Dr DK Garg

निवेदन : ये लेखमाला 20 भाग में है। इसके लिए सत्यार्थ प्रकाश एवं अन्य वैदिक विद्वानों के द्वारा लिखे गए लेखों की मदद ली गयी है। कृपया अपने विचार बताये और उत्साह वर्धन के लिए शेयर भी करें।

जैन धर्म में संथारा

प्रचलित विस्वास : जैन मत में संथारा लेने का एक प्रचलन है। संथारा को संलेखना भी कहा जाता है. संथारा एक धार्मिक संकल्प है. इसके बाद वह व्यक्ति अन्न त्याग करता है और मृत्यु का सामना करता है. जिसमे व्यक्ति खुद को एक कमरे में बंद कर खाना-पीना त्याग देता है। जैन शास्त्रों में इस तरह की मृत्यु को समाधिमरण, पंडितमरण अथवा संथारा भी कहा जाता है। इसका अर्थ है- जीवन के अंतिम समय में तप-विशेष की आराधना करना। इसे अपश्चिम मारणान्तिक भी कहा गया है।
” महावीर कहते हैं, ‘उपवास करो और भूख से मरो। भूख से मरना एक बहादुरी है ,संकल्प शक्ति है।
महावीर ने कहा है– किसी व्यक्ति की अगर जीवन की आकांक्षा शून्य हो गयी हो तो , वह मृत्यु में प्रवेश कर सकता है। भोजन-पानी छोड़कर मृत्यु का इंतज़ार कर सकता है
जैन धर्म को मानने वाले न्यायमूर्ति टी. के. तुकोल की लिखी किताब ‘संलेखना इज़ नॉट सुसाइड’ में कहा गया है कि संथारा का उद्देश्य आत्मशुद्धि है. इसमें संकल्प लिया जाता है. कर्म के बंधन से मुक्त होकर मोक्ष मिलना मनुष्य जन्म का उद्देश्य होता है. इस उद्देश्य में संथारा से मदद मिलती है.। उस व्यक्ति को मिलने के लिए कई लोग आते हैं और उनका आशीर्वाद लेते हैं. जिसने संथारा लिया है, उस व्यक्ति की मृत्यु को समाधि मृत्यु कहा जाता है. मृत्यु के बाद पार्थिव शरीर को पद्मासन में बैठाया जाता है और जुलूस निकाला जाता है.मुंबई और मुंबई उपनगर में संथारा लेने की वालों की संख्या अधिक है. टाइम्स ऑफ़ इंडिया में 2015 में प्रकाशित एक ख़बर के अनुसार गत सात सालों में मुंबई और मुंबई उपनगर में लगभग 400 संथारा लिए गए। डोंबिवली से नालासोपारा तक एक के बाद एक लोगों ने संथारा लिया. डोंबिवली के रंताशी शामजी सावला ने संथारा लेने के बाद कुछ ही दिनों में उनका निधन (समाधि मृत्यु) हो गयी। राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात इन राज्यों में जैन समुदाय बड़े पैमान में रहता है. यहां भी बहुत से लोग संथारा लेते हैं.
विश्लेषण : 2015 में राजस्थान हाई कोर्ट ने इस याचिका पर फ़ैसला सुनाया. कोर्ट ने संथारा प्रथा को ग़ैर-क़ानूनी बताया. कोर्ट ने ये भी कहा कि अगर धर्म ग्रंथ में ये कहा भी गया है कि संथारा से मोक्ष की प्राप्ति होती है तो भी यह मोक्ष प्राप्ति का सिर्फ़ एक ही मार्ग नहीं है. यह प्रथा जैन धर्म के लिए अनिवार्य नहीं है. ऐसा कहते हुए राजस्थान कोर्ट ने संथारा पर प्रतिबंध लगा दिया था कि संथारा लेने के लिए प्रेरणा देने वाले या फिर उस व्यक्ति का समर्थन करने वालों को आईपीसी की धारा 306 के अनुसार दोषी माना जाएगा.लेकिन हाई कोर्ट के इस फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट ने स्थगित करते हुए संथारा की प्रथा को जारी रखने की इजाज़त दी है.
संथारा को लेकर अनेको प्रश्न उठते है। जो व्यक्ति संथारा लेता है ,कुछ ही दिनों में इतना कमजोर हो जाता है की वह बोलने और किसी भी प्रतिक्रिया करने में असमर्थ होता है ,उसको एक कमरे में बंद कर दिया और उसकी आवाज कोई सुनने वाला नहीं , वह भूख से तड़पता रहता है और बाहर के शोरगुल में उसका दर्द दब जाता है।आप एक बार जाकर देखें सच सामने आ जायेगा की ये हटर्य है या आत्म हत्या ।
जैन समाज में जबरन भूखे रहने वाले को तपस्वी १००८/१०८ की उपाधि देकर पूजा जाता है। और उसके दर्शन के लिए भक्तो की भीड़ लग जाती है। सच ये है की भूख की तड़प ही संथारा लेने वाले को मृत्यु के निकट ले जाती है और वह कर्तव्यहीन हो जाता है।
यदि भूखे रहकर कोई यदि स्वयं को योगी सिद्ध करे तो ये अज्ञानता है। ये शरीर का शोषण है , ईश्वर द्वारा दी गई इन्द्रियों का दुरुपयोग ,ईश्वर के आज्ञा का उलंघन है।इसमें प्रसिद्धी की लालसा ज्यादा दिखती है। भूखे रहना कोई तप नहीं है बल्कि अपनी इंद्रियों को अकारण कष्ट देना है।कर्म से भागना है। मानव जीवन कर्म करने के लिए मिला है। इसलिए मनुष्य जीवन को कर्म योनि कहते है। यजुर्वेद में कर्म करते हुए १०० वर्ष तक जीने के लिए कहा है –
कर्म करते हुए कैसे तप करें ?
कुर्वन्नेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।-यजुर्वेद ४॰.२
इस संसार में धर्मयुक्त निष्काम कर्मों को करते हुए सौ वर्ष तक जीवन जीने की इच्छा करनी चाहिए। इस प्रकार जो धर्मयुक्त कर्मों में लगा रहता है, वह अधर्मयुक्त कर्मों में अपने को नहीं लगाता।’
कर्म की महत्ता सभी धर्मों, मतों में पहचानी गई है। मनुष्य को चाहिए कि वह कर्म करता हुआ ही जीना चाहे। यदि वह कर्म नहीं करता है तो उसे जीवित रहने का अधिकार नहीं है। यह जीवन कर्म करने के लिए ही दिया गया है।..सर्वथा ‘मम’ ‘अहं’ को छोड़कर (तूं) कर्म करेगा तो तेरे ऐसे कर्म कभी बन्धनकारक नहीं होंगे। ऐसे निष्काम कर्मों का कभी तुझ नर में लेप नहीं होगा।’

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