महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां अध्याय- १७ क महर्षि गौतम और चिरकारी
( धर्मराज युधिष्ठिर ने धर्म और नीति के मर्मज्ञ भीष्म पितामह से उनके अंतिम क्षणों में राजधर्म की शिक्षा के साथ-साथ लोक धर्म की शिक्षा भी ग्रहण की। धर्मराज युधिष्ठिर एक न्यायप्रिय प्रजावत्सल सम्राट थे। महाभारत के युद्ध से पूर्व भी वह इंद्रप्रस्थ के राजा रह चुके थे। उन्हें राजनीति और राजधर्म का स्वयं भी गहरा ज्ञान था । इसके उपरांत भी वह शिष्य-भाव से राजनीति और राजधर्म विषयक प्रश्नों को कर भीष्म पितामह से और भी अधिक ज्ञान ग्रहण करना चाहते थे। यह उनकी अहंकारशून्यता और प्रजाहितचिंतक होने की भावना का प्रमाण है।
उन्होंने भीष्म पितामह से अत्यंत विनम्रता के साथ पूछा कि “पितामह ! मुझे यह बताने का कष्ट करें कि यदि कोई ऐसा कार्य उपस्थित हो जाए जो गुरुजनों की आज्ञा के करण किया जाना आवश्यक कर्तव्य हो परंतु हिंसा युक्त होने के कारण अनुचित भी हो तो ऐसे अवसर पर उस कार्य की परीक्षा कैसे करनी चाहिए? उस समय धर्मराज युधिष्ठिर ने यह भी पूछा कि “इस प्रकार के कार्य को शीघ्रता से कर देना चाहिए या उस पर थोड़ा बहुत विचार भी करना चाहिए?”
यह प्रश्न पूर्णतया लोक व्यवहार से जुड़ा हुआ था। जीवन में ऐसे क्षण आते हैं जब हम काम करने न करने के धर्म संकट में फंस जाते हैं। धर्मराज युधिष्ठिर के मुंह से इस प्रकार के प्रश्न को सुनकर भीष्म जी ने कहा कि राजन ! इस विषय में इतिहासवेत्ता प्राचीन इतिहास का उदाहरण इतिहास दिया करते हैं। आंगिरस कुलोत्पन्न चिरकारी की कहानी इस प्रसंग में बहुत विचारणीय है।
– लेखक )
आंगिरस कुलोत्पन्न चिरकारी की कहानी को सुनाते हुए भीष्म जी ने बताया कि “महर्षि गौतम के एक महाज्ञानी पुत्र थे। जिनका नाम चिरकारी था। वह अपने प्रत्येक कार्य को बहुत सोच समझकर किया करता था। सोच विचार कर किए गए कार्यों में विलंब हो जाने से ही उनका नाम चिरकारी हो गया था अर्थात जो चिरकाल तक विचार करने के पश्चात काम को करता है।
उसकी इस प्रकार की कार्यशैली को देखकर कई लोग उसे आलसी, निकम्मा, अकर्मण्य कहते तो कई उसकी प्रशंसा करते। किसी व्यक्ति की दृष्टि में वह अदूरदर्शी था। किसी की दृष्टि में मंदबुद्धि वाला था तो किसी की दृष्टि में वह दुर्बुद्धि भी था, परंतु वह इन सब बातों की परवाह किए बिना अपनी कार्यशैली को बदलना उपयुक्त नहीं मानता था। उसे अपनी दुनिया की अलग मस्ती का एक नशा चढ़ चुका था। जिससे वह अपने आपको आनंदित अनुभव करता था और उस दुनिया से वह लौटने को तैयार नहीं था।
एक दिन की बात है कि महर्षि गौतम ने अपनी पत्नी द्वारा किए गए किसी व्यभिचार पर अत्यंत क्रुद्ध होकर अपने दूसरे पुत्रों को न कहकर चिरकारी से कह दिया कि “पुत्र ! तू अपनी इस व्याभिचारिणी और पापिनी माता का वध कर दे। इसके इस प्रकार के आचरण से कुल को अपयश और अपकीर्ति का भागी बनना पड़ा है। मैं नहीं चाहता कि इस प्रकार की कोई महिला मेरे परिवार में रहे। तुझे मेरा कहना मानकर यथाशीघ्र मेरी आज्ञा का पालन करना चाहिए।”
उस समय महर्षि गौतम ने जो कुछ कहा था उस पर उन्होंने पूर्ण मनोयोग से विचार नहीं किया था । शीघ्रता में आवेश के कारण उन्होंने अपने पुत्र को यह आदेश दे दिया था। यदि महर्षि गौतम को अपने आदेश से पहले कुछ सोचने का अवसर मिल गया होता तो निश्चित रूप से वह इस प्रकार का आदेश अपने पुत्र को जारी नहीं करते। महर्षि गौतम तो इस आदेश को देने के पश्चात वनों में चले गए, पर उनका पुत्र चिरकारी सोच में पड़ गया। उसने अपने पिता के समक्ष तो कह दिया कि “बहुत अच्छा”, पर उसके पश्चात वह उस काम के करने न करने के परिणामों पर विचार करने लगा। करने के पक्ष में अपने आप ही तर्क देता और फिर उनके विपरीत वितर्क प्रस्तुत करता। इसी प्रकार न करने पर भी तर्क वितर्क स्वयं करता। वह एक मौन न्यायालय बन चुका था, जिसके भीतर एक अजीब सी बहस चल रही थी।
वह सोच रहा था कि मैं किस उपाय से इस कार्य को करूं ? जिससे पिता की आज्ञा का उल्लंघन भी ना हो और माता का वध भी ना करना पड़े। धर्म निभाने के बहाने वास्तव में मुझ पर इस समय एक महान संकट आ चुका है। दुष्टों की भांति मैं इसमें डूब नहीं सकता। मुझे साहस करके इससे बाहर निकलना पड़ेगा। पिता की आज्ञा का पालन करना जहां मेरे लिए परम धर्म है वहीं माता की रक्षा करना भी मेरा धर्म है। पुत्र कभी भी स्वतंत्र नहीं होता। वह सदा माता-पिता के अधीन रहता है। अतः मैं क्या करूं, जिससे मुझे धर्म की हानि रूप पीड़ा की अनुभूति ना हो?
चिरकारी सोच रहा था कि मेरी माता जहां मेरे लिए मां है, वहीं वह एक नारी भी है। माता का वध करके कोई भी पुत्र संसार में सुखी नहीं रह सकता। दूसरी ओर पिता की आज्ञा का अनादर करना भी मेरे लिए कष्टकारी होगा। यदि मैंने ऐसा किया तो इससे भी मेरी प्रतिष्ठा दागदार हो जाएगी।
चिरकारी इस बात को भली प्रकार जानता था कि पुत्र माता की ममता का संपूर्ण प्रीतिरूप है। अपनी ममता को प्रकट करते हुए माता पुत्र के लिए अपना सर्वस्व उंडेल देती है। कुछ भी ऐसा शेष नहीं रहता जिसे वह पीछे के लिए बचा कर रखना चाहे । इसी प्रकार पिता पुत्र का सर्वस्व है। पिता की कल्पनाएं और अपेक्षाएं प्रत्येक पुत्र या पुत्री को आगे बढ़ने की प्रेरणा देती हैं। पिता अपनी संतान को संसार के शीर्ष पर देखना चाहता है। अतः पिता के आदेश का पालन करना चाहिए। उसमें कभी भी ‘किंतु – परंतु’ का विचार नहीं करना चाहिए। पिता की आज्ञा का पालन करने से पातक भी नष्ट हो जाते हैं । पिता धर्म है। पिता स्वर्ग है। और पिता ही सबसे बड़ी तपस्या है। यदि संसार में रहकर मनुष्य अपने पिता को प्रसन्न कर लेता है तो समझो सभी देवता प्रसन्न रहते हैं।
डॉ राकेश कुमार आर्य
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