मर्यादा पुरूषोत्तम राम : सनातन ( पौराणिक ) संस्कृति के मूर्त्त विधान
राम का शब्दिक अर्थ है ‘जो सब में रमण करे’ अर्थात् जो सब में व्याप्त है, यानि परम शक्ति परब्रह्म परमात्मा है। संपूर्ण ब्रह्मांड की रचना जिनके द्वारा की गई है । राम राजा दशरथ के पुत्र के रूप में अयोध्या में मानव रूप में प्रकट होकर शील, शक्ति, सौदर्य, मर्यादा, सत्य व न्याय की स्थापना करके भगवान जैसे सम्मान सूचक विशेषण को प्राप्त हुए । गोस्वामी तुलसीदास जी ने ‘श्री रामचरितमानस’ में इसका संकेत दिया है। भगवान राम स्वयं उद्घोषणा करते हैं कि –
“जब जब होंहि धरम की हानी
बाढ़हि अपुर अधम अभिमानी
तव तव धरि प्रभु मनुज शरीरा
हरहिं सकल सज्जन भवपीरा ।”
संपूर्ण भारतीय साहित्य में राम के सगुण रूप की ही स्थापना हुई है। आदि कवि वाल्मीकि ने सर्वप्रथम राम के मानव रूप की प्रतिष्ठा की। इसके पूर्व राम निर्गुण निराकार रूप में घट घट व्यापक थे। राम के रूप में श्रद्धा विश्वास एवं ज्ञान के रूप थे । हिन्दी साहित्य में कबीरदास ने इसी निर्गुण निराकार रूप को मान्यता देकर राम की व्यापकता एवं सूक्ष्मता को स्वीकार किया है। कबीर ने लिखा है –
“कस्तूरी कुण्डलि बसै, मृग ढुंढे बनमाहिं ।
ऐसे घट-घट राम हैं, दुनियाँ देखे नाहिं ।।”
पुनः गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानव जाति के कल्याण एवं शील शक्ति एवं सौंदर्य की स्थापना के लिए मर्यादा पुरूषोत्तम राम के सगुण रूप का चित्रण किया जो राम काव्य परंपरा का मुख्य विषय बना। रामावतार का मुख्य कारण राक्षसरूपी रावण का विनाश करना था। राम कथा का इतना विकास हुआ कि संपूर्ण भारतीय माहौल व संस्कृति फैलकर एशियाई संस्कृति का एक महत्वपूर्ण तत्व बन गया । मानव हृदय को द्रवीभूत करने की शक्ति एवं मानवीय मूल्यों की स्थापना करने की शक्ति जो राम कथा में है वह अन्यत्र दुर्लभ है। राम कथा में व्यक्ति ,परिवार व राष्ट्र के उदात्त चरित्र को प्रस्थापित करने की अद्भुत शक्ति है । पतिव्रता सीता का चरित्र भी संपूर्ण नारी जाति के लिए आदर्श और शील का पर्याय है। बौद्ध धर्म में भी राम को बोधिसत्व मानकर राम कथा को जातक साहित्य में स्थान दिया गया है। दशरथ जातक, दशरथ कथानक के रूप में राम का चरित्र देखने को मिलता है। जैन धर्म में भी राम काव्य की स्थापना हुई है। संस्कृत में हेमचंद्र कृत जैन रामायण, कालिदास कृत रघुवंश काव्य में राम के चरित्र के साथ रघुवंशीय राजाओं के चरित्र का भी वर्णन है। भवभूति कृत महावीर चरित् एवं उत्तर रामचरित् समस्त राम काव्य नाटक का सर्वोत्तम प्रतिनिधि नाटक है । इसमें दांपत्य प्रेम का कारूणिक मार्मिक चित्र प्रस्तुत है । कंबन कृत तमिल रामायण, तेलुगू साहित्य में रंगनाथ रामायण, मराठी में एकनाथ कृत भावार्थ रामायण अध्यात्म रामायण, आनंद रामायण, अदभमुत रामायण, भुशुण्डी रामायण, गोस्वामी तुलसीदास ने रामलीला का प्रारूप बनाया । काशी में सबसे पहली रामलीला उन्हीं की प्रेरणा से हुई ।
रामलीला में हिन्दुओं की धार्मिक आस्था में लोकनायकत्व की प्रधानता है । अयोध्या, काशी, मिथिला रामलीला के मुख्य केन्द्र बने । मथुरा, वृंदावन, गोकुल, आगरा, अलीगढ़, मैनपुरी, एटा, इटावा एवं कानपुर में भी इसका प्रचार हुआ । आज भी चैत्र रामनवमी, आश्विन नवरात्र आदि दशहरा के अवसर पर भारत में हर जगह रामलीला के प्रचार प्रसार एवं रावण दहन जैसी राक्षसी प्रवृत्तियों को जलाने का भाव प्रचलित है। गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रामचरित मानस का इतना व्यापक प्रचार प्रसार हुआ कि आज संपूर्ण भारतीय संस्कृति एवं हिन्दुत्व के प्राण का आधार बना हुआ है।
रामलीला के रूप में रामचरित मानस की लीलाओं को एवं चौपाइयों को आधार बनाया गया है। राम जन्म, धनुष यज्ञ, सीता स्वयंवर, परशुराम लक्ष्मण संवाद, राम वन गमन, सीता हरण, लंकादहन, अंगद रावण संवाद, लक्ष्मण मेघनाद युद्ध, राम कुंभकर्ण रावण युद्ध, भरत मिलाप, राम का राज्याभिषेक आदि राम लीला के प्रमुख अंश हैं। रामलीला का उद्देश्य है कि यह श्रव्य और दृश्य दोनों हैं। दृश्य का प्रभाव जितना अधिक मन मस्तिष्क पर पड़ता हैं उतना श्रव्य का नही। आज रामचरित मानस आदर्श महाकाव्य ही नहीं बल्कि भारतीय संस्कृति एवं सनातन धर्म का प्रतिमान भी है। वैसे तो अनेक रामायण की असंख्य परंपरा है पर मर्यादा पुरूषोत्तम के रूप में राम के आदर्श चरित्र व मूल्यों को स्थापित करने में जितना योगदान श्री रामचरित मानस का है उतना किसी रामायण का नहीं। अन्य रामायण कहीं श्रृंगारिक चेष्टाओं में तो कहीं काल्पनिक कथाओं में तो कहीं वागविल में तो कहीं पांडित्य प्रदर्शन में उलझ गया है। उन रामायणों का उद्देश्य जन मानस न होकर पांडित्य प्रदर्शन है जबकि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस महाकाव्य का उद्देश्य पांडित्य प्रदर्शन नहीं बल्कि सहज, सरल और सुबोध अवधी भाषा में जन-जन तक पहुँचने का है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने जो लिखा वह स्वान्तः सुखाय लिखा है। उनकी रचना में कहीं भी काव्य प्रदर्शन की कामना नहीं बल्कि मर्यादा पुरूषोत्तम राम की प्रेरणा दिखती है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने कल्पना कम यथार्थ और आदर्श को सामने रखकर मनोवैज्ञानिक प्रयोगात्मक रूप को चित्रित किया है। श्रीरामचरितमानस में हृदय की स्पर्शिता, संवेदनशीलता, मनोवैज्ञानिक घटनाओं का साधारणीकरण रूप संपूर्ण विश्व मानव के सामने रखा गया है। यही कारण है कि श्रीरामचरितमानस की लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि आज यह विश्व काव्य हो गया है। हिन्दुत्व भावना का परिपोषक एकता, अखंडता एवं विश्वबंधुत्व के भाव का संस्थापक हो गया है।
रामस्थ लोकत्रंयनायकस्य स्थातु न शक्ताः समरेषु सर्वे ब्रह्ममो स्वयम्भूश्चतुराननो वा रूद्रारूग्नित्रास्त्रि पुरानतको वा इन्द्रो महेन्द्रः सुरनायको वा स्थातु न शक्ता युधि राघवस्य ।
श्री हनुमानजी अपने मुख से राम के ऐश्वर्य और पराक्रम का वर्णन रावण के सामने करते है । श्री रामचन्द्र जी तीनों लोकों के स्वामी हैं। देवता, दैत्य, गंधर्व, विधाधर, नाग तथा यक्ष ये सब मिलकर भी युद्ध में उनके सामने नहीं टिक सकते । चार मुखों वाले स्वयंभू ब्रह्मा, तीन नेत्रों वाले त्रिदुरनाशक शंकर ताग देवताओं के स्वामी महान ऐश्वर्यशाली इन्द्र भी समरांगण में श्री रघुनाथ जी के सामने नहीं ठहर सकते। यह बाल्मीकि रामायण के सुंदर कांड का प्रसंग है ।
स्वयं मंदोदरी अपने पति रावण की मृत्यु के बाद राम के ऐश्वर्य का वर्णन करते हुए कहती है –
व्यक्तभेष महायोगी परमात्मा सनातन :अनादिमध्यानिधना महतः परमो महान तमसः परामो धाता शंख, चक्र गदाधरः श्रीवस्त वक्षा नित्य श्रीरजय्यं शाश्वतो ध्रुव : मानुष रूपंभासीय विष्णुः सत्य पराक्रमः ।
निश्चय ही श्री रामचन्द्र जी महान योगी एवं सनातन परमात्मा हैं। इनका आदि मध्य और अंत नहीं है। ये महान से भी महान अज्ञानान्धकार से परे तथा सबको धारण करने वाले परमात्मा हैं जो अपने हाथ में शंख, चक्र और गदा धारण करते हैं। जिनके वक्षस्थल में श्रीवत्स का चिन्ह है। भगवती लक्ष्मी जिनका साथ नहीं छोड़ती। जिन्हें परास्त करना सर्वथा असंभव है। जो नित्य स्थिर एवं संपूर्ण लोकों के अधीश्वर हैं। सत्य पराक्रमी भगवान विष्णु के समस्त लोकों का हित करने की इच्छा से मनुष्य रूप धारण किया है तथा सभी देवताओं ने वानर रूप में प्रकट होकर आपका वध किया है । यह प्रसंग वाल्मीकि रामायण के युद्ध कांड से लिया गया है।
बाल्मीकि रामायण के बाद गोस्वामी तुलसीदास ने श्री रामचरितमानस महाकाव्य की रचना कर मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आदर्श रूप को लोक मानस में रखा । राम जो निर्गुण, निराकार, ब्रह्म हैं। सर्वव्यापी हैं। उनके अलौकिक रूप की व्याख्या करते हुए लौकिक मानव चरित्र के रूप में स्थापित किया । गोस्वामी तुलसीदासजी ने राम के चरित्र , पितृभक्ति, मातृभक्ति, मित्र प्रेम, एक पत्नी व्रत, मातृभूमि प्रेम, जनता जनार्दन से प्रेम, नारी के प्रति सहानुभूति, गुरू भक्ति आदि सभी के आदर्श रूप प्रस्तुत हो गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस के ‘बालकाण्ड’ में जो राम नाम की महिमा का गुणगान किया है वह भगवान राम के निर्गुण रूप का साक्षात् विग्रह है। राम में ‘र’ और ‘म’ अक्षर की महिमा बताते हुए तुलसीदास जी कहते है कि ‘र’ कहते ही मुख का खुल जाना जन्म जन् व निकले हुए आप अंदर की ओर प्रवेश न कर सके इसलिए ‘म’ अक्षर की महिमा है । ‘म’ कहते ही मुख बंद हो जाता है जैसे कि गोस्वामी जी ने लिखा है-
तुलसी रा के कहत ही निकसत पाप पहाड़
फिरि आवन पावत नहीं देत म का विकार ।
इतना ही नहीं पाणीनि के द्वारा अष्टध्यायी में निरूपित माहेश्वर के चौदह सूत्रों में ‘र’ और ‘म’ में ऐसी ही महिमा है। ‘र’ और ‘म’ समस्त शब्दों के ऊपर रेफ या नी छत्र के रूप में तथा ‘म’ अनुस्वार के रूप में विराजमान होता है । अर्थात् राम सभी शब्दों का सिरमौर है –
एक छत्र एक मुकुट मानि
सब वानन पर जोड़े
तुलसी रघुवर नाम के
वरन विराजत दोउ
‘राम’ शब्द के उच्चारण से निर्गुण निराकार राम राम मूर्तमान हो जाते हैं और अपने भक्तों को दर्शन देते हैं। इसीलिए गोस्वामी जी राम नाम की महिमा पर लिखते हैं :-
वन्दौ नाम रघुवर कों
हेतु कृशानु मानु हिमकर को ।
अर्थात् ‘राम’ नाम में अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा तीनों के गुण और धर्म विद्यमान हैं। इसी ‘राम’ नाम को भगवान शंकर जपते रहते हैं। इसी राम नाम को महामंत्र की संज्ञा दी गई है :-
महामंत्र जोइ जपत महेसू
कासी मुति हेतु उपदेसु ।
अर्थात् बाल्मीकि ने राम नाम की महिमा को चरितार्थ करते हुए संपूर्ण रामायण की रचना कर दी :-
जान आदिं कवि नाम प्रतापू भयउ शुद्ध करि उलटा जापू ।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने दशरथ पुत्र राम के शील, सौंदर्य की चर्चा करते हुए उनके सगुण, साकार रूप की स्थापना की है ताकि उनके चरित्र एवं आदशों का अनुकरण कर एक सभ्य मानव समाज की संरचना हो सके। राम की गुरूभक्ति का आदर्श यह है कि स्वयं सर्वगुण संपन्न होते हुए वैभवशाली होते हुए अपने अहंकार को छोड़कर गुरू के घर पढ़ने जाते हैं :-
गुरू गृह गये पढ़न रघुराई
अल्पकाल विद्या सब पाई ।
धनुष यज्ञ के समय जब संपूर्ण विश्व के राजा, महाराजा, वीर योद्धा धनुष उठाने की कोशिश करने लगे पर वह टस से मन नहीं हुआ क्योंकि सभी के अंदर अपने बल का घमंड था, पर जब गुरू विश्वामित्र का आदेश हुआ कि ‘उठहु राम भजहु भव चापा’ अर्थात् हे राम, उठो और इस संसार के धनुष को तोड़ डालो । तब राम ने गुरूजी को मन ही मन प्रणाम किया और धनुष को तोड़ डाला ।
गुरूहिं प्रणाम मनहिं मन कीन्हा
अति लाघव उठाई धनु कीन्हा ।
राम ने पितृभक्ति ऐसी की कि क्या उचित है, क्या अनुचित है ? इस पर विचार न कर पिताजी की आज्ञा का पालन करना है। यह सोचकर पिता की आज्ञा से १४ वर्ष के लिए वनवास चले गये । माता कैकेयी के द्वारा वन जाने की बात सुनकर राम बोल उठते है :-
सुनु जननी सोई सुत बडऋ मांगी
जो पितु मात वचन अनुरागी ।
गोस्वामी जी ने यहाँ तक कहा है कि :-
गुम पितु मातु स्वामि सिखवाले
चलत कुमग पग परहिं न खाले
अर्थात् जो माता, पिता, गुरू व स्वामी की बात जो मानकर कार्य करता है, उसका कुमार्ग में चलते हुए भी पाँव गड्ढे में नही पड़ता है। राम अपनी माता कौशल्या से वन जाने का आदेश लेते हुए कहते हैं :-
पिता दीन्ह मोहि कान न राजू
जहँ सब भाँति भोर बड़ काजू
आयसु देहि मुदित्त मन माता
जेहिं मुद मगल कानन जाता ।
श्री राम का पत्नी प्रेम एवं पारिवारिक कर्त्तव्यबोध देखते ही बनता है। वन जाते समय प्राण प्रिय धर्म पत्नी सीता भी वन में साथ चलने का आग्रह करती है। पर राम माता पिता के प्रति कर्त्तव्य भाव को समझकर सीता जी से कहते हैं – मेरी आज्ञा है कि तुम अयोध्या में रह कर सास-ससुर की सेवा करो, क्योंकि वे वृद्ध हैं और मैं जा रहा हूँ। कम से कम तुम तो सेवा करो ।
कहते हैं :-
आयसु मारी सासु सेव काई
सब विधि मामेनि भवन भलाई
सादर सास ससुर पद पूज्य
एहिते अधिक धरम नहिइ जा ।
राम का केवट प्रेम, शबरी प्रेम ,आदिवासी जनजाति के प्रति प्रेम दिखाई पड़ता है। राम के पास सामर्थ्य है। वह गंगा पार कर सकते हैं। पर सामान्य मानव केवट का प्रेद देने के लिए उसकी नौका पर चढ़कर पार करने का आग्रह करते हैं। पर केवट राम भक्त है, ज्ञानी है। वह प्रभु के चरणों की धूलि की महिमा जानता है, क्योंकि राम ने अपने चरणों के स्पर्श से अभिशापित अहिल्या को पत्थर से नारी बनाकर नारी जाति को महिमामंडित किया था। जिसका इतिहास केवट जानता है । वह कहता है बिना चरण धोये आपको मैं नाव पर नहीं चढ़ाऊँगा । केवट के इस कथन में भक्ति की प्रगाढ़ता एवं भगवान राम के प्रति एकनिष्ठ भाव दिखाई पड़ता है। अंत में केवट की जीत होती है। राम को अपना पैर धुलवाना ही पड़ता है :-
पद पखारि जलपान करि आपु सहित परिवार
पिता पार करि प्रभुहिं पुनि मुदित गयउ लईपार ।
केवट भगवान राम का चरण धोकर चरणामृत का पान करता है और अपने परिवार वालों को भी करवाता है। इतना ही नहीं राम के चरण पखार कर अपने पूर्वजों को भी उसने धन्य और कृत कर दिया ।
राम का शबरी प्रेम नारी जाति के प्रति सहानुभूति तो है ही साथ ही आदिवासी महिला भीलनी जाति की प्रभुभक्ति में लीन थी। भगवान की जो भक्ति करता है, भगवान स्वयं उसके घर पधारते हैं। शबरी के आश्रम में पधारने पर वह उनके आतिथ्य सत्कार करती है। यहाँ तक कि जूठे बेर को भी राम बड़े प्रेम से ग्रहण करते हैं और उसे नवधा भक्ति का पाठ पढ़ा कर संपूर्ण मानव जाति को भक्ति और प्रेम का पाठ पढ़ाया और कहा कि :-
आठर्व जधा लाम संतोषा
सपनेहुँ नहि देखहिं पर दोषा ।
यही ईश्वर को प्राप्त कर तथा मानव जीवन को सफल बनाने का सूत्र है । ईश्वर की तरफ से जो कुछ भी प्राप्त है उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी दूसरे का दोष न देखना यही सबसे उच्च कोटि की भक्ति है ।
मित्रता के आदर्श की स्थापना गोस्वामी तुलसीदास ने ‘राम-सुग्रीव मित्रता’ के रूप में की है। सुग्रीव अपने भाई बालि से दु:खी होकर वर्षण पर्वत पर निवास कर रहा था। बालि ने उसकी पत्नी का भी अपहरण कर लिया था । इधर राम की प्राण प्रिया सीता के अपहरण के बाद सीता की खोज करते हुए वर्षण पर्वत पर पहुँचते हैं। सुग्रीव ने अपने मंत्री हनुमान जी से रूप बदल कर पता लगाने को कहा कि देखो ! धनुष-बाण लिए ये दो राजकुमार हमको मारने तो नहीं आ रहे हैं ? हनुमान जी संबंध स्थापित कर सभी रहस्य को जानकर सुग्रीव से उनकी मित्रता करा दी। दोनों मित्रों में यही शर्त रखी गयी कि राम सुग्रीव की पत्नी को बालि से छुड़ाकर दे दें और सुग्रीव अपनी संपूर्ण वानर सेना को चारों दिशाओं में भेजकर सीता का पता लगावें । भगवान राम के प्रताप से सुग्रीव, बालि युद्ध हुआ और बालि मारा गया। प्राण रहते बालि ने राम से प्रश्न किया कि :-
धर्म हेतु अवतरेहु गोसाई भगरेहु मोहिं व्याघ्र की नाई
मैं बैरी सुग्रीव पिआरा, अवगुन कौन नाथ मोहिं मारा ।
बालि ने जब कहा कि मेरा क्या अवगुण है कि आप ने मुझे छिप कर मारा । तब राम कहते हैं – भाई की पत्नी बहन, पुत्रवधु और कन्याये चारों कन्या के समान होते हैं । इन्हें जो कुदृष्टि से देखता हो, उसका वध करने में पाप नहीं होता :-
अनुज वधु भागिनी सुत नारी
सुनु सठ कन्या समये चारी
इन्हहिं कुदृष्टि विलोकई जाई
ताहिं बधे कुछ पाप न होई ।
राम ने सुग्रीव को आश्वासन दिया था कि मैं तुम्हारी मदद करूँगा । यहाँ तक कहा कि जो मित्र के दु:ख में दुःखी नही होता उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है :-
जे न मित्र दुःख होहिं दुखारी
तिन्हहि विलोकत पातक भारी
कुपथ निवारि सुपथ चलावा
गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा ।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने राम के चरित्र के द्वारा धर्म रथ जिसे विजय रथ भी कहते हैं , उसका स्वरूप खड़ा करके मानवीय सनातन मूल्यों की स्थापना की है । लंका की युद्धभमि में शरणागत विभीषण ने राम से कहा ‘हे प्रभु ! आपके पास अस्त्र शस्त्र नही है। उनके पास पत्थर और पेड़ के सिवा कोई अस्त्र शस्त्र नही है। पर रावण के पास रथ है, कई अस्त्र-शस्त्र हैं, और भी कई महान शक्तियाँ उसके पास हैं । प्रभु आप रावण से कैसे जीत पायेंगे। इस पर विभीषण ने राम से कहा कि हमारे पास धर्म रथ है। वही विजय रथ है। जिसके पास वह रथ होता है, वही विजयी होता है। वह कौन सा रथ है ? प्रभु राम तब कहते हैं कि हमारे पास वह रथ है जिसमें शौर्य और धैर्य रूपी दो चक्के लगे हुए हैं। जिसमें सत्य, शील और दृढ़ संकल्प का ध्वज फहरा रहा है। बल, विवेक, दम (इन्द्रियनिग्रह) और परोपकार के घोड़े जुते हैं। क्षमा, कृपा और समत्वभाव की रस्सी से वे घोड़े जुड़े है :-
शौरज धीरज तोहि रथ चरका
सत्यशील दृढ़ ध्वजा पताका
बल विवेका दम परहित छोरै
क्षमा कृपा समता रजु जगे ।
रामचरितमानस के उत्तर काण्ड में जो राम राज्य का वर्णन है वही मानवीय मूल्यों का सामाजिक मूल्यों का आदर्श है। जिस समय राम का राज्याभिषेक हुआ उस समय संपूर्ण वातावरण में परिवर्तन हो गया। सभी लोग प्रसन्नचित्त हो गये, सबके संकट दूर हो गये । आपस में विद्वेष की भावना समाप्त हो गई। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास सभी आश्रमों का नियमित रूप से पालन होने लगा । राम राज्य में दैहिक, दैविक, भौतिक तीनों प्रकार के तापों से मुक्ति मिली मिल गयी । धर्म के चार चरण सत्य, तप, दान, दया का सभी पालन करते थे। किसी की मृत्यु नहीं होती थी। सभी स्वस्थ और रोगरहित थे। किसी के पास दंभ का आगमन नहीं था । नर और नारी सभी के सभी गुणज्ञ, कृतज्ञ, पंडित एवं विज्ञानी थे । इस प्रकार हम देखते हैं कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस के माध्यम से मर्यादा पुरूषोत्तम राम के चरित्र को तो निरुपित किया ही साथ ही परिवार, समाज एवं राष्ट्र के निर्माण के लिए मानवीय मूल्यों की स्थापना भी की है।
जनवरी ३१, २०२४ जमशेदपुर, झारखंड
(डॉ. हरिबल्लभ सिंह ‘आरसी’)
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