16 संस्कार और भारतीय संस्कृति : भाग 7
- विवाह संस्कार
विवाह जैसे पवित्र संस्कार को देने वाला भारत सचमुच महान है । क्योंकि उसने जब विवाह संस्कार जैसा पवित्र संस्कार संसार को प्रदान किया तो उसने समाज से सारी अनैतिकता , पापाचार , व्यभिचार को समाप्त करने और मनुष्य को पशु बनने से रोकने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाया । उसकी ओर से दी गई यह व्यवस्था संसार में दिव्य संस्कृति के प्रचार प्रसार के लिए दी गई व्यवस्था थी । पश्चिमी जगत या इस्लाम ने इस पवित्र संस्कार को या तो अपनाया नहीं या अपनाकर भी उसके साथ अन्याय किया । उसी का परिणाम है कि संसार आज पापाचार , व्यभिचार और नारी जाति के साथ होने वाले अन्याय और अत्याचारों का शिकार बन रहा है। जिसके कारण सर्वत्र अशांति और कोलाहल फैल गया है।
विवाह संस्कार समान गुण , कर्म , स्वभाव वाले युवक-युवतियों के मध्य परस्पर बहुत ही स्वस्थ सहमति के आधार पर कराया जाता था । जिसमें माता-पिता की सहमति और अनुमति आवश्यक होती थी। जहां-जहां आज इस संस्कार की इस पवित्र भावना का उल्लंघन किया जा रहा है , वहीं वहीं संबंधों में तनाव है और परिवारों के टूटने के साथ-साथ दिलों के टूटने की घटनाएं भी दिनानुदिन अप्रत्याशित रूप से बढ़ती जा रही हैं।
गृहस्थाश्रम को हमारे देश में सबसे अधिक सम्माननीय आश्रम माना गया है । इसका कारण यह है कि यही आश्रम अन्य आश्रमवासियों को सहारा देता है । सारे संस्कार इसी आश्रम में रहकर संपन्न किए जा सकते हैं । इसके अतिरिक्त संपूर्ण भूमंडल पर सभी प्राणियों का हितचिंतन भी इसी गृहस्थ में रहकर व्यावहारिक रूप में क्रियान्वित किया जा सकता है । कोई वानप्रस्थी या संन्यासी या उससे पहले ब्रह्मचर्य आश्रम का ब्रह्मचारी सैद्धांतिक ज्ञान रख सकता है , परंतु व्यावहारिक ज्ञान गृहस्थी ही रखता है। इसी आश्रम में रहकर हम मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं । यही कारण रहा कि विद्वानों ने ग्रहस्थाश्रम को मोक्ष का आश्रम कहा है । इसे अविराम गति कहा गया है । प्रशिक्षित गति कहा गया है । एक ऐसी ज्योति कहा गया है जिससे आत्मज्योति को प्रकाशित करने का दुर्लभ अवसर उपलब्ध होता है, और जीव आनंद में विलीन होने के लिए सच्चे मन से कार्य कर सकता है। पश्चिमी जगत ने गृहस्थाश्रम को जिस प्रकार व्यभिचार का प्रमाणपत्र मानने का अपराध किया है उससे इस आश्रम की गरिमा को ठेस पहुंची है । साथ ही संसार में अराजकता का विस्तार हुआ है । भारत आज भी इसलिए शांत है कि उसकी मौलिक चेतना में गृहस्थाश्रम का सुंदर स्वरूप आज भी सारे ग्रामीण अंचल में बहुत सुंदरता के साथ समाविष्ट है और बड़ी उत्तमता से अपना कार्य धर्म अनुसार संपादित कर रहा है।
किसी विद्वान ने गृहस्थ आश्रम के बारे में बहुत सुंदर कहां है :– ” परिवार गृहस्थाश्रम व्यवस्था है जिसमें माता-पिता, पति-पत्नी, भाई-भाई, बहन-बहन, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, भृत्य आदि सदस्य समनस्वता, सहृदयपूर्वक, एक स्नहिल बन्धन से युक्त हुए, समवेत श्रेष्ठता का सम्पादन करते, एक अग्रणी का अनुसरण करते, उदात्त संस्कृति का निर्माण करते हैं।
पति-पत्नी की वैदिक संकल्पनानुसार पति ज्ञानी, पत्नी ज्ञानी, पति सामवेद, पत्नी ऋग्वेद, पति द्युलोक, पत्नी धरालोक। पति-पत्नी दुग्ध-दुग्धवत मिलें। प्रज उत्पन्न करें। “
आज विवाह वासना-प्रधान बनते चले जा रहे हैं। रंग, रूप एवं वेष-विन्यास के आकर्षण को पति-पत्नि के चुनाव में प्रधानता दी जाने लगी है, यह प्रवृत्ति बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। यदि लोग इसी तरह सोचते रहे, तो दाम्पत्य-जीवन शरीर प्रधान रहने से एक प्रकार के वैध-व्यभिचार का ही रूप धारण कर लेगा। पाश्चात्य जैसी स्थिति भारत में भी आ जायेगी। शारीरिक आकषर्ण की न्यूनाधिकता का अवसर सामने आने पर विवाह जल्दी-जल्दी टूटते-बनते रहेंगे। अभी पत्नी का चुनाव शारीरिक आकषर्ण का ध्यान में रखकर किये जाने की प्रथा चली है, थोड़े ही दिनों में इसकी प्रतिक्रिया पति के चुनाव में भी सामने आयेगी। तब असुन्दर पतियों को कोई पत्नी पसन्द न करेगी और उन्हें दाम्पत्य सुख से वंचित ही रहना पड़ेगा।
समय रहते इस बढ़ती हुई प्रवृत्ति को रोका जाना चाहिए और शारीरिक आकषर्ण की उपेक्षा कर सद्गुणों तथा सद्भावनाओं को ही विवाह का आधार पूवर्काल की तरह बने रहने देना चाहिए। शरीर का नहीं आत्मा का सौन्दयर् देखा जाए और साथी में जो कमी है, उसे प्रेम, सहिष्णुता, आत्मीयता एवं विश्वास की छाया में जितना सम्भव हो सके, सुधारना चाहिए, जो सुधार न हो सके, उसे बिना असन्तोष लाये सहन करना चाहिए। इस रीति-नीति पर दाम्पत्य जीवन की सफलता निर्भर है।
- वानप्रस्थ संस्कार
बहुत अधिक सावधानी बरतने के उपरांत भी गृहस्थ आश्रम ऐसा है जिसमें कहीं ना कहीं आलस्य ,प्रमाद या किसी भी कारण से कोई न कोई त्रुटि हो जाती है । जिससे शक्ति , सामर्थ्य ऊर्जा आदि तो नष्ट होते ही हैं साथ ही व्यक्ति से कई बार अनैतिक आचरण का निष्पादन भी जाने – अनजाने में हो जाता है या उसकी संभावना बनी रहती है । इन सब त्रुटियों से उत्पन्न हुई शारीरिक , मानसिक या आत्मिक दुर्बलता को फिर से सुदृढ़ करने के लिए वानप्रस्थ आश्रम की व्यवस्था की गई है। जिसमें व्यक्ति अपनी शक्तियों का गुणात्मक परिवर्तन और परिवर्द्धन करता है। व्यक्ति अपनी इस प्रकार की शक्ति का संचय योगाभ्यास के माध्यम से करता है । जिसमें वह मानसिक पापों से भी अपने आप को बचाता है । जाने – अनजाने में अभी तक के जीवन में हुए दोषों या पापों का प्रायश्चित कर मन शुद्धि पर विशेष बल देता है।
वानप्रस्थी होने का सही समय विद्वानों ने पुत्र के भी पुत्र के आ जाने की अवस्था को माना है , अर्थात जब पुत्र का भी पुत्र आ जाए तो फिर व्यक्ति को गृहस्थ आश्रम से वानप्रस्थी होने की तैयारी कर लेनी चाहिए।
यहां व्यक्ति को स्वाध्याय के माध्यम से अपनी आत्मिक व मानसिक शक्तियों को सुदृढ़ करना चाहिए। स्वाध्याय का अर्थ सदग्रंथों का अध्ययन मात्र ही नहीं है अपितु अपने आज तक के जीवन का अध्ययन करने से भी है कि मैंने कितने शुभ कार्य किए और कितने अशुभ कार्य किए ? शेष जीवन को मैं कैसे सुंदर और प्रेरणादायी बना सकता हूं ? – इत्यादि बातों को विचार कर आत्मचिंतन में डूबना और फिर जीवन को मोक्षदायी कार्यों में लगा देना ही इस आश्रम का उद्देश्य है।
वन के लिए प्रस्थान करना ही वानप्रस्थ है । इस अवस्था में जब व्यक्ति जाता है तो उस समय उसकी तीसरी पीढ़ी आ जाती है । तीसरी पीढ़ी के आने का आना ही इस बात का संकेत है कि अब वनों की ओर चलो । इस प्रकार भारतीय संस्कृति तीन पीढ़ियों को एक साथ न रखने की बात करती है । वह पिछली से पिछली पीढ़ी को अर्थात जो व्यक्ति दादा या नाना बन गया है , उसके समक्ष एक बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा देती है कि अब तुझे गृहस्थ को अपनाना है या वनों में जाकर अपनी आत्मिक उन्नति करनी है ?
डॉ राकेश कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत