महर्षि दयानंद जी का स्वलिखित जीवन चरित्र, भाग 8 केदार घाट आदि में पंडितों व ब्राह्मणों से भेंट-

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तत्पश्चात् मैं वहां से श्रीनगर को चल पड़ा। यहां मैंने केदारघाट पर एक मंदिर में निवास किया। यहां के पंडितों से बातचीत के समय जब कोई वादानुवाद का अवसर होता तो उनको उन्हीं तन्त्रों से हरा देता था। इस स्थान पर एक गंगागिरी नामक साधु से (जो दिन के समय अपने पर्वत से, जो एक जंगल में था , कभी नहीं उतरता था) भेंट हुई और विदित हो गया कि यह एक अच्छा विद्वान् है। थोड़े दिन पश्चात् मेरी उसकी मित्रता भी हो गई। कहने का अभिप्राय यह है कि जब तक मेरा उसका साथ रहा योगविद्या और अन्य उत्तमोत्तम विषय पर आपस में बातचीत होती रही और प्रतिदिन के तर्क-वितर्क से यह बात सिद्ध हो गई कि हम दोनों साथ रहने योग्य हैं। मुझे तो उसकी संगत ऐसी अच्छी लगी कि दो मास से अधिक उसके साथ रहा।

केदारघाट से रुद्रप्रयाग को प्रस्थान —

तत्पश्चात् पतझड़ के आरम्भ में अपने साथियों अथवा ब्रह्मचारी और पहाड़ी साधुओं सहित केदारघाट से दूसरे स्थानों को चला और रुद्रप्रयाग आदि स्थानों में होता हुआ अगस्त्यमुनि की समाधि पर पहुंचा। आगे चलकर उत्तर की ओर एक पर्वत पर—जो कि शिवपुरी नाम से प्रसिद्ध है, गया। यहां शीत ऋतु के चार मास व्यतीत किये फिर ब्रह्मचारी और दोनों साधुओं से पृथक् होकर अकेला और बेखटक मैं केदारघाट को लौट गया। फिर गुप्तकाशी में पहुंचा—यहां बहुत कम ठहरा अर्थात् गौरीकुण्ड और भीमगुफा होता हुआ त्रियुगीनारायण के मन्दिर पर पहुंचा परन्तु थोडे ही दिनों में केदारघाट को, जहां का निवास मुझको अत्यन्त प्रिय था, लौट आया और वहां निवास किया और कुछ ब्राह्मण पुजारियों और केदारघाट के पंडों के साथ (जो जंगमजाति के थे) तब तक निवास किया जब तक कि मेरे पहले साथी अर्थात ब्रह्मचारी और दोनों साधु भी लौटकर वहां न आ गये। वहां के पंडितों और ब्राह्मणों के कार्यों को मैं सदा ध्यानपूर्वक देखता और स्मरणार्थ उनकी स्मरण रखने योग्य बातों का ध्यान करता रहता था ।

पहाड़ों में योगी नहीं मिले-

जब उनके वृत्तान्त का इच्छानुसार परिचय प्राप्त हो गया तो मेरे मन में आसपास के पर्वतों के भ्रमण करने की इच्छा उत्पन्न हुई जो सदा हिमाच्छादित रहते हैं कि देखूं और उन महात्माओं के दर्शन करूं जिनका समाचार सुनता चला आता था, किन्तु कभी भेंट नहीं हुई। अतः मैंने यह दृढ़ निश्चय कर लिया कि चाहे कुछ भी क्यों न हो इस बात की अवश्य खोज करनी चाहिये कि वे महात्मा लोग, जैसा कि प्रसिद्ध है, वहां रहते हैं अथवा नहीं।
परन्तु पर्वतीय यात्रा की भयानक कठिनाइयों और शीतकाल की प्रबलता के कारण प्रथम मुझको पर्वतीय लोगों से पूछना पड़ा कि वे उन महात्मा पुरुषों के वृत्तान्त से परिचित हैं या नहीं। परन्तु भाग्य की विडम्बना देखो कि जहां भी पूछा वहां या
तो निरी अज्ञानता पाई या अन्धविश्वास से भरी हुई गप्प हांक दी। सारांश यह कि बीस दिन तक पथभ्रष्ट और भग्नहृदय
फिरकर जिस प्रकार कि अकेला गया था वैसे ही लौट आया क्योंकि मेरे साथी तो दो दिन पूर्व ही मुझको शीत की प्रबलता
के भय से अकेला छोड़ कर चले गये थे। इसके पश्चात् मैं तुंगनाथ की चोटी पर चढ़ा। वहां पर एक मन्दिर पुजारियों और मूर्तियों से भरा पाया। मैं उसी दिन वहां से नीचे उतर आया जहां पर मुझे दो मार्ग मिले जिनमे एक पश्चिम को और दूसरा नैऋत्य को जाता था । तब मैं उस मार्ग पर जो जंगल की ओर था-झुक पड़ा। कुछ दूर तक चलकर मैं एक ऐसे घने वन में पहुंचा। जहां की चट्टानें खंड-बंड (ऊंची-नीची) और नाले भी शुष्क थे और वहां से आगे को मार्ग भी न चलता था। जब मैं इस प्रकार घिर गया तो मन में सोचने लगा कि अब नीचे उतरना चाहिये अथवा और ऊपर चढ़ना चाहिये परन्तु चोटी की ऊंचाई और दुर्गम चढ़ाव के कारण मैंने विचार किया कि पर्वत की चोटी पर चढ़ना असम्भव है। अतः विवश होकर शुष्क घास और सूखी झाड़ियों को पकड़-पकड़ कर मैं नाले के ऊंचे किनारे पर पहुंचा और एक चट्टान पर खड़े होकर जो चारों ओर दृष्टि डाली तो मुझको दुर्गम पहाड़ियों, टीलों और जंगल के अतिरिक्त, जिनमें मनुष्य का आना कठिन था, और कुछ दिखाई न पड़ा। चूंकि उस समय सूर्य भी अस्त होने वाला था। मुझको चिन्ता हुई कि इस सुनसान निर्जन वन में, बिना जल और ऐसे पदार्थ के जो जल सके, मेरी क्या दशा होगी। सारांश यह है कि मुझे उस विकट जंगल में ऐसे-ऐसे स्थानों पर घूमना पड़ा कि वहां के बड़े-बड़े कांटों में उलझ उलझ कर कपड़ों की धज्जियां उड़ गई और शरीर भी घायल हो गया और पांव भी लंगड़े हो गये। अन्त में अत्यन्त कठिनता से बड़े दु:ख और संकट के साथ उस मार्ग को पूरा करके पर्वत के नीचे पहुंचा और अपने आपको साधारण मार्ग पर पाया। उस समय रात्रि का अन्धकार सब ओर छा रहा था। इस कारण अनुमान से मार्ग ढूंढना पड़ा परन्तु मैंने प्रसिद्ध मार्ग से पृथक् न होने का बहुत ही ध्यान रखा । अन्त को ऐसे स्थान पर पहुंचा जहाँ कुछ झोंपड़े दिखाई पड़े और वहां के मनुष्यों से ज्ञात हुआ कि यह मार्ग ओखीमठ को जाता है। यह सुनकर उस ओर को चल पड़ा और रात ओखीमठ में व्यतीत कर प्रातः जब मैं अच्छी प्रकार विश्राम कर चुका था, वहां से गुप्तकाशी को लौट गया अर्थात् जिस स्थान से मैं पहले उत्तर की ओर चला था।

डॉ राकेश कुमार आर्य

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