इसराइल के पास कोई दूसरा रास्ता भी तो नहीं है
डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
गाजा पट्टी पर हमास का ही कब्जा है । हमास एक आतंकवादी संगठन है जो इज़राइल को समाप्त करना चाहता है । इज़राइल का अस्तित्व 1948 में फ़िलस्तीन के एक हिस्से में हुआ था । वैसे यह क्षेत्र मूल रूप से यहूदियों का ही था । लेकिन कालक्रमानुसार इसी क्षेत्र में ईसा मसीह का जन्म हुआ , जिसने यहूदी विश्वासों से इतर एक नए पंथ को जन्म दिया । यहूदी ओल्ड टैस्टामैंट को अपनी धार्मिक किताब स्वीकारते हैं । लेकिन ईसा मसीह उससे भिन्न उपदेश देने शुरु किए तो उस समय के शासकों ने उसकी अत्यन्त क्रूर तरीक़े से हत्या कर दी । ईसा मसीह के चेले ईसाई कहे जाने लगे । इन चेलों की संख्या भी बढ़ने लगी और साथ ही उनमें ग़ुस्सा भी बढ़ने लगा कि उनके मार्गदर्शक की हत्या यहूदियों ने की थी । इन चेलों ने ईसा मसीह के बचनों को भी संकलित करना शुरु कर दिया और नई पोथी का नाम न्यू टैस्टामैंट रखा , जिसे सामान्य भाषा में बाईबल भी कहा जाता है । ज्यों ज्यों ईसा मसीह के चेले बढ़ने लगे त्यों त्यों उनकी यहूदियों से पार बढ़ने लगी । यहूदियों ने वहाँ से भागना शुरु कर दिया और शेष बचे ईसा मसीह के चेलों में ही शामिल हो गए । लेकिन मामला यहीं शान्त नहीं हुआ । कालान्तर में इसी क्षेत्र में हज़रत मोहम्मद का जन्म हुआ । उन्होंने एक अलग मजहब की शुरुआत की जिसे अरबी भाषा में इस्लाम कहा जाता है । शुरु में तो मोहम्मद साहिब का भी बहुत विरोध हुआ और उनको भाग कर मदीना जाना पड़ा । लेकिन मोहम्मद साहिब ने इन सभी विरोधों का बहादुरी से मुक़ाबला किया और अन्तत: जीत प्राप्त की । धीरे धीरे मोहम्मद साहिब के चेले भी बढ़ने लगे और अब ईसाईयों पर संकट आ खड़ा हुआ । बहुत से ईसाई ही अब इस्लाम पंथ में दाखिल हो गए । फ़िलस्तीन अब इस्लाम मानने वालों का केन्द्र हो गया । यहाँ कभी यहूदी रहते थे , वहाँ अब इस्लाम पंथ को मानने वाले थे । यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि बहुत से लोग तो वही थे जो पहले यहूदी थे , बाद में इसाई हो गए और उसके बाद इस्लाम पंथी बन गए । जो यहूदी ही बने रहे , वे जान बचाने के लिए , फ़िलस्तीन के अलावा दुनिया के हर हिस्से में चले गए । और फ़िलस्तीन ओटोमन साम्राज्य के कब्जे में चला गया । उस पर तुर्कों का झंडा फहराने लगा । कभी अरब , तुर्कों को बुद्ध से हटा कर इस्लाम के पाले में ले आए थे लेकिन उस वक़्त शायद उन्होंने नहीं सोचा था कि वही तुर्क इस्लाम का चोगा पहन कर उन्हीं पर राज करना शुरु कर देंगे । लेकिन इससे यहूदियों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला था । वे तो पूरी दुनिया में दर बदर होकर भटक रहे थे । वे भारत में भी आए थे ।
लेकिन प्रथम विश्व युद्ध ने पासा पलट दिया । इस युद्ध ने ओटोमन साम्राज्य को तोड़ दिया । उसकी ग़ुलामी में दिन काट रहे देश आज़ाद होने लगे । फ़िलस्तीन भी उनमें से एक था । (यह अलग बात है कि कांग्रेस ने उस समय आन्दोलन चलाया था कि ओटोमन साम्राज्य को बरक़रार रखा जाए जिसे ख़िलाफ़त आन्दोलन कहा जाता है) जब फ़िलिस्तीन तुर्कों की ग़ुलामी से आज़ाद हो गया तो यहूदियों में भी आशा जगने लगी थी । इसलिए इधर उधर भटक रहे अनेक सम्पन्न यहूदियों ने फ़िलस्तीन में जमीन ख़रीदनी शुरु कर दी थी और कुछ मे तो वहाँ अपना व्यवसाय भी शुरु कर दिया था । लेकिन यूरोप में हालत फिर बदल रहे थे जिसके कारण एशिया में भी हलचल मचने वाली थी । पिछली सदी के चौथे दशक तक आते आते दूसरा विश्व युद्ध दस्तक देने लगा । लेकिन इस विश्व युद्ध का सबसे बड़ा खमियाजा यूरोप में बसे यहूदियों को ही भुगतना पड़ा । जर्मनी ने तो इन्तहा ही कर दी । यहूदियों को गैस चैम्बरों में डाल डाल कर मारा जाने लगा । घायल जर्मन सैनिकों को बचाने के लिए , यहूदियों का सारा ख़ून निकाला जाने लगा । हाहाकार मच गया । यहूदियों भाग कर कहाँ जाएँ ? वे अमेरिका की ओर भागे । यूरोप के सरकारें ने उन्हें घरों से मुक़ाम निकाल कर शरणार्थी शिविरों में क़ैद कर लिया । दूसरे विश्व युद्ध का यदि किसी को सबसे ज्यादा नुक़सान यहूदियों को ही भुगतना पड़ा । विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई । वहाँ भी यह सवाल उठा कि जगह जगह शरणार्थी शिविरों में दिन काट रहे यहूदियों का क्या किया जाए । तब 1948 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने रास्ता निकाला कि उन को वापिस उन की मूल भूमि में लाकर बसा दिया जाए । मूल भूमि तो उनकी फ़िलिस्तीन थी । उसी के एक हिस्से में उनको बसा कर उनके सनातन देश इज़राइल का नाम भी उनको वापिस दे दिया गया । लेकिन अब तक यह सारा क्षेत्र इस्लाम मजहब में मतान्तरित हो चुके अरब देशों से घिर चुका था । इतिहास का एक चक्र पूरा हो चुका था और अब दूसरा शुरु होने वाला था ।
इस्लाम पंथ में जा चुके अरब देश इन यहूदियों को दोबारा इज़राइल में देखने के इच्छुक नहीं थे । अरब अनेक यहूदी एक । बत्तीस दान्तों में जीभ के समान । दोनों पक्षों में यदा कदा लडाई होने लगी । हैरानी की बात तो यह थी कि यहूदी , ईसाई और इस्लाम पंथी , तीनों ही अपने आप को एक ही पूर्वज अब्राहम की औलाद मानते हैं । लेकिन आपस में लड रहे हैं । जब अरब हार कर थक गए तो लगा कि मिल जुल कर रहना चाहिए , आख़िर एक ही पूर्वज की औलाद हैं तो धीरे धीरे अरब देशों और इज़राइल में सन्धियाँ होने लगीं । दूतावास खुलने लगे । अब तो मामला यहाँ तक आ गया था कि इसलाम के गढ़ सऊदी अरब और इज़राइल में भी निकट भविष्य में बातचीत होने वाली थी । अमेरिका इस का प्रयास भी कर रहा था । गाजा पट्टी के आतंकवादी संगठन हमास को लगा कि यदि ऐसा हो गया तो उसकी अपनी उपयोगिता ख़त्म हो जाएगी ।
लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में एक देश ऐसा था जो पिछले कई सौ साल से अपने लिए अवसर की तलाश कर रहा था । वह है ईरान । ईरान को अरबों को सबक़ सिखाना था । सदियों पहले अरबों ने ईरान पर हमला करके उसे जीत लिया था । जीत ही नहीं लिया था बल्कि उसे बलपूर्वक इस्लाम पंथ में मतान्तरित भी कर लिया था । बहुत से ईरानी उस समय मतान्तरण से बचने के लिए ईरान से भाग कर भारत में भी आ गए थे ,जिन्हें आजकल पारसी कहा जाता है । लेकिन अब ईरान अरबों के आगे विवश था । उसकी सभ्यता संस्कृति ख़त्म हो रही थी । अरबों से बदला लेने का उसे पहला अबसे तब मिला जब मुसलमानों ने हज़रत मोहम्मद के दामाद हज़रत अली और उनके सभी रिश्तेदारों की कर्बला के मैदान में धोखे से हत्या कर दी थी । तब अली के शिष्यों मे शिया पंथ की शुरुआत कर दी । ईरान , अरबों को सबक़ सिखाने के लिए शिया पंथ में चला गया । लेकिन उसने दूसरे अवसर की तलाश नहीं छोड़ी । उसे दूसरा अवसर मिला हमास की सहायता से । हमास इज़राइल पर हमला कर देगा तो अरब देश चाह कर भी इज़राइल के साथ समझौते कर सुखपूर्वक नहीं रह सकेंगे । ईरान चाहता है कि इज़राइल और अरब लड़ते रहें ताकि उनकी शक्ति का क्षय होता रहे । अंग्रेज़ी में इसे कहेंगे bleeding Arabs .
इज़राइल के पास दूसरा रास्ता ही नहीं है । हमास ने हज़ारों इज़राइलियों को नृशंसता से मौत रे घाट ही नहीं उतारा बल्कि सैकड़ों को बन्धक बना कर ले गया है । ईरान हालत को वहाँ तक ले गया है जहाँ से कोई भी पक्ष वापिस नहीं हट सकता । क्या ईरान अरबों से सैकड़ों साल पहले की पराजय का बदला ले रहा है !