वैदिक सम्पत्ति – 307 वेदमंत्रों के उपदेश

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(ये लेखमाला हम पं. रघुनंदन शर्मा जी की ‘वैदिक संपत्ति’ नामक पुस्तक के आधार पर सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहें हैं )

प्रस्तुतिः देवेन्द्र सिंह आर्य (चेयरमैन ‘उगता भारत’

गतांक से आगे….

इसीलिए वेद में युद्धविजय की बहुत प्रवल कामना का उपदेश है। यजुर्वेद में लिखा है कि-

धन्वना गा घश्वनाजि जयेम धन्वना तीव्रा: समदो जयेम ।
धनुः शत्रोरपकामं कृणोति धन्वना सर्वाः प्रविशो जयेम ।। (यजु० २९।३९)

अर्थात् हम धनुष से पृथिवी और संग्राम को जीतें और हम धनुष से बड़ी वेगवाली सेना को भी जीतें। यह धनुष शत्रु की कामना को नष्ट कर देता है, अतः हम धनुष से सब दिशा विदिशाओं को जीत लें। विजयी योद्धा के लिए लिखा है कि-

धनुर्हस्तादाददानो मृतस्य सह क्षत्रेण वर्चसा बलेन ।
समागृभाय वसु भरि पुष्टमर्वाङ् त्वमेहा प जीवलोकम् ।। (अथर्व० १८/२/६०)

अर्थात् हे वीर ! तू अपने क्षात्रधर्म, तेज और बल के द्वारा इस संग्राम में मरे हुए शत्रुओं के हाथ से धनुष को और अन्य पुष्ट करनेवाले बहुत से सामानों को लेकर इन पराजितों के सामने से आदर के साथ आ। इसके आगे सेना का वर्णन इस प्रकार है-

याः सेना अभीत्वरीराब्याधिनीरुगणा उत ।
ये स्तेना ये च तस्करास्ताँस्ते अग्नेऽपि दधाम्यास्ये ।।७७।।
द ष्ट्राभ्यां मलिम्लून् जम्म्यं स्तकरी २ उत ।
हनुभ्या स्तेनान् भगवस्तांस्त्वं खाद सुखादितान् ।।७८।।
ये जनेषु मलिम्लव स्तेनासस्तस्करा वने ।
ये कक्षेष्वघायवस्तांस्ते दधामि जम्भयोः ।।७६।।
यो अस्मभ्यमरातीयाद्यश्च नो द्वेषते जनः ।
निन्दाद्यो अस्मान् धिप्साच्च सर्व तं भस्मसा कुरु ।।८०।। (यजु० ११/७७-८०)

अर्थात् जो सेना सुस्त, बीमार, नालायक और चोर है, उसको मैं जलती हुई ज्वाला में डालता हैं। हे अग्नि ! आप उन चोरों और मैले कर्म करनेवाले लोगों को अपनी डाड़ों, जबड़ों और दाँतों से खा डालें। हे अग्नि ! जो नकब लगानेवाले, डाका डालनेवाले, ठग और पापकर्म से जीनेवाले हैं, उन अधमों को आप चबा डालें। हे अग्नि ! आप शत्रुता करनेवाले, द्वेष करनेवाले, निन्दा करनेवाले और दम्भ दिखानेवाले दुष्टों को भस्म कर डालें। वेद ने इन मन्त्रों में बतलाया है कि नालायक सेना को नष्ट कर देना चाहिये और समस्त समाज को चाहिये कि वह युद्ध के लिए राजा को उत्तेजित करे। उत्तेजना का उपदेश इस प्रकार है-

तमु त्वा पाथ्यो वृषा समीधे दस्युहन्तमम् । धनञ्जय १६ रोरणे ।। (यजु० ११।३४)

अर्थात् दस्यु के मारनेवाले, घन जीतनेवाले और अन्न देनेवाले तुझ राजा को हम प्रदीप्त कर रण के समय उत्तेजित करें। इस राष्ट्रीय सेना के प्रत्येक योद्धा को किस प्रकार उत्साहित होना चाहिये, उसका उपदेश वेद में इस प्रकार है-

अभी३ दमेकमेकी अस्मि निष्षाळभी द्वा किमु त्रयः करन्ति ।
हरो न पर्षान्प्रति हन्मि भूरि कि मा निन्दन्ति शत्रवोऽनिन्द्राः ।। (ऋ० १०१४८१७)

अर्थात् मैं हूँ तो अकेला ही पर एक, दो, तीन शत्रु भी मेरा कुछ नहीं कर सकते। मैं शत्रुओं को इस तरह कुचल डालूगा, जैसे खलिहान में अन कुचला जाता है। क्योंकि जिनका कोई मार्गदर्शक सेनापति ही नहीं है, वे शत्रु मेरी क्या निन्दा कर सकते हैं ?

कृत्याः सन्तु कृत्याकृते शपथ शपचीयते ।
सुखो रथ इव वर्ततां कृत्या कृत्याकृतं पुनः ।। (अयवं० ५/१४/५)

अर्थात् ये शत्रुनाशक सेनाएं हिंसाकारी और दुर्वचन बोलनेवाले शत्रु के लिए हों। ये शत्रुनाशक सेनाएं हिंसाकारियों में इस तरह चक्कर लगायें, जैसे रथ का पहिया चक्कर लगाता है। इस मन्त्र में बतलाया गया है कि सेनाएं हिसकों, दृष्टों और बदमाशों के दमन के लिये हैं, अतः रथ की भांति वे उक्त बदमाशों के अड्डों और देशों में चक्कर लगाती रहें ।
क्रमशः

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