महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां अध्याय – १५ क इंद्रदेव और ऋषि कुमार का संवाद

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( हम अपने गायत्री मंत्र में शुद्ध बुद्धि की उपासना करते हैं । यदि व्यक्ति की बुद्धि शुद्ध है तो वह प्रत्येक विषम परिस्थिति से तो निकल ही जाएगा बल्कि जीवन को भी उत्तमता से जीने का अभ्यासी बन जाएगा। एक प्रेरणास्पद व्यक्तित्व तभी बनता है जब व्यक्ति की बुद्धि शुद्ध, पवित्र और निर्मल होती है। क्योंकि शुद्ध ,पवित्र और निर्मल बुद्धि मनुष्य को किसी भी प्रकार का पाप नहीं करने देती है और सदा धर्म का अनुगामी बने रहने की शिक्षा देती है। एक प्रकार से शुद्ध बुद्धि व्यक्ति का संतुलन बनाए रखकर संसार में उसे साधकर चलने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। शुद्ध बुद्धि की भी साधना करनी पड़ती है। हमारे ऋषि, मुनि, महात्माओं ने शुद्ध बुद्धि की उपासना करते हुए अनेक प्रकार के आविष्कार किये। इसी बात के दृष्टिगत युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से पूछा कि मनुष्य को बंधु- वर्ग, कर्म , धन अथवा बुद्धि में से किसका आश्रय लेना चाहिए ? इस पर भीष्म जी ने कहा कि “राजन ! प्राणियों का प्रमुख आश्रय बुद्धि है। जिसकी बुद्धि शुद्ध है, वह संसार में सबसे बड़े ऐश्वर्य का स्वामी होता है। श्रेष्ठ पुरुषों का कहना यही है कि बुद्धि ही स्वर्ग है । इस समय मैं आपको इंद्र और काश्यप के संवाद रूपी प्राचीन इतिहास का प्रसंग सुनाता हूं। – लेखक )

भीष्म जी युधिष्ठिर को इंद्र और काश्यप के संवाद को सुनाने लगे। उन्होंने कहा कि प्राचीन काल में धन के मद में चूर एक धनी वैश्य ने किसी महान तपस्वी ऋषि कुमार काश्यप को अपने रथ से धक्का देकर नीचे गिराने का अपराध किया। रथ से नीचे गिरकर वह ऋषि कुमार जोर से कराह उठा और इतना दु:खी हुआ कि वह आत्महत्या के लिए प्रेरित हो गया। उसने कहा कि अब मैं प्राण त्याग दूंगा। इस संसार के लोग बड़े निष्ठुर हैं जो धनहीन व्यक्ति को सम्मान देना नहीं जानते। ऐसी अपमानित जिंदगी जीना साक्षात मृत्यु ही है। मैं नहीं चाहता कि अब कुछ और देर जीवित रहूं। वह संसार के लोगों की निष्ठुरता को कोसता जा रहा था और आत्महत्या के लिए तैयारी कर रहा था। इस प्रकार वह ऋषि कुमार मरने की इच्छा से प्रेरित हो उठा । तभी वहां पर इंद्रदेव सियार का रूप धारण करके आ गए ।
इंद्रदेव ने उस ऋषि कुमार से कहा कि “हे ऋषि कुमार ! इस समय तुम्हारे भीतर जिस प्रकार आत्महत्या का भाव हावी हो गया है इसके बारे में क्या तुम यह जानते हो कि संसार के सभी प्राणी मनुष्य योनि को पाने की ही इच्छा रखते हैं। वे दिन रात इस यत्न में लगे रहते हैं कि उन्हें किसी प्रकार मनुष्य योनि प्राप्त हो जाए। उसमें भी ब्राह्मणत्व को प्राप्त करना तो सभी को अच्छा लगता है। क्योंकि इसकी सभी प्रशंसा करते हैं। आप स्वयं मनुष्य हैं और ब्राह्मण भी हैं। देव दुर्लभ शरीर को पाकर भी आप इस समय मरने के लिए प्रेरित हो रहे हैं ? मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि तुम इस प्रकार के हीन विचार से क्यों और किसलिए प्रेरित हो रहे हो ? मुझे आपका यह विचार किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं लगता । आत्महत्या करने का विचार संसार से भागने के समान है। तुम्हें अपने लिए गए निर्णय पर विचार करना चाहिए। आत्महत्या किसी भी समस्या का समाधान नहीं है।”
इंद्र के रूप में उपस्थित हुआ सियार आगे कहने लगा कि ” हे मुने! आत्महत्या करना वीरता का प्रतीक नहीं है। इसे कायर लोग अपनाते हैं। तुम्हें संसार के समर क्षेत्र में निराश नहीं होना चाहिए। पलायनवादी दृष्टिकोण अपनाना निरी मूर्खता है। ऐसा विचार मनुष्य की मूर्खता को प्रकट करता है। संसार से निराश नहीं होना चाहिए बल्कि उपस्थित समस्याओं का समाधान एक वीर पुरुष की भांति खोजना चाहिए। अपने आप पर अपने आप ही कुठाराघात करना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है।
जरा देखिए, तुम्हारे पास परमपिता परमेश्वर के दिए हुए दो हाथ हैं, जिन्हें मैं कृतार्थ मानता हूं। इस संसार में जिस व्यक्ति के पास भी एक से अधिक हाथ हैं, उसके जैसा सौभाग्यशाली मुझे कोई दिखाई नहीं देता। तुम्हारे पास दो हाथ हैं और उनके होते हुए भी तुम अपने आपको भाग्यहीन मान रहे हो तो यह तुम्हारी मूर्खता का प्रमाण है। वर्तमान समय में तुम्हें जिस प्रकार अज्ञानता और मूर्खता ने आ घेरा है, उसके भंवरजाल से अपने आपको निकालो।
मैं स्वयं भी चाहता हूं कि तुम जैसा सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हो अर्थात यदि मेरे पास भी दो हाथ हो जाएं तो इससे बढ़कर मेरे लिए कोई अन्य सौभाग्य नहीं हो सकता। आपके भीतर धन प्राप्ति की अभिलाषा है वैसे ही हम पशुओं को हाथ वाले मनुष्यों से हाथ पाने की लालसा बनी रहती है। हम परमपिता परमेश्वर से हर पल यही प्रार्थना करते हैं कि हमें मानव का जन्म दो । जिसमें हमें दो हाथ मिलेंगे। उन दो हाथों के मिलने के बाद हम अपने जीवन में पुरुषार्थ करेंगे और परम लक्ष्य को प्राप्त करेंगे।
सियार कह रहा था कि “हम पशु सदा ही यह सोचते रहते हैं कि यदि हमारे पास भी मनुष्य की भांति हाथ होते तो हम भी धनी होते। हम पशुओं की दृष्टि में हाथों से बढ़कर ईश्वर का दिया हुआ कोई दूसरा वरदान नहीं है । जिसके पास दो हाथ हैं, वह संसार की प्रत्येक वस्तु को प्राप्त कर सकता है। उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं है। हे ब्राह्मण! फिर तुम दो हाथों के होते हुए भी इस प्रकार का कायरतापूर्ण कार्य करने के प्रति प्रेरित क्यों होते हो? तुम्हें ऐसा करने से पहले कुछ सोचना चाहिए।”
वह ब्राह्मण सियार की बातों को बड़े ध्यान से सुनने लगा था। उसकी बुद्धि में उठा हुआ तूफान अब कुछ शांत सा भी होने लगा था। सियार ने ब्राह्मण की मनोदशा को समझते हुए अपना उपदेश जारी रखा और कहने लगा कि “तुम्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि हम पशुओं के पास हाथ न होने के कारण हम अपने शरीर में घुस गए कांटों को भी निकाल नहीं पाते हैं। हमारे शरीर में अनेक प्रकार के छोटे-छोटे जीव जंतु हमें डंसते रहते हैं, और हमारा खून चूसते रहते हैं। हाथ न होने के कारण हम उन्हें भी हटा नहीं पाते। विवश होकर हम अपना खून चुसवाने के लिए अपने आपको अभिशप्त मानते हैं। निश्चय ही तुम मनुष्यों को हमारी इस प्रकार की दशा पर विचार करना चाहिए और अपने लिए परमपिता परमेश्वर द्वारा उपलब्ध अवसरों को एक वरदान के रूप में ग्रहण करना चाहिए।”
सियार की बातों में तार्किकता थी। उसका बौद्धिक दर्शन ब्राह्मण का उचित मार्गदर्शन करता जा रहा था। ब्राह्मण की भी आंखें खुलती जा रही थीं । तब अपनी बात को जारी रखते हुए सियार आगे कहने लगा कि “तुम मनुष्य हो और तुम्हें ईश्वर ने दस उंगलियों से युक्त दो हाथ प्रदान किए हैं। ईश्वर के इस वरदान को तुम अपने लिए कम मत समझो। इन ईश्वर प्रदत्त हाथों से तुम अनेक प्रकार के काम करते हो और उन कुर्मियों को भी हटाते या नष्ट कर देते हो जो तुम्हें डंसते रहते हैं । कुल मिलाकर मनुष्य के पास दो हाथों का होना बहुत बड़े सौभाग्य की निशानी है। इस सौभाग्य को तुम्हें एक वरदान के रूप में देखना चाहिए और इसी सौभाग्य और वरदान के आधार पर जीवन में क्रांति का सूत्रपात करना चाहिए।”
सियार ने ब्राह्मण को समझाते हुए आगे कहा कि “हे ब्राह्मण! जिनके पास दो हाथ होते हैं वह मनुष्य वर्षा ,सर्दी और धूप से अपनी रक्षा कर लेते हैं। वह अपने आप मन चाहे वस्त्र पहन लेते हैं । सुख पूर्वक अन्न खाते हैं । अपने आप अपना बिस्तर लगाकर सोते हैं और एकांत स्थान का उपभोग करते हैं।”
सियार कह रहा था कि “जो दु:ख बिना हाथ वाले दीन दुर्बल और बेजुबान प्राणी सहते रहते हैं, उसके कष्ट को केवल वही अनुभव करते हैं। उन कष्टों को या दु:खों को तुम्हें सहना नहीं पड़ता, इसलिए तुम जैसे मनुष्यों को अपने आपको सौभाग्यशाली समझना चाहिए।”

डॉ राकेश कुमार आर्य

( यह कहानी मेरी अभी हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तक “महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां” से ली गई है . मेरी यह पुस्तक ‘जाह्नवी प्रकाशन’ ए 71 विवेक विहार फेस टू दिल्ली 110095 से प्रकाशित हुई है. जिसका मूल्य ₹400 है।)

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