वर्णन करते समय प्रेम-भक्ति और उपासना के सागर में निमग्न हो जाते है। ईश्वर के लिए जितने अधिक विशेषणों का प्रयोग उन्होंने किया, उतने नामों का प्रयोग हिन्दी साहित्य के स्वर्ण काल ‘भक्तिकाल’ के किसी निर्गुण या सगुणमार्गी सन्त ने भी नहीं किया है। ‘आर्याभिविनयः’ के प्रथम विनय में ही ९० विशेषण प्रभु के बतलाये गये है।
(ii) दयानन्दीय भक्तिवाद में अधमोद्धारक परमकृपालु भगवान् के प्रति दैन्य निवेदन, शरणागति, अपना अकिंचनत्व, प्रभु कृपा की बारम्बार याचना, शीघ्र और सद्यः कल्याण कामना की उत्कण्ठा भक्ति-कवियों और सन्तों के सदृश ही है।
(iii) मनुष्य के द्वारा किया गया पाप या दुष्कर्म का फल तो ईश्वर की न्याय-व्यवस्था में अवश्य भोगना पड़ेगा, किन्तु आर्त स्वर में गद्-गद् होकर समर्पण भाव से ईश्वर का स्मरण, जप और चिन्तन करते रहने से हम भविष्य में पाप तथा दुष्कर्म से बच सकेंगे।
(iv) ब्रह्म और जीव में अंशांशीभाव नहीं है। प्रभु सदा-सर्वदा से हमारे लिए माता, पिता, बन्धु, सखा, राजा, न्यायाधीश, स्वामी, परमगुरु, उपास्य, सेव्य, आधार और परम लक्ष्य है, और आगे भी हमेशा हमारा सम्बन्ध प्रभु से इसी प्रकार का रहेगा। जीव का ब्रह्म में कभी लय नहीं होता। जीव और ईश्वर का व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध के समान सेवक-सेव्य, आधेय-आधार, भृत्य-स्वामी, प्रजा-राजा और पुत्र-पिता आदि सम्बन्ध भी है।
(v) एकमेव उपासनीय परमेश्वर को छोड़कर अन्य किसी देवता की प्रतिमा या मूर्ति की उपासना और भक्ति से हमारा उत्थान या कल्याण सम्भव नहीं है। किसी भी ऐतिहासिक महापुरुष को परमेश्वर का स्थानापन्न मानना हमारे अज्ञान का सूचक तो है ही, वेदशास्त्रानुमोदित भी नहीं है। इससे हमारा नैतिक पतन और देश की भी अवनति होती है।
(vi) परमेश्वर से कृपा की याचना या प्रार्थना तभी फलीभूत होगी जब हम अपने सामर्थ्यभर पुरुषार्थ करेंगे। स्वपरिश्रम या पुरुषार्थ के बिना लौकिक या भौतिक समृद्धि तथा आध्यात्मिक उन्नति सम्भव नहीं है। परमेश्वर कभी आलसी, अकर्मण्य और पापकर्मी की सहायता नहीं करता। आत्मिक उन्नति, मुक्ति या सर्व दुःखों से छुटकारा पाने के लिए परमेश्वर की भक्ति, स्तुति, प्रार्थना और उपासना के साथ-साथ योग के आठ अंगों—यम-नियमादि का पालन करना भी अनिवार्य है। योगदर्शन प्रदर्शित अष्टांगमार्ग का सेवन उपासना या भक्ति का ही अंग है।”
(स्रोत: ‘ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज’, भाग-२, पृ. ४४८-४४९, लेखक-सम्पादक: डॉ. ज्वलन्तकुमार शास्त्री, प्रस्तुति: राजेश आर्य)

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