आर्यों का आदर्श जीवन
आर्य-जीवन
(7 April विश्व स्वास्थ्य दिवस “World Health Day” पर विशेष रूप से प्रकाशित)
लेखक- पं० राजाराम प्रोफेसर
प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ
उठने का समय और पहला कर्तव्य
नाम नाम्ना जोहवीति पुरा सूर्यात् पुरोषस:।
यदज: प्रथमं संबभृव स ह तत् स्वराज्य मियाय यस्मान्नन्यत् परमस्ति भृतम्।। -अथर्व० १०/७/३१
सूर्य से पहले और उषा से पहले नाम नाम से उसे बार-बार पुकारे, जो अजन्मा है, (अतएव इस जगत् से) पहले प्रकट है, वह निःसन्देह जगत् प्रसिद्ध स्वराज्य को पाये हुए है, जिससे बढ़कर कोई सत्ता नहीं है।
उषा के फूटने का दृश्य
उषा के पहले उठे हो, तो अब उषा के दृश्य को वैदिक दृष्टि से देखो। वेद में जो दिव्य दृश्य वर्णन किये हैं, वे निरे दृश्य नहीं किन्तु उनमें परमेश्वर की महिमा और उस दृश्य के द्वारा हमारे ऊपर होने वाले उपकार दिखलाना अभिप्रेत होता है, सो तुम इसी रूप में वैदिक दृश्यों को देखो-
इदं श्रेष्ठं ज्योतिषां ज्योतिरागाच्चित्र: प्रकेतो अजनिष्ठ विभ्वा।
यथा प्रसूता सवितु: सवाय एवा रात्र्युषसे योनिमारैक्।। -ऋ० १/११३/१
यह ज्योतियों में श्रेष्ठ ज्योति आई है, यह रंगीला दृश्य (आकाश में) फैलता जा रहा है। जैसे उषा सूर्य की प्रवृत्ति के लिए स्थान छोड़ देती है, वैसे रात्रि ने उषा के लिए स्थान छोड़ दिया है।
इससे आर्यजीवन का यह अंग भी दिखला दिया है, कि एक आर्य को अपना निवास वहां रखना चाहिए, जहां दिव्य दृश्य उसके सम्मुख आते रहें। आजकल के शहरी पर जहां ये दृश्य देखने को नहीं मिलते, आर्यजीवन के विरुद्ध है। इन दृश्यों को देखने से प्रसन्नता बढ़ती है, स्वास्थ्य बढ़ता है, प्रसन्न वदन रहने का स्वभाव बनता है, और ईश्वर की महिमा से पूरित इन दृश्यों को देखने से आत्मबल बढ़ता है, और ये सभी बातें लोक में कार्यसिद्धि का मूल हुआ करती हैं।
पृथूरथो दक्षिणाया अयोज्यैनं देवासो अमृतासोअस्थु:।
कृष्णादुदस्थादर्या विहाया श्चिकित्सन्ती मानुषाय क्षयाय।। -ऋ० १/१२३/१
उषा का विशाल रथ जुड़ गया है, इस पर मरण रहित देवता (किरणें) सवार हुए हैं, रानी उषा मनुष्य समुदाय के लिए चिकित्सा करती हुई काले आकाश से उठ खड़ी है।
इससे बोधन किया है, कि सवेरे उठने वाले नीरोग रहते हैं, और यह, कि तमोमय स्थान रोग का मूल होते हैं, उनकी चिकित्सा यही है, कि वहां खुले प्रकाश के द्वार खोल दो।
गृहं गृहमहना यात्यच्छा दिवे दिवे अधिनामा दधाना।
सिषासन्ती द्योतना शश्वदागादग्र मग्रमित् भजते वसूनाम।। -ऋ० १/१२३/४
उषा दिन पर दिन सवाया रूप धरती हुई घर-घर की ओर जाती है, यह कुछ देना चाहती हुई चमकती हुई सदा आती है, और अपने कोषों में से आगे-आगे बांटती ही जाती है।
श्लाघनीय जीवन यह है, कि मनुष्य का मस्तक सदा खिला रहे, चेहरा चमकता रहे, दूसरों की भलाई की इच्छा उसमें बनी रहे, अपना ऐश्वर्य बढ़ाता रहे, और बांटता रहे।
सह वामेन न उषो व्युच्छा दुहितर्दिव:।
सह द्युम्नेन बृहतो विभावरि राया देवी दास्वती।। -ऋ० १/४८/१
हे उषा हे द्यौ की कन्या हमारे लिए सुहावने मनोरम दृश्य के साथ खिल, हे प्रकाश से भरी हुई बड़े यश, तेज और महत्व के साथ खिल, हे देवि दानशीला बनकर ऐश्वर्य के साथ खिल।
तेरा आगमन हमारे लिए यश, तेज, महत्त्व और ऐश्वर्य का लानेवाला हो, अर्थात् हम इस नए दिन को यश, तेज, महत्त्व और ऐश्वर्य की प्राप्ति से सफल बनावें। ऐसा चिन्तन करने से मनुष्य उद्योगी और धर्मशील बनता है।
उवासोषा उच्छाच्च नु देवी जीरा रथानाम्।
येअस्या आचरणेषु दध्रिरे समुद्रे न श्रवस्यव:।। -ऋ० १/४८/३
उषा अन्धकार को सदा मिटाती आई है, वह अब फिर खिले, यह वह देवी है, जो उनके रथों को आगे बढ़ाते है, जो इसके आने पर सन्नद्ध हो जाते हैं, जैसे धन और यश की कामना वाले समुद्र में (जहाज ले जाने को तैयार होते हैं)।
श्लाघ्य जीवन वह है, जो सदा अन्धकार के मिटाने में प्रवृत्त रहे। जो लोग उषा का प्रकाश आते ही काम करने के लिए कटिबद्ध हो जाते हैं, उनके रथ इस लोक में आगे बढ़ते हैं, अर्थात् जीवन की इस घुड़दौड़ में वही सबसे आगे रहते हैं और दूसरे उसकी पहुंच को नहीं पहुंच सकते, जो इस अमृत बेले सोए पड़े रहते हैं।
“जैसे धन और यश की कामना वाले समुद्र में” इस उपमा से यह दिखलाया है, कि उषा के समय जागने वालों में उत्साह और साहस बढ़ते हैं, उत्साही और साहसी ही धन और यश की कामना से समुद्रों के पार पहुंचते हैं। इससे समुद्र में से, वा समुद्र के पार से धन लाने और यश के झंडे गाड़ने को एक श्लाघ्य कर्म बतलाया है। अतएव यह निःसन्देह है, कि समुद्रयात्रा का निषेध जीवन की इस महिमा को भूल जाने पर हुआ है।
इस प्रकार पुरुष नेत्रों से परमेश्वर की महिमा देखता हुआ और मन में शुभ संकल्प लाता हुआ नए दिन का स्वागत करे।
आरोग्य, बल और आयु
हर एक आर्य का धर्म है, कि अपने शरीर और इन्द्रियों की रक्षा और पालन-पोषण ऐसी सावधानी से करे, कि सदा स्वस्थ रहे, बलवान् और आयुष्मान् हो, और अपने जीवन में इस वैदिक आदर्श को प्रत्यक्ष दिखला सके कि-
वाङम आसन् नसो: प्राणश्चक्षुरक्ष्णो: श्रोत्रं कर्णयो:।
अपलिता: केशा अशोणा दन्ता बहु बाव्होर्बलम्।।१।।
ऊर्वोरोजो जङ्घयोर्जव: पादयो: प्रतिष्ठा।
अरिष्टानि मे सर्वात्मना निश्रृष्ट:।।२।। -अथर्व० १९/६०
मेरे मुख में वाणी है (मुझमें अपने मन के भाव प्रकट करने की शक्ति है, और मुझे अपने भाव प्रकट करने में किसी का भय नहीं है) मेरे नथनों में प्राण है (मैं जीता जागता हूं, अतएव जीवन के लक्षण दिखला सकता हूं) मेरे नेत्रों में दृष्टि है और कानों में श्रुति है (मैं यथार्थ देखता हूं और यथार्थ सुनता हूं) मेरे बाल श्वेत नहीं हैं, मेरे दांत लाल नहीं हैं, (न उनसे रुधिर बहता है न मैले हैं) मेरी भुजाओं में बड़ा बल है।।
मेरी रानों में शक्ति है, और मेरी जंघों में वेग है, मेरे दोनों पाओं में दृढ़ खड़ा होने की शक्ति है (मैं इस जीवन संग्राम में अपने पाओं पर खड़ा हूं, और उठकर खड़ा हूं) मेरे सारे अंग पूर्ण और नीरोग है, मेरा आत्मा परिपक्व है (बलवान् और तेजस्वी) है।
तनूस्तन्वां मे भवेदन्त: सर्वमायु रशीय।
स्योन मासीद पुरु पृणस्व पवमान: स्वर्गे।। -अथर्व० १९/६१
मेरे शरीर के अन्दर फैलने वाली शक्ति हो, मैं पूर्ण आयु भोगूँ। (इसलिए हे मेरे आत्मा) तू स्वर्ग में अपने आपको पवित्र करता हुआ अनुकूल स्थान में बैठ और अपने आपको सर्वांग में पूर्ण बना।
आरोग्य बल और आयु के लिए प्रार्थनाएं (अर्थात् ईश्वर से सहायता मांगना)
तनूपा अग्नेसि तन्वं मे पाह्या युर्दा अग्ने स्यायुर्मे देहि वर्चोदा अग्नेसि वर्चो मे देहि।
अग्ने यन्मे तन्वा ऊनं तन्म आपृण।। -यजु० ३/१७
हे अग्ने! तू शरीर का रक्षक है, मेरे शरीर की रक्षा कर हे अग्ने! तू आयु का देनेवाला है, मुझे आयु दे, हे अग्ने तू कान्ति का देनेवाला है, मुझे कान्ति दे, हे अग्ने जो मेरे शरीर की ऊनता
है, वह मेरी पूर्ण कर दे।
तेजोसि तेजो मयि धेहि वीर्यमसि वीर्य मयि धेहि बलमसि बलं मयि धेहि मन्युरसि मन्युं मयि धेहि सहो सि सहो मयि धेहि। -यजु० १९/९
तू तेज है, मुझमें तेज स्थापन कर। तू शक्ति है, मुझमें शक्ति स्थापन कर। तू बल है, मुझमें बल स्थापन कर। तू ओज (प्रयत्न शक्ति) है, मुझमें ओज स्थापन कर। तू मन्यु है, मुझमें मन्यु स्थापित कर। तू सहनशक्ति है, मुझमें सहनशक्ति स्थापित कर।
सो प्रत्येक आर्य का धर्म है, कि शौच-स्नान, रहन-सहन, खान-पान सब ऐसा रक्खें, जिससे उसका स्वास्थ्य शक्ति और आयु बढ़े। विशेषतः व्यायामशील हो क्योंकि-
लाघवं कर्मसामर्थ्यं विभक्तघनगात्रता।
दोषक्षयोऽग्निवृद्धिश्च व्यायामादुपजायते।।१।।
व्यायाम दृढ़ गात्रस्य व्याधिर्नास्तिकदाचन।
विरुद्धं वा विदग्धं वा भक्तं शीघ्रं विपच्यते।।२।।
भवन्ति शीघ्रं नैतस्य देहे शिथिलतादय:।
नचैनं सहसा क्रम्य जरा समधिरोहति।।३।।
व्यायाम से शरीर हल्का होता है काम करने की शक्ति बढ़ती है, अलग-अलग सारे अंग पीन (पीडे) हो जाते हैं, (कफ आदि) दोष दूर होते हैं, और जठारग्नि बढ़ता है।।१।।
व्यायाम से दृढ़ अंगों वाले को रोग नहीं दबाता, विरुद्ध वा अधकच्चा भोजन भी शीघ्र पच जाता है।।२।।
इससे शरीर में शिथिलता आदि जल्दी नहीं होते, और न बुढ़ापा उसको दबाकर सवार होता है।।३।।
व्यायाम से अभिप्राय शारीरिक परिश्रम के हर एक कार्य से है। निरा दण्ड आदि का ही नाम नहीं। व्यायाम सबसे उत्तम वही है, जो घर के काम काज में होता है, इसलिए घर के काम काज में लज्जा कभी नहीं करनी चाहिए।
बुद्धिबल
यां मेधां देवगणा: पितरश्चोपासते।
तया मामद्यमे धयाऽग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा।। -यजु० ३२/१४
जिस मेधा को देवगण और पितर सेवन करते हैं, उस मेधा से हे अग्ने मुझे मेधावी बना।
चरित्र बल
परिमाग्ने दुश्चरिताद् बाधस्वामा सुचरिते भज।
उदायुषा स्वायुषोदस्थाममृताँ अनु।। -यजु० ४/२८
हे अग्ने मुझे दुश्चरित से सदा बचाते रहो, और सुचरित में सदा चलाते रहो, जिससे कि मैं उच्च जीवन और पवित्र जीवन के साथ देवताओं की ओर उठूं।
[साभार- तपोभूमि मासिक]