महर्षि दयानंद जी का स्वलिखित जीवन चरित्र, भाग 11 योगियों की खोज में नर्मदा के स्रोत की ओर-

चैत सुदी संवत् १९१४ वि० अर्थात् २६ मार्च सन् १८५७ बृहस्पतिवार को वहां से आगे चल पड़ा और उस ओर प्रयाण किया जिधर पहाड़ियां थीं और जिधर नर्मदा नदी निकलती है अर्थात् उद्गमस्थान की ओर चला (यह नर्मदा की दूसरी यात्रा थी ) मैंने कभी एक बार भी किसी से मार्ग नहीं पूछा। प्रत्युत दक्षिण की ओर यात्रा करता हुआ चला गया। शीघ्र ही मैं एक ऐसे सुनसान और निर्जन स्थान में पहुंच गया जहां चारों ओर बहुत घने जंगल थे और वहां जंगल में अनियमित अन्तर पर झाड़ियों के मध्य में बहुत से स्थानों पर क्रमरहित भग्न और सुनसान झोपड़ियां थीं और कहीं – कहीं पृथक्-पृथक् ठीक झोपड़ियां भी दिखाई पड़ती थीं। इन झोंपड़ियों में से एक झोपड़ी पर मैंने थोड़ा सा दूध पिया और फिर आगे की ओर चल दिया, परन्तु इससे आगे कोई डेढ़ मील के लगभग चलकर मैं फिर एक ऐसे स्थान पर पहुंचा जहां से कोई बड़ा मार्ग दिखलाई न देता था और मेरे लिये यही उचित प्रतीत होता था कि उन छोटे-छोटे मार्गों में से (जिनको मैं न जानता था कि कहां जाते हैं) किसी एक को ग्रहण करूं और उस ओर चल दूं। शीघ्र ही मैं एक निर्जन और सुनसान जंगल में घुस गया। उस जंगल में बहुत से बेरियों के वृक्ष थे परन्तु घास इतना घना और लंबा लंबा उगा हुआ था कि मार्ग बिल्कुल दिखाई न देता था। इस स्थान पर मेरा सामना एक बड़े काले रीछ से हुआ। वह रीछ बड़ी तीव्र और भयानक आवाज से चीखा और चिंघाड़ मार कर अपनी पिछली टांगों पर खड़ा होकर मुझे खाने के लिए अपना मुखा खोला। मैं कुछ समय तक निश्चेष्ट खड़ा रहा, परन्तु तत्पश्चात् मैंने शनैः शनैः अपने सोटे को उसकी ओर उठाया और वह रीछ उससे डर कर उल्टे पांव लौट गया । उसकी चिंघाड़ और गर्ज इतने जोर की थी कि वह गांव वाले जो मुझको अभी मिले थे दूर से उनका शब्द सुनकर और लड्डू लेकर शिकारी कुत्तों सहित मेरी सहायता करने के लिये उस स्थान पर आये। उन्होंने मुझको इस बात की प्रेरणा देने का यत्न किया कि मैं उनके साथ चलूं। उन्होंने कहा कि यदि इस जंगल में तुम तनिक भी आगे बढ़ोगे तो बहुत सी विपत्तियों का तुमको सामना करना पड़ेगा और पहाड़ियों व वनों में बहुत से भयंकर क्रोधी और जंगली पशु अर्थात् रीछ, हाथी और शेर आदि तुम्हें मिलेंगे। मैंने उनसे निवेदन किया कि आप मेरे कुशलक्षेम की कोई चिन्ता न करें क्योंकि मैं सकुशल और
सुरक्षित हूँ। चूंकि मेरे मन में इस बात की चिन्ता थी कि किसी प्रकार नर्मदा के उद्गम स्थान को देखूं इसलिये यह समस्त भय और आशंकाएं मुझको मेरे इस निश्चय से नहीं रोक सकती थीं। जब उन्होंने देखा कि उनकी आशंकायुक्त बातें मेरे मन में कुछ भय उत्पन्न नहीं करती और मैं अपने निश्चय में पक्का हूँ, तब उन्होंने मुझे एक सोटी दे दी जो कि मेरे सोटे से बड़ी थी ताकि मैं उससे अपने को बचाऊं ,परन्तु मैंने उस सोटी को तुरन्त अपने हाथ से फेंक दिया।

विकट वन में रेंग कर चलना तथा लहुलुहान—

उस दिन मैं निरंतर तब तक यात्रा करता हुआ चला गया जब तक संसार में चारों ओर अन्धकार न छा गया। कई घंटों तक मुझको मनुष्य की बस्ती का तनिक भी चिह्न न मिला और दूर कोई गांव मुझे दिखाई नहीं दिया और न किसी झोंपड़ी पर ही दृष्टि पड़ी और न ही कोई मनुष्य जाति मेरी आंखों के सामने आई परन्तु जो वस्तुएं साधारणतया मेरे मार्ग में आई, वे वह वृक्ष थे जो प्रायः टूटे हुए पड़े थे। जिनकी जड़ो को ? हाथियों ने तोड़कर और उखाड़ कर वहां फेंक दिया था। उसके थोड़ी ही दूर आगे बढ़ने पर मुझको एक बहुत ही बड़ा जंगल दिखायी दिया कि जिसमें घुसना भी कठिन था अर्थात् इतने घने बेर आदि के कांटेदार वृक्ष वहां पर लगे हुए थे कि उनके अन्दर से निकल कर जंगल और वन में पहुंचना बहुत कठिन ही नहीं, प्रत्युत असम्भव दिखाई देता था। पहले पहल मुझको उनके अन्दर से निकलना असम्भव दिखाई दिया, परन्तु तत्पश्चात् पेट के बल घुटनों के सहारे मैं शनै: शनै: सर्प के समान उन वृक्षों में से निकला और इस प्रकार उस रुकावट और कठिनाई को दूर किया और उस पर विजय प्राप्त की।
यद्यपि इस महान विजय के प्राप्त करने में मुझको अपने वस्त्रों के टुकड़ों का बलिदान करना पड़ा और कुछ बलिदान मुझको अपने शरीर के मांस का भी करना पड़ा जो उसके अन्दर से क्षत विक्षत होकर निकला। इस समय पूर्ण अन्धकार छाया हुआ था और अन्धकार के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं पड़ता था । यद्यपि मार्ग बिल्कुल रुका हुआ था और दिखाई न पड़ता था परन्तु तब भी मैं अपने आगे बढ़ने के निश्चय को छोड़ नहीं सकता था और इस आशा में था कि कोई मार्ग निकट ही आयेगा । अत: मैं बराबर आगे को चलता ही गया और बढ़ता ही रहा यहां तक कि मैं एक ऐसे भयंकर स्थान में घुस गया कि जहां चारों ओर ऊंची-ऊंची चट्टानें और ऐसी-ऐसी पहाड़ियां थीं कि जिनके ऊपर बहुत घनी वनस्पति और पादपादि उगे हुए थे। परन्तु इतना अवश्य था कि बस्ती के वहाँ कुछ-कुछ चिह्न और लक्षण पाये जाते थे। शीघ्र ही मुझको कुल झोपड़ियां और कुछ कुटियाएं दिखाई पड़ी जिनके चारों ओर गोबर के ढेर लगे हुए थे और शुद्ध जल की एक छोटी नदी के तट पर बहुत सी बकरियां भी चर रही थीं और उन झोपडियों और टूटे-फूटे घरों के द्वारों और दराड़ों में से टिमटिमाता हुआ प्रकाश दिखाई पड़ता था जो चलते हुए यात्री को स्वागत और बधाई की आवाज लगाता प्रतीत होता था।
मैंने वहां एक बड़े वृक्ष के नीचे जो एक झोपड़ी के ऊपर फैला हुआ था, रात व्यतीत की और प्रातः काल उठकर मैं अपने घायल चरणों और हाथ और छड़ी को नदी के पानी से धोकर अपनी उपासना तथा प्रार्थना करने के लिए बैठने को ही था कि इतने में हो किसी जंगली जन्तु के गर्जने की-सी ध्वनि मेरे कान में आई। यह ध्वनि टमटम की ऊंची ध्वनि थी। थोड़े ही समय पश्चात् मैने एक बड़ी सवारी अथवा जलूस आता हुआ देखा। उसमें बहुत से स्त्री, पुरुष और बच्चे थे, जिनके पीछे बहुत सी गौएं और बकरियां थीं जो एक झोंपड़ी या घर से निकले थे। सम्भवतः यह किसी धार्मिक उत्सव की प्रथा पूरी करने के लिये आये थे जो रात को हुआ करता है। जब उन्होंने मेरी ओर देखा और मुझको उस स्थान पर एक अपरिचित जाना तो बहुत लोग मेरे चारों ओर इकट्ठे हो गये और अन्त में एक वृद्ध मनुष्य ने आगे बढ़कर मेरे से पूछा कि तुम कहां से आये हो? मैंने उन सबसे कहा कि मैं बनारस से आया हूं और अब मैं नर्मदा नदी के उदगमस्थान की ओर यात्रा के लिये जा रहा हूं। इतना पूछकर वह सब मुझे अपनी उपासना में संलग्न छोड़कर चले गये। उनके जाने के आधा घंटा पश्चात् एक उनका सरदार दो पहाड़ी मनुष्यों सहित मेरे पास आया और एक और पार्श्व में बैठ गया। वह वास्तव में उन सबकी ओर से एक प्रतिनिधि के रूप में मुझको अपनी झोंपड़ियों में बुलाने के लिये आया था परन्तु पूर्व की भांति मैंने अबके भी उनकी इस कृपा को स्वीकार नहीं किया क्योंकि वे सब मूर्तिपूजक थे (इसलिये स्वामी जी ने उनके पूजा के कार्य में सम्मिलित होना पाप समझा और अस्वीकार कर दिया। तब उसने मेरे समीप अग्नि प्रज्ज्वलित करने की आज्ञा अपने मनुष्यों को दी और उसने दो पुरुषों को नियत किया कि रात भर मेरी रक्षा करते हुए जागते रहें। जब मुझसे उसने मेरे खाने के विषय में पूछा और बताया कि मैं केवल दूध पीकर निर्वाह करता हूँ तो उस कृपालु सरदार ने मुझ से मेरा तूला मांगा और उसको लेकर अपनी झोंपड़ी की ओर गया और वहां उसने उसको दूध से भर कर मेरे पास भेज दिया। मैंने उसमें से उस रात्रि थोड़ा सा दूध पिया। वह फिर मुझको दो रक्षकों के निरीक्षण में छोड़कर लौट गया। उस रात मैं बड़ी गहरी निद्रा में सोया और सूर्योदय तक सोता रहा। तत्पश्चात् उठकर अपने सन्ध्यादि कृत्यों से निवृत्त होकर मैं यात्रा के लिये उद्यत हुआ। सारांश यह कि नर्मदा के उद्गम स्थान से लौटकर मैं विशेष विद्याप्राप्त्यर्थ मथुरा में आया। नर्मदा तट पर तीन वर्ष तक यात्रा की और भिन्न-भिन्न
महात्माओं से सत्संग करता रहा।

तीन वर्ष के नर्मदा-भ्रमण के पश्चात् मथुरा में आगमन – (संवत् १९१७ वि० ) –

मथुरा में एक संन्यासी सत्पुरुष मुझे गुरु मिले। उनका नाम विरजानन्द स्वामी है। यह पहले अलवर में थे। उनकी आयु ८१ वर्ष की थी।” उनको वेद शास्त्रादि तथा आर्ष ग्रन्थों में बहुत रुचि थी। वे दोनों आंखों से अन्धे थे और उनके उदर में सदा शूल का रोग रहता था। उनको आधुनिक कौमुदी, शेखरादि ग्रन्थ अच्छे नहीं लगते थे। वह भागवतादि पुराणों का तो बहुत ही तिरस्कार करते थे । समस्त आर्ष ग्रन्थों पर उनकी बहुत ही भक्ति थी। आगे जब उनका परिचय हुआ तब उनके ‘तीन वर्ष मे व्याकरण आता है’ ऐसा कहने पर मैंने उनके पास पढ़ने का निश्चय किया (संवत् १९१७ तदनुसार सन् १८६० मे) ।
क्रमशः

डॉ राकेश कुमार आर्य

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