मेरे जीवन में, मेरी जिह्वा के मूल में कर्मो की मिठास हो*
वेद वाणी
मधुशास्त्र विद्या की महिमा का वर्णन है, मेरी जिह्वा के अग्रभाग और मूल में मिठास का झरना हो, मेरे प्रत्येक कर्म और बुद्धि, अन्त:करण में मधुरता हो!
(जिह्वाया अग्रे मधु मे जिह्वा मूले मधुलकम्!ममदेह क्रतावसो मम चित्तमुपायसि!) अथर्व १-३४-२
शब्दार्थ मे जिह्वाया: अग्रे मधु जिह्वामूले मधूलकम् मेरी जिह्वा के अग्रभाग में मिठास हो, जिह्वा के मूल में और अधिक मिठास हो! हे मधो! तू इत् अह मम क्रतौ अस: मम चित्तमुपायसि अवश्य ही मेरे प्रत्येक कर्म में, बुद्धि में विद्यमान रह और मेरे अन्त:करण के चित्त प्रदेश तक व्याप्त हो जा!
व्याख्या मै प्रत्येक वस्तु के सेवन द्वारा मधुरता बसाना चाहता हूँ, तुम मेरे सम्पूर्ण जीवन में घुल कर माधुर्य युक्त कर दो! मै वाणी से मीठा बोलूँ, जीभ के मूल और अग्र भाग में मिठास हो
हे प्रभु! जो जन केवल स्वार्थ के लिए मधुरता का आश्रय लेते हैं, वे अंदर से द्वेष रखते हुए जिह्वा में मधुरता प्रकट करते हैं, उन्हें ये मालूम होना चाहिए कि ऐसी मधुरता से कटुता लाख दर्जे अच्छी है, झूठी मधुरता से कोई काम सिद्ध नहीं होता है! वे माधुर्य की असली शक्ति को नहीं समझते हैं, अतः मेरी वाणी से जो मानस स्त्रोत का झरना बहता है, एक एक कर्म मधुमय पुष्पों को बरसता है! हे माधुर्य! तुम हमारी एक एक चेष्टा, गति व्यवहार में समाये हुए रहो, अपितु मेरी सोच, विचार, निश्चय में तेरा वास हो! मेरे अहर्निश का प्रत्येक संकल्प भी मधुमय हो! हे मधुमय प्रभु! मेरे अन्त:करण, चित्त प्रदेश में माधुर्य से वासित हो जाए! मैं अपनी स्मृति में स्वप्न में भी कभी कोई द्वेष अमैत्री व कटुता न रखूं! हे प्रभु! मैं तुम्हारे मधुरुप का उपासक हुआ हूँ! मन्त्र का भाव है कि- मेरे जीवन में, मेरी जिह्वा के मूल में कर्मो मिठास हो
सुप्रभात सुमन भल्ला
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