सप्त ऋषि और इनकी तपस्या कथा का सत्य*

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Dr DK Garg

पौराणिक कथा:-
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, सप्तऋषि की उत्पत्ति ब्रह्मा जी के मस्तिष्क से हुई है।
कहावत है कि हरिद्वार में एक स्थान ऐसा हैं, जहाँ पर सप्त ऋषियों ने एक साथ तपस्या की थी। जब गंगा नदी बहती हुई आ रही थीं तो यहाँ सात ऋषि गहन तपस्या में लीन थे और उन्होंने क्रोध वश कमंडल में गंगा को कैद कर लिया था ताकि गंगा नदी उनकी तपस्या में बाधा ना डाले। इसके बाद तपस्या भंग ना होने की वजह से गंगा नदी स्वतः ही अलग-अलग सात हिस्सों में बंट गई। इसलिए इसे सप्त-धारा यानि सात धारा भी कहा जाता है। यह स्थान सप्त सरोवर या सप्त धारा ऋषि कुंड और सप्तर्षि आश्रम के नाम से भी जाना जाता हैं। आगे चलकर ये सात धाराएं आपस में मिलकर एक सुंदर चैनल बनाती हैं जिसे नील धारा कहा जाता है।
सप्त ऋषियों के जो नाम बताये जाते हैं वो हैं:- 1. वशिष्ठ 2. विश्वामित्र 3. कण्व 4. भारद्वाज 5. अत्रि 6. वामदेव 7. शौनक और बाद में ये ऋषि आकाश में सप्तर्षि के नाम से स्थापित हो गए।

विश्लेषणः- 1) प्रातः काल आकाश में सात तारों का एक मंडल नजर आता हैं। भारतीय वैज्ञानिकों ने देश के महान ऋषियों को सम्मान देने के लिए 7 तारा मंडल का नाम इन्ही ऋषियों के नाम पर रखा जिनको सप्तर्षि मंडल कहते हैं। लेकिन विदेश में ये अलग-अलग नाम से जाना जाता हैं। इन तारों का 7 ऋषियों के भौतिक रूप से स्थापित होने से कोई लेना-देना नहीं हैं। ऐसा सोचना और विस्वास करना अवैज्ञानिक है।

ये आप भी समझते है की हमारी नदियों ,शहरों ,सौरमंडल के सितारों , मनुष्य आदि के नाम किसी ना किसी आधार पर रखे गए है। यधपि ये त
सभी तारे जड़ पदार्थ है और ईश्वर की व्यवस्था के अनुसार ये सौरमंडल का हिस्सा है और कुछ नही।
2) प्राचीन ग्रन्थ वेद के अनुसार और विज्ञान के अनुसार इस सौरमंडल के अतिरिक्त अन्य भी अनगिनत सौरमंडल है जिनमे अन्य सूर्य ,पृथ्वी और जीवन की संभावनाएं है। विज्ञानं अभी तक ईश्वर की इस अदभुत संरचना को नहीं माप पाया है।
3) हमारा देश भारत यानि आर्यावर्त हमेशा से ऋषि, मुनियों व विद्वानों की जन्म भूमि और कर्म भूमि रहा हैं और रहेगा। जिन्होने अपनी विद्वता से जन कल्याण ,धर्म और शिक्षा ,विज्ञान को आगे बढ़ाया। इसमें कोई ज्यादा प्रसिद्ध हो गया और कोई कम।
इन 7 ऋषियों के अलावा अन्य भी अनगिनत ऋषि मुनि पैदा हुए हैं जैसे- परशुराम, द्रोणाचार्य, धन्वंतरि, चरक सुश्रत ,आर्यभट्ट आदि।
परन्तु ये सात ऋषि वैदिक काल के विख्यात ऋषि थे जिन्होंने वेद मंत्रो को विशेष रूप से शोध द्वारा समझा और व्याख्या की। इसलिए ही इनको उपमा द्वारा वेद मंत्रो के रचियता के रूप में भी जाना जाता है ।
इसीलिए अलंकार की भाषा में अति सम्मान के लिए ये कहा जाता है की इन ऋषियों को उत्पत्ति ब्रह्मा के मस्तिष्क से हुई।क्योंकि ये ऋषि ईश्वर द्वारा प्रदत्त असीम प्रतिभा के धनी थे।
वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भरद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक- ये हैं वे सात ऋषि जिन्होंने इस देश को इतना कुछ दे डाला कि कृतज्ञ देश ने इन्हें आकाश के तारामंडल में बिठाकर एक ऐसा अमरत्व दे दिया कि सप्तर्षि शब्द सुनते ही हमारी कल्पना आकाश के तारामंडलों पर टिक जाती है।
प्रचलित कथानक का विश्लेषण:

ये कथा कोई प्रामाणिक नहीं है ,तुकबंदी मे जबरदस्त है। इस बात का कोई प्रमाण नहीं हैं कि ये हरिद्वार कब आए और किसलिए तपस्या की, किस तरह से तपस्या की ,कितने समय की ?
ऋषियो को एकत्र होकर तपस्या की जरूरत क्यों हुई? क्या इनको गंगा नदी के प्रवाह का मालूम नहीं था ? क्या क्रोध करना ऋषियों का लक्षण है? गंगा नदी तो जल का प्रवाह है जो पहाड़ों से बहता हुआ हरिद्वार की तरफ आता है और दूर तक जाता हुआ समुंद्र में मिल जाता है ,गंगा को एक जड़ पदार्थ है ,जिसको चेतन दिखाकर अन्धविश्वास और अज्ञानता का परिचय दिया है।
इस तपस्या का भी कोई प्रमाण नही हैं। सिर्फ एक किवदंती के जो चली आ रही हैं, जो असत्य है।
2. मनुष्य का आकार इतना हैं कि किसी पेड़ के नीचे चारों ओर 6-7 व्यक्ति आराम से बैठ सकते हैं और संध्या भजन कर सकते हैं। गंगा नदी को कमंडल में कैद करने और गंगा का स्वतः 7 हिस्सों में बँट जाने की कथा भ्रामक, असत्य और अवैज्ञानिक ही है। ये बात किसी भी तरह से गले नहीं उतर सकती हैं।
3. तपस्या क्या है -तप का असली अर्थ है त्याग। मनुष्य यदि अपनी सांसारिक आकांक्षाओं और अपने दुर्गुणों का त्याग कर दे, तो वह सच्चा तपस्वी है। सदाचार और सद्गुणों से मन निर्मल बन जाता है। जिसका मन और हृदय पवित्र हो जाता है ।
‘तप’ योग का ही एक घटक है।
पातंजल योगसूत्र के साधनपाद में एक सूत्र है –

“तपःस्वाध्यायेश्वरप्राणिधानानि क्रियायोगः ।”

अर्थात – तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान क्रियायोग है। इन तीन घटकों में से एक है तप। सामान्यतः हम तप का अर्थ समझते हैं – कष्ट झेलना। यह अर्थ अधूरा है, क्योंकि तप का प्रयोजन शरीर, वाणी और मन को निर्मल बनाना है, कष्ट देना नहीं। तप संतुलित जीवनशैली का नाम है। तप का मुख्य उद्देश्य है संतुलित आहार – विहार से शरीर को योगाभ्यास के योग्य बनाना। इसलिए शास्त्रकारों ने ऐसे तप का प्रतिपादन किया जो चित्त को निर्मल तथा प्रसन्न रखे और योग में बाधक न बने।

शरीर के तप में जैसे भोजन के संबंध में सम्यक आहार की बात कही है वही बात निद्रा के बारे में भी सही है। यदि सात घंटे से अधिक सोना तमोगुण को बढ़ाता है तो चार घंटे से कम सोना योगाभ्यास के समय निद्रा ला सकता है। अतः मध्यम मार्ग अपनाना चाहिए।

शरीर के समान वाणी का तप मितभाषिता में है। हित – मित वचन बोलना वाणी का तप है। अपवित्र विचारों से बचना मन का तप है। ये सभी तप योगाभ्यास के साधन के रूप में किये जाने चाहिए न कि सम्मान प्राप्त करने अथवा अलौकिक शक्तियों को पाने के लिए जिनके द्वारा दूसरों को चमत्कृत किया जा सके या किसी को लौकिक लाभ या हानि पहुँचाई जा सके। तब ही वह तप सात्विक कहलायेगा।

जब शरीर, मन और वाणी निर्मल होते हैं, तभी स्व का अध्ययन यानी स्वाध्याय हो सकता है और तभी ईश्वर प्रणिधान (अपने सभी कर्मों को ईश्वरार्पित कर देना) हो सकता है।

  1. वेद मंत्र और उसका भावार्थ : अग्निरत्रिं भरद्वाजं गविष्ठिरं प्रावन्नः कण्वं त्रसदस्युमाहवे। अग्निं वसिष्ठो हवते परोहितो मृळीकाय पुरोहितः ॥ ऋग्वेद 10/150/ 5
    भावार्थ:- मन्त्रों में अग्नि रूप परमेश्वर को सुखप्राप्ति के लिए आवहान करने का विधान बताया गया है। ईश्वर से प्रार्थना करने और यज्ञ में पधारकर मार्गदर्शन करने की प्रार्थना की गई हैं। धन संसाधन, बुद्धि सत्कर्म, इच्छित पदार्थों, दिव्य गुणों आदि की प्राप्ति के लिए व्रतों का पालन करने वाले ईश्वर की उपासना का विधान बताया गया हैं।
    आनंद प्राप्ति का कार्य पुरोहित वशिष्ट के माध्यम से गुणों को धारण करने पर होता हैं। ईश्वर अपनी आदित्य, रूद्र और वसु तीन दिव्यशक्तियों के साथ आकर हमें आनंदित करता हैं। इस सूक्त में आये पांच ऋषि, अत्रि, भरद्वाज, गविष्ठिर, कण्व और त्रसदस्यु हैं।

इसलिए हमारे यहाँ सप्तर्षि की पूजा भी की जाती है ,पूजा का मतलब है उनके द्वारा किये वेद मंत्रो के शोध /भावार्थ को धारण करना ,आचरण में लाना है लेकिन पूजा के नाम पर भूखे रहकर और पत्थर की मूर्ति को प्रतीक के रूप में भोग लगाना अंधविस्वास है।
इसलिए यदि वास्तविक रूप में सप्तर्षि की पूजा करनी हैं तो उनके ज्ञान को ग्रहण करे और वेद मन्त्रों का पाठ करते हुए जीवन में अपनाएं।
ये कथानक असत्य है।

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