भारत की 18 लोकसभाओं के चुनाव और उनका संक्षिप्त इतिहास, भाग 15 ,15वीं लोकसभा – 2009 – 2014

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डॉ मनमोहन सिंह ऐसे प्रधानमंत्री थे जो बौद्धिक रूप से तो योग्य थे पर राजनीतिक रूप से पूर्णतया अयोग्य सिद्ध हो चुके थे। यही कारण था कि वह अपनी लोकप्रियता कभी बना ही नहीं पाए। अपने पहले कार्यकाल में डॉ मनमोहन सिंह कुछ सीमा तक अपनी स्थिति को बेहतर बनाए रखने में सफल रहे थे। इसका लाभ कांग्रेस को यह हुआ कि जब 15वीं लोकसभा के चुनाव आए तो लोगों ने पिछले आम चुनाव की अपेक्षा कांग्रेस को थोड़ा बहुत और अधिक समर्थन देने पर विचार किया।

15वीं लोकसभा के चुनाव के आंकड़े

15वीं लोकसभा के चुनावों को पांच चरणों में संपन्न कराया गया था। इसके लिए 16 , 23, 30 अप्रैल 2009 और 7 व 13 मई 2009 को मतदान हुआ था। उस समय देश के कुल मतदाताओं की संख्या 71 करोड़ 40 लाख थी। 58.21% लोगों ने चुनाव में अपना मतदान किया था। विकिपीडिया के अनुसार चुनाव की प्रक्रिया को शांतिपूर्ण संपन्न कराने के लिए कुल मतदान केंद्रों की संख्या 8 लाख 28 हजार 8 सौ 4 थी। इस चुनाव को शांतिपूर्वक संपन्न कराने के लिए लगभग एक करोड़ कर्मचारियों और पुलिसकर्मियों को नियुक्त किया गया था। 46.9 लाख मतदानकर्मियों ने मतदान की प्रक्रिया में भाग लिया। निर्वाचकों की सुविधा के लिए 20.9 लाख इलेक्‍ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों का प्रयोग किया गया, 363 राजनीतिक दलों के 8,070 उम्‍मीदवार चुनाव में खड़े हुए तथा इस पूरी गतिविधि में 846.6 करोड़ रुपये खर्च किये गये।16 मई 2009 को मतगणना और चुनाव परिणामों की घोषणा की गई।

चुनाव में कांग्रेस को मिला लाभ

इस चुनाव में 207 सीटों पर कांग्रेस की विजय हुई। जबकि भाजपा को 116 सीटों पर संतोष करना पड़ा। सपा को 22, बसपा को 21, जदयू को 20, तृण मूल कांग्रेस को 19, डी0एम0के0 पार्टी को 18 ,बीजू जनता दल को 14 और शिवसेना को 11 सीटों पर सफलता मिली। इन आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि इस बार भी लोगों ने त्रिशंकु संसद का निर्माण किया। खंडित जनादेश ने स्पष्ट किया कि लोग किसी ऐसे व्यक्तित्व की खोज में थे जो देश को नई दिशा दे सके, उनके लिए डॉ. मनमोहन सिंह काम चलाऊ प्रधानमंत्री थे । वैसे डॉ. मनमोहन सिंह जी के संबंध में यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि उन्हें उनकी अपनी पार्टी कांग्रेस ने भी कामचलाऊ प्रधानमंत्री के रूप में ही नियुक्ति दी थी। कांग्रेस के नेता उन्हें इसी प्रकार के एक कमजोर प्रधानमंत्री के रूप में देखते थे। वे उन्हें एक शक्तिशाली प्रधानमंत्री बनने देना ही नहीं चाहते थे ।

काम चलाऊ पीएम थे डॉ मनमोहन सिंह

डॉक्टर मनमोहन सिंह भी थे कि जो स्वयं भी कामचलाऊ रहने में ही अपने आप को प्रसन्न अनुभव करते थे अर्थात शक्तिशाली होना वह स्वयं भी नहीं चाहते थे। वे जानते थे कि यदि उन्होंने अपने आप को शक्तिशाली बनाने की चेष्टा की तो उनका हश्र क्या हो सकता है ? स्वाधीनता प्राप्ति के बाद का यह काल राजनीतिक क्षेत्र में कई प्रकार के उदासीन भावों का आवाहन कर रहा था। सबसे बड़ी खोज नेता की थी। देश के लोग कामचलाऊ नेताओं से काम चला रहे थे । यद्यपि नेताओं को इस बात का बोध नहीं था कि जनता उन्हें केवल कामचलाऊ नेता के रूप में देख रही है। 

16 मई को 15वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव की मतगणना व चुनाव परिणामों की घोषणा हुई। जिसमें कुल मिलाकर लोगों ने एक बार फिर कांग्रेस को अपना समर्थन व्यक्त किया । यद्यपि कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था, पर फिर भी जिस प्रकार वह सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में लोकसभा में उभर कर आई , उससे यह स्पष्ट था कि सरकार बनाने का प्रथम अवसर उसको ही मिलना चाहिए था। फलस्वरूप सबसे बड़ी पार्टी होने के कारण देश की तत्कालीन पहली महिला राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने कांग्रेस को एक बार फिर सरकार बनाने के लिए निमंत्रण दिया। जिस समय 2004 में डॉ. मनमोहन सिंह देश के पहली बार 13वें प्रधानमंत्री बने थे, वह तब भी लोकसभा के सदस्य नहीं थे, जब 22 मई 2009 को वह दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री बने तो उस समय भी वह लोकसभा के सदस्य नहीं थे। राज्य सभा के सदस्य के रूप में 10 वर्ष तक देश पर शासन करने वाले वह देश के अब तक के अकेले प्रधानमंत्री रहे। वह 1991 से भारतीय संसद में राज्यसभा के सदस्य के रूप में ही उपस्थित रहे । राज्यसभा में वह 1998 से 2004 तक विपक्ष के नेता के रूप में भी काम करते रहे। यह एक संयोग ही था कि जब वह पहली बार देश के प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने तब भी 22 मई 2004 को ही शपथ ग्रहण की थी।

पतन की ओर बढ़े डॉ मनमोहन सिंह

  दूसरी बार का कार्यकाल डॉ. मनमोहन सिंह के लिए पतन का कारण बना। इसमें दो मत नहीं हैं कि उन्होंने आर्थिक क्षेत्र में देश की अप्रतिम सेवा की। उनकी आधार लिंक योजना को संयुक्त राष्ट्र ने भी सराहा था। इसके उपरांत भी अन्ना हजारे से जिस प्रकार वह निपटे वह उनके लिए घातक सिद्ध हुआ।  कांग्रेस के नेता राहुल गांधी भी नहीं चाहते थे कि अन्ना हजारे के विरुद्ध किसी प्रकार की कठोर कार्यवाही की जाए। उनकी इच्छा थी कि अन्ना हजारे से विनम्रता के साथ निपटना चाहिए।
  डॉ मनमोहन सिंह के लाचार और लचर नेतृत्व के कारण उनके शासनकाल में अनेक प्रकार के घोटाले हुए। जब शासक दुर्बल होता है तो इस प्रकार की घटनाएं स्वाभाविक रूप से ही बढ़ जाया करती हैं। इन घोटालों में कोयला खनन घोटाला, आदर्श सोसाइटी घोटाला, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला, 2G स्पेक्ट्रम घोटाला जैसे घोटाले महत्वपूर्ण थे। एक प्रकार से उनके शासनकाल में घोटालों और भ्रष्टाचार की बाढ़ सी आ गई थी।  सर्वत्र घोटालों और भ्रष्टाचार का ही बोलबाला था। वह स्वयं भी इस प्रकार की स्थिति के सामने अपने आप को असहाय अनुभव करने लगे थे।
 उनके शासनकाल में संसद में कार्य की गति भी प्रभावित हुई। सांसद का विधायी कार्य बाधित हुआ और बहुत कम काम ही संसद में हो पाया। महंगाई बेलगाम हो गई थी। महंगाई दर 7% के लगभग बनी रही। उन पर सीबीआई का दुरुपयोग करने के भी आरोप लगे। यहां तक कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सी0बी0आई0 को 'पिंजरे में कैद तोता' की उपाधि दी। प्रधानमंत्री ने 'मनरेगा' को बड़े मनोयोग से चलाने की इच्छा दिखाई थी, पर कुछ समय पश्चात ही उनकी यह योजना भी फुस्स हो गई।  इन सब के पीछे उनका लचर नेतृत्व ही उत्तरदायी था। देश के भीतर अनेक प्रकार की हिंसक घटनाएं हो रही थीं। आतंकवादी जहां चाहें, जो कुछ कर सकते थे। जिससे आंतरिक सुरक्षा की समस्या सर्वाधिक विकराल रूप धारण कर गई थी। प्रधानमंत्री नेहरू गांधी परिवार के सामने तो हाथ बांधे खड़े ही थे , देश की इन विकराल समस्याओं के सामने भी हाथ बांधे खड़े हुए ही दिखाई दिए। इसी का परिणाम था कि उस समय महिलाओं पर भी अनेक प्रकार के अत्याचार हो रहे थे, यौन अपराध की घटनाएं बढ़ती जा रही थीं। अपने लिए चारों ओर खड़ी इन चुनौतियों से घिरे डॉ.मनमोहन सिंह लाचार, असहाय, मजबूर , बेबस आदि सब कुछ दिखाई दे रहे थे पर एक मजबूत प्रधानमंत्री कहीं से भी दिखाई नहीं देते थे। वह सरदार होकर भी बेअसरदार सिद्ध हो चुके थे।

तब ‘इंडिया टुडे’ ने लिखा था…

उनकी इस प्रकार की अवस्था का चित्रण करते हुए इंडिया टुडे ने लिखा था 'स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त की सुबह, दिल्ली में मूसलाधार बारिश हो रही थी। सुबह सात बजे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 17वीं सदी में बनी ऐतिहासिक धरोहर, लाल किला, की प्राचीर पर खड़े होकर बुलेट प्रुफ कांच के केबिन से राष्ट्रीय ध्वज लहराते हुए मौजूद जवानों तथा नागरिकों को सलामी दे रहे थे। परेड देखने के लिए आए स्कूली बच्चे, छतरियों के अपार समंदर के बीच हुड़दंग मचा रहे थे, मानो किसी मेले में आए हों। सेना और अर्धसैनिक बल के जवान बारिश में तरबतर, गीली सड़क पर कदमताल कर रहे थे।
 यह असामान्य रूप से एक उदास स्वतंत्रता दिवस था, इस उदासी का सबब महज मौसम का बिगड़ा हुआ मिजाज ही नहीं था बल्कि पिछले सात वर्षों में, अपनी सरकार की सफलताओं का कच्चा-चिट्ठा पेश करने के बाद, सिंह ने अपने आठवें स्वतंत्रता दिवस भाषण का अधिकांश समय देश के सामने खड़े संकटों को गिनवाने में बिताया। हाल ही में अंजाम दिया गया मुंबई का आतंकवादी हमला; लगातार जारी “नक्सलवादी चुनौतियां”; मुद्रास्फीति की दर और खाद्य पदार्थों की आसमान छूती कीमतें; भूमि अधिग्रहण द्वारा जनित तनावपूर्ण स्थितियां और इन सबसे बढ़कर, “भ्रष्टाचार की समस्या” – “एक ऐसी मुश्किल जिसके लिए किसी सरकार के पास कोई जादू की छड़ी मौजूद नहीं है।”

गुहा ने कहा, “मनमोहन सिंह बुद्धिमान, ईमानदार हैं और उनके पास सरकार में काम करने का चार दशकों से ज्यादा का अनुभव है, लेकिन दब्बूपन, लापरवाही और बौद्धिक बेईमानी उन्हें हमारे इतिहास का एक दुखद किरदार बनाकर पेश करेगी।”
भाषण के पश्चात सिंह को 24, अकबर रोड स्थित कांग्रेस मुख्यालय ले जाया गया, जहां पार्टी का अपना ध्वजारोहण कार्यक्रम चल रहा था. वैसे तो परंपरा के अनुरूप, कांग्रेस अध्यक्ष को ध्वजारोहण समारोह का संचालन करना होता है, लेकिन चूंकि पार्टी अध्यक्षा सोनिया गांधी उस समय अमेरिका के अस्पताल में अपने इलाज के सिलसिले में भर्ती थीं, इसलिए यह उम्मीद की जा रही थी कि राहुल गांधी उनकी जगह ध्वज लहराएंगे. इसके बावजूद, उन्होंने यह कार्य वरिष्ठ कांग्रेसी नेता, मोतीलाल वोहरा के जिम्मे सौंप दिया, और पास खड़े सिंह तथा अन्य वरिष्ठ नेतागण ध्वज को सलामी देते हुए, झंडा ऊंचा रहे हमारा, विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, गीत गाने लगे. अपनी ट्रेडमार्क नीली पगड़ी में मनमोहन सिंह और गृहमंत्री पी. चिदंबरम के अलावा सभी ने सरों पर गांधी टोपी पहन रखी थी – जो कभी स्वतंत्रता आंदोलन चलाने वाली इस पार्टी का प्रतीक चिन्ह हुआ करती थी, लेकिन यह अभी हाल ही में अन्ना हजारे का नवीनतम और सबसे प्रचलित प्रतीक बनकर उभरी थी।’
…..लोक सभा में, विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने तीखा प्रहार करते हुए कहा, “वैसे तो हमारे प्रधानमंत्री बोलते नहीं हैं, और बोलते हैं, तो कोई उनकी सुनता नहीं है।”

सर्वत्र घोटाले ही घोटाले

2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला डॉ मनमोहन सिंह के शासनकाल में हुआ एक ऐसा घोटाला था जो कि स्वतंत्र भारत का सबसे बड़ा वित्तीय घोटाला माना जाता है। जिस व्यक्ति ने पी0वी0 नरसिम्हाराव का वित्त मंत्री रहते हुए देश की अर्थव्यवस्था को  पटरी पर लाने में सफलता प्राप्त की थी, वह व्यक्ति अपने दुर्बल नेतृत्व के कारण अनेक घोटालों में घिर कर रह गया। जिसने सारे देश को आर्थिक गिरावट के गहन गहवर से बाहर निकालने में सफलता प्राप्त की थी, जब वह व्यक्ति स्वयं देश का मुखिया बना तो स्वयं ही गड्ढे में जा घिरा। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने 2G स्पेक्ट्रम घोटाले के बारे में स्पष्ट किया कि इसमें 176000 करोड रुपए का घपला हुआ है। इस घोटाले को लेकर विपक्ष ने अपने दायित्व का निर्वाह करते हुए संसद की कार्यवाही को बाधित किया । अनेक नेताओं ने अनेक सभाओं का आयोजन कर सरकार पर हमला बोलना आरंभ किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि मनमोहन सरकार में संचार मंत्री रहे ए0 राजा को उस समय अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ा।

2जी स्पेक्ट्रम आवण्टन को लेकर संचार मन्त्री ए0 राजा की नियुक्ति के सम्बन्ध में नीरा राडिया, पत्रकारों, नेताओं और उद्योगपतियों से बातचीत के बाद डॉ0 सिंह की सरकार की समस्याओं में वृद्धि हुई। लोगों में डॉ मनमोहन सिंह के प्रति सम्मान का भाव भी कम हुआ।
डॉक्टर सिंह के शासनकाल में आई घोटालों की बाढ़ के कारण कोयला आवंटन के नाम पर भी उस समय लगभग 26 लाख करोड़ रुपए की चपत देश के खजाने को लगी।

‘बेअसरदार सरदार’

डॉ. सिंह को उस समय उनके विरोधी ‘बेअसरदार सरदार’ के नाम से पुकारने लगे थे। सचमुच उन्होंने अपने आप को सरदार ( नेता ) के रूप में ना दिखा कर ‘बेअसरदार’ के रूप में ही प्रस्तुत किया। उनकी यही दुर्बलता उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी दुर्बलता सिद्ध हुई।
विशेषज्ञों ने इस संबंध में स्पष्ट किया है कि ‘इस महाघोटाले का राज है कोयले का कैप्टिव ब्लॉक, जिसमें निजी क्षेत्र को उनकी मर्जी के मुताबिक ब्लॉक आवंटित कर दिया गया। इस कैप्टिव ब्लॉक नीति का फायदा हिंडाल्को, जेपी पावर, जिंदल पावर, जीवीके पावर और एस्सार आदि जैसी कंपनियों ने जोरदार तरीके से उठाया। यह नीति खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की दिमाग की उपज थी।’
‘एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका’ के अनुसार ‘मई 2009 के संसदीय चुनावों में, कांग्रेस ने विधायिका में अपनी सीटों की संख्या में वृद्धि की, और सिंह ने दूसरी बार प्रधानमंत्री के रूप में पद संभाला। हालाँकि , भारत की आर्थिक वृद्धि धीमी होने और कांग्रेस पार्टी के अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों ने सिंह के दूसरे कार्यकाल के दौरान शासन में बाधा उत्पन्न की, और मतदान करने वाली आबादी के बीच पार्टी की लोकप्रियता में गिरावट आई। 2014 की शुरुआत में सिंह ने घोषणा की कि वह अगले वसंत में होने वाले लोकसभा चुनाव में प्रधान मंत्री के रूप में तीसरे कार्यकाल के लिए प्रयास नहीं करेंगे। उन्होंने 26 मई को पद छोड़ दिया, उसी दिन जिस दिन भाजपा के नरेंद्र मोदी ने प्रधान मंत्री के रूप में शपथ ली थी।’

सरकार पूरी तरह लड़खड़ा गई

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार ने 15वीं लोकसभा के कार्यकाल में शिक्षा का अधिकार अधिनियम और आंध्र प्रदेश के पुनर्गठन सहित कई कानून पारित किए। इसके उपरांत भी देश में आर्थिक मंदी और भ्रष्टाचार के घोटाले इतने अधिक हुए कि सरकार पूरी तरह लड़खड़ा गई। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के प्रति लोगों में सम्मान का भाव होते हुए भी उन्हें देश का प्रधानमंत्री देखने के लिए उत्सुकता पूर्णतया समाप्त हो गई।
2009 में संपन्न हुए 15 वें लोकसभा चुनाव के समय लोकसभा के साथ-साथ आंध्रप्रदेश, उड़ीसा और सिक्किम विधानसभा के लिए भी चुनाव कराए जाने की घोषणा की गई थी। इस बार के लोकसभा चुनाव पर 1114.4 करोड रुपए खर्च हुए थे। चुनाव के पश्चात जब लोकसभा का गठन हुआ तो जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार जो कि सासाराम( बिहार)
से कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा सदस्य चुनकर आई थीं, लोकसभा की पहली महिला अध्यक्ष बनाई गईं। खूंटी झारखंड से भाजपा के सांसद बनकर सदन में पहुंचे करिया मुंडा को उपाध्यक्ष बनाया गया। प्रणव मुखर्जी (भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जंगीपुर, पश्चिम बंगाल) को कांग्रेस की ओर से सदन का नेता चुना गया। जबकि सुषमा स्वराज (भारतीय जनता पार्टी, विदिशा, मध्य प्रदेश) को विपक्ष की नेता बनाया गया।
श्री एन. गोपालस्वामी (30 जून 2006 से 20 अप्रैल 2009) और श्री नवीन बी. चावला ( 21 अप्रैल 2009 से 29 जुलाई 2010) 15वीं लोकसभा के चुनाव के समय भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त थे।

डॉ राकेश कुमार आर्य

(लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं।)

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