जीवात्मा शरीर में कहां रहती है ? भाग 9
नवीं किस्त
गतांक से आगे।
बृहद्राण्यक उपनिषद के आधार पर ,
प्रष्ठ संख्या 1099
“यह स्पष्ट है कि शरीर जो जीव का क्रीडा स्थल है, वही देखा जाता है। क्रीड़क( क्रीडा करने वाले अथवा खेल करने वाले) जीव को कोई नहीं देख सकता ,क्योंकि वह निराकार और अदृश्य है।
सोते हुए व्यक्ति को जब वह गाढ निद्रा में हो अचानक नहीं जगाना चाहिए क्योंकि जीव अपनी चेतना मय शक्ति को सपना अवस्था में स्थान विशेष पर एकत्र करके ठहरा करता है। अचानक जागने से जहां जीव की चेतनामय शक्ति नहीं पहुंच पाती शरीर के उन अवयवों में कठिन रोग हो जाते हैं।”
इससे पूर्व की किस्तों में हम पढ़ चुके हैं की निद्रा में जीव अर्थात आत्मा हृदय से निकलने वाली नाडी में अथवा हृदय आकाश में निवास करती है ।उपरोक्त पैरा को पढ़ने के पश्चात भी यह स्पष्ट हो गया कि सपना अवस्था में स्थान विशेष की बात कही गई है ,जिस समय अपनी सारी इंद्रियों की चेतना रूपी शक्ति को जीव इकट्ठा करके विश्राम किया करता है, वह स्थान हृदयाकाश है।
इसको और स्पष्ट करते हुए पृष्ठ संख्या 1100 पर निम्न प्रकार का उल्लेख आता है ।
“स्वप्नवस्था में रहता हुआ जीव भले बुरे को स्वप्न के रूप में देखकर सुषुप्तावस्था को प्राप्त होता है और उस अवस्था में कुछ काल तक रहने के बाद जीव जिस सपना अवस्था से गया था उसी को लौट आया करता है। स्वप्न में भलाई -बुराई जो कुछ वह देखता अथवा पाप -पुण्य जो कुछ वह करता है उससे लिप्त नहीं हुआ करता ,क्योंकि स्वप्न में जीव स्वयं ज्योति होता है और वह जीव असंग भी है ।इसके अतिरिक्त स्वप्न के कृत कर्म जागृत अवस्था के लिए कर्मों की छाया होते हैं। स्वतंत्र कर्म नहीं होते हैं ।इसलिए भी यह जीव उनमें नहीं फंसता।”
अर्थात सपने में कोई सच्चाई नहीं होती। आत्मा उसमें लिप्त नहीं होता। क्योंकि आत्मा की किसी में आसक्ति नहीं इसलिए उसको असंग कहा गया है।
परंतु सपने जो हमको आते हैं वो जागृत अवस्था के समय वास्तविक नहीं हो सकते।
सपने जो हमको आते हैं वह इस योनि में अथवा चार अरब 32 करोड़ की जो एक सर्ग की आयु है, जिसमें से अभी करीब दो अरब वर्ष व्यतीत होने जा रहे हैं, इन दो अरब वर्षों में किस-किस जन्म में कहां-कहां किन-किन स्थानों पर रह चुके हैं उनके भी सपने आ जाया करते हैं। जो बड़े अजीब दृश्य होते हैं, वह सपने में दिखाई पड़ते हैं ।वह इस जीवन के नहीं वह आपके पिछले जीवन के भी हो सकते हैं क्योंकि आपके मन पर पिछले जन्मों के संस्कार पड़े रहते हैं। उनकी याद आती रहती है वह सपने में आते हैं। आत्मा के साथ इस सर्ग के लिए मिले हुए मन की आयु भी 4 अरब 32 करोड़ वर्ष की है। चार अरब 32 करोड़ वर्ष के बाद मन मरता है। फिर वह इस आत्मा के साथ नहीं रहता। क्योंकि मन प्रकृति जन्य है। प्रलय अवस्था में अथवा मोक्ष की अवस्था में यह मन जो केवल चार अरब 32 करोड़ वर्ष के लिए इस आत्मा के साथ मिला था ,वह छूट जाता है।
लेकिन हम लोग देखते हैं कि रोज मनुष्य कहते हैं मन है कि मानता नहीं ।यह मन कभी बूढ़ा नहीं होता। यह कभी मन मरता नहीं है। हम मन को वश में करने का प्रयास करते हैं इत्यादि।
अरे ! मन कहां मरेगा?
मन की आयु तो चार अरब 32 करोड़ वर्ष है। अभी तो वह युवावस्था में है ।अभी नहीं मर सकता ।
हां जब करीब चार अरब वर्ष बीत चुके होंगे तब कहीं मन मरने की तरफ अग्रसर होगा।
“जैसे एक बड़ा मगरमच्छ नदी के दोनों किनारो की ओर आता जाता रहता है, इसी प्रकार यह जीव स्वप्न और जागृत दोनों अवस्थाओं को प्राप्त होता रहता है”
(देखें प्रष्ठ संख्या 1103)
(इससे अग्रिम प्रष्ठ 1104 पर देखें)
“अविद्या के कारण ही स्वप्नदृष्टा सपने में देखा करता है कि कोई उसे मार रहा है ,वश में कर रहा है इत्यादि।”
क्रमश:
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
ग्रेटर नोएडा
चलभाष
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