ओ३म् -आज ऋषि दयानन्द के 140 वें बलिदान दिवस पर- “भारत भाग्य विधाता ऋषि दयानन्द”
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ऋषि दयानन्द जी का बलिदान 140 वर्ष पूर्व हुआ था। इस अवधि में उनके अनुयायियों एवं आर्यसमाज ने जो कार्य किये हैं उसमें अनेक सफलतायें हैं। ऋषि दयानन्द को हम इसलिये भी स्मरण करते हैं कि उन्होंने हमें असत्य का परिचय कराकर सत्य ज्ञान, सत्य सिद्धान्त व मान्यताओं सहित जीवन को श्रेष्ठ व सफल बनाने वाले कर्तव्यों व अनुष्ठानों से परिचित कराया था। एक बार उनके समय के भारत की स्थिति पर विचार कर लेना उचित होगा। प्रथम बात यह है कि ़ऋषि दयानन्द के कार्य क्षेत्र में अवतीर्ण होने से पूर्व देश घोर अविद्या व अन्धविश्वासों से ग्रस्त था। ईश्वर व जीवात्मा के सत्यस्वरूप से वह अपरिचित हो गया था। जब ईश्वर का सत्यस्वरूप ही लोगों को पता नहीं था तो सत्य उपासना भी वह नहीं जान सकते थे। देश भर में अविद्या पर आधारित मिथ्या परम्परायें प्रचलित थीं जिनसे हमारा देश व समाज दिन प्रतिदिन निर्बल व रूग्ण हो रहा था। महर्षि दयानन्द के समय में देश अंग्रेजों का गुलाम था। इससे पूर्व यह यवनों वा मुसलमानों का गुलाम रहा। सबने इसका शोषण किया और अमानवीय अत्याचार करने के साथ धर्मान्तरण किया। इस गुलामी का कारण भी अविद्या ही मुख्य था। इस गुलामी के कारण वैदिक धर्म व संस्कृति मिट रही थी और ईसाईयत का प्रचार व प्रसार हो रहा था।
इन विपरीत परिस्थितियों में देश, धर्म और संस्कृति की रक्षा करने का दायित्व ऋषि दयानन्द ने अपने ऊपर लिया और प्रथम उपाय के रूप में वेद, धर्म और संस्कृति का प्रचार आरम्भ किया। वह असत्य व मिथ्या मत एवं उनकी मान्यताओं का खण्डन करने सहित विद्या की बातों, सत्य सिद्धान्तों एवं वैदिक मान्यताओं का मण्डन करते थे। हरिद्वार के कुम्भ के मेले में भी उन्होंने पाखण्डों का खण्डन किया था और हरिद्वार में पाखण्ड खण्डिनी पताका भी फहराई थी। पौराणिक नगरी काशी में जाकर उन्होंने वहां भी पाखण्ड एवं मूर्तिपूजा आदि मिथ्या अवैदिक मान्यताओं का खण्डन किया था। इससे मिथ्या मतों के आचार्यों में खलबली मच गई थी परन्तु सभी मिथ्या मतों के आचार्यों में इतनी योग्यता नहीं थी कि वह सत्य को ंस्वीकार करें अथवा ऋषि दयानन्द की मान्यताओं को असत्य व वेद विरुद्ध सिद्ध करें। इसका परिणाम सन् 16 नवम्बर, 1869 को मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ के रूप में सम्मुख आया। पौराणिक आचार्यों के रूप में लगभग 27 से अधिक काशी के शीर्ष आचार्यों ने अकेले स्वामी दयानन्द जी से शास्त्रार्थ किया। यह सभी आचार्य मूर्तिपूजा, अवतारवाद आदि के समर्थन में वेद का कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सके। स्वामी दयानन्द जी का प्रचार जारी रहा। वह देश के अनेक राज्यों व उनके नगरों में जाकर वेदों का प्रचार करने लगे। सर्वत्र लोग उनके शिष्य बनने लगे। शिष्यों में अधिक संख्या पठित, शिक्षित व ज्ञानी लोगों की हुआ करती थी। सन् 1875 के अप्रैल महीने की 10 तारीख को लोगों के आग्रह पर स्वामी दयानन्द जी ने मुम्बई नगरी के गिरिगांव मुहल्ले में आर्यसमाज की स्थापना की। यह आर्यसमाज काकड़वाडी नाम से प्रसिद्ध है। आर्यसमाज की स्थापना का उद्देश्य वेद और वेदानुकूल सिद्धान्तों एवं मान्यताओं सहित वैदिक जीवन शैली का प्रचार तथा पाखण्ड एवं अन्धविश्वासों सहित मिथ्या व अवैदिक सामाजिक परम्पराओं का उन्मूलन करना था।
स्वामी दयानन्द जी मनुष्यों के भोजन पर भी ध्यान देते थे। वह शुद्ध अन्न से बने भोजन को करने के ही समर्थक थे। मांसाहार, मदिरापान, अण्डे व मछली आदि का सेवन तथा धूम्रपान आदि को वह धर्म की दृष्टि से अनुचित तथा आत्मा को दूषित करने वाला मानते थे। देश को जातिवाद से मुक्त करने का भी स्वामी जी प्रयत्न किया। उन्होंने वैदिक काल में प्रचलित वैदिक वर्णव्यवस्था, जो गुण कर्म व स्वभाव पर आधारित थी, उसके सत्यस्वरूप को देश व समाज के सामने रखा। देश के पतन का मुख्य कारण अज्ञान व अन्धविश्वास ही थे। स्वामी जी ने अज्ञानता व अशिक्षा दूर करने के लिए गुरुकुल शिक्षा प्रणाली का समर्थन किया और उस पर विस्तार से चिन्तन प्रस्तुत किया। इसी का परिणाम कालान्तर में गुरुकुल एवं दयानन्द ऐंग्लो वैदिक कालेज व स्कूलों की स्थापना के रूप में सामने आया। भारत के शिक्षा जगत में यह एक प्रकार की क्रान्ति थी। हमारे पौराणिक भाई नारी शिक्षा का विरोध करते थे। ऋषि दयानन्द ने नारी शिक्षा की वकालत की और बताया कि विवाह गुण, कर्म व स्वभाव की समानता से होता है वा होना चाहिये। अतः नारी का भी पुरुष के समान शिक्षित व विदुषी होना आवश्यक है। नारी यदि शिक्षित होगी तभी उसकी सन्तानें भी शिक्षित व संस्कारित हो सकेंगी। समाज ने ऋषि दयानन्द के इस विचार को अपनाया जिसका परिणाम हम आज देख रहे हैं कि शिक्षा जगत में नारियों की उपलब्धियां पुरुष वर्ग से अधिक देखने को मिलती है। स्वामी दयानन्द जी ने समाज सुधार का जो कार्य किया वह एकांगी न होकर सर्वांगीण था। स्वामी दयानन्द नारी को संस्कारित कर वेद विदुषी बनाना चाहते थे। बहुत सी नारियां वेद विदुषी बनीं और आज भी गुरुकुलों का संचालन कर रही हैं। इसके विपरीत पाश्चात्य सभ्यता व संस्कृति के प्रभाव में विवेक के अभाव में बहुत सी नारियों ने भारतीयता की उपेक्षा कर पाश्चात्य नारी के स्वरूप को ग्रहण कर लिया जहां मनुष्य की भौतिक उन्नति तो कुछ-कुछ होती दिखाई देती हैं परन्तु आध्यात्मिक उन्नति प्रायः शून्य ही होती है जिसका परिणाम जन्म-जन्मान्तरों में दुःख के सिवा कुछ होता नहीं है। यह भी बता दें कि स्वामी दयानन्द जी और उनके अनुयायियों वा आर्यसमाज ने जन्मना जातिवाद को समाप्त करने के क्षेत्र सहित दलितोद्धार का भी महान कार्य किया है।
अज्ञान व अन्धविश्वास सहित पाखण्डों का खण्डन करते हुए स्वामी दयानन्द जी ने मूर्तिपूजा, अवतारवाद, जन्मना जातिवाद, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, अज्ञान व अविद्या के सभी कार्यों का खण्डन किया। स्वामी जी ने विद्या का प्रचार व प्रसार करने के लिये सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ऋग्वेद-यजुर्वेद का संस्कृत-हिन्दी भाष्य, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया जिससे देश में अविद्या का प्रभाव व प्रसार कम होकर विद्या का प्रसार न केवल भारत में अपितु विदेशों में भी हुआ। स्वामी दयानन्द जी ने अविद्या को दूर करने व सर्वत्र वैदिक मान्यताओं के अनुसार समाज व परिवार बनाने के लिये आर्यसमाज की स्थापनायें की। सर्वत्र साप्ताहिक सत्संग होने लगे जहां प्रातः यज्ञ-अग्निहोत्र, ईश्वर भक्ति के गीत व भजन तथा विद्वानों के ईश्वर व जीवात्मा के स्वरूप का प्रचार, समाजोत्थान व देशोत्थान की प्रेरणा, मिथ्या मान्यताओं का खण्डन एवं सत्य सिद्धान्तों का मण्डन व प्रचार होता था। ऋषि दयानन्द ने पूरे विश्व को सर्वोत्तम व श्रेष्ठतम उपासना पद्धति भी दी है या यह कह सकते हैं कि वैदिक काल में योग की रीति से जो उपासना की जाती थी, उसका उन्होंने पुनरुद्धार किया। सन्ध्या में किन मन्त्रों से व किस विधि से उपासना की जाये, इस पर न केवल चारों वेदों के चुने हुए मन्त्रों से संकलित उपासना की विधि बताई अपितु अपने सभी ग्रन्थों में ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना पर व्यापक रूप से प्रकाश भी डाला।
आध्यात्म व सामाजिक जगत के उन्नयन व उत्कर्ष का ऐसा कोई कार्य व उपाय नहीं था जिसका उल्लेख स्वामी दयानन्द जी ने न किया हो व जिसको प्रचलित करने के लिए उन्होंने व उनके अनुयायियों ने कार्य न किया हो। स्वामी दयानन्द जी ही पहले व्यक्ति थे जिन्होंने स्वराज्य प्राप्ति का उद्घोष अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में किया था। ऐसा अनुमान है कि सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के ग्यारहवें समुल्लास में अंग्रेजों का तीव्र शब्दों में विरोध ही उनकी मृत्यु के षडयन्त्र का एक कारण बना था। इसकी विस्तार से चर्चा न कर हम पाठकों से अनुरोध करेंगे कि वह सत्यार्थप्रकाश का आठवां समुल्लास व ग्यारहवें समुल्लास सहित आर्याभिविनय, संस्कृत वाक्य प्रबोध एवं व्यवहारभानु आदि सभी ग्रन्थों को पढ़े। हिन्दी को देश की व्यवहार व राजकाज की भाषा बनाने और गोवध बन्द करने के लिये भी ऋषि दयानन्द ने अंग्रेजों की गुलामी के दिनों में अग्रणीय भूमिका निभाई थी। जिन दिनों ऋषि दयानन्द यह कार्य कर रहे थे तब गांधी जी बच्चे थे और अन्य बड़े राजनीतिक नेताओं का जन्म भी नहीं हुआ था। देश की आजादी के क्रान्तिकारी व अहिंसक आन्दोलनों में भाग लेने वालों में आर्यसमाज के अनुयायियों की संख्या सबसे अधिक थी। अंग्रेज भी इस तथ्य से परिचित थे और इसी कारण उन्होंने पटियाला के आर्यसमाज व अन्यत्र भी आर्यसमाज के सदस्यों के उत्पीड़न के कार्य किये। स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपत राय, भाई परमानन्द, राम प्रसाद बिस्मिल आदि ऋषि दयानन्द के समर्पित अनुयायी थे। देश से स्त्री व पुरुषों की अशिक्षा को दूर कर शिक्षा का प्रचार व प्रसार करने में आर्यसमाज की अग्रणीय एवं प्रमुख भूमिका रही है। स्वधर्म एवं स्वसंस्कृति का बोध एवं प्रचार में भी आर्यसमाज का योगदान प्रमुख एवं सर्वाधिक है। ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहां स्वामी दयानन्द ने अपना बौद्धिक योगदान न किया हो। स्वामी दयानन्द जी वस्तुतः विश्व गुरु थे। इसके साथ ही वह भारत के निर्माता और भाग्य विधाता भी सिद्ध होते हैं।
हम ऋषि दयानन्द की महान आत्मा को आज उनके 140वें बलिदान दिवस वा पुण्यतिथि पर अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। आज देश के सामने अनेक चुनौतियां हैं। इन चुनौतियों को परास्त करने के लिये सभी ऋषि भक्तों को आलस्य का त्याग कर वेद प्रचार को जन-जन और घर-घर तक पहुंचाना होगा। सत्य के प्रचार में ईश्वर हमारा सहायक होगा और हमें सफलता अवश्य मिलेगी। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य