ओ३म् “कल्याण मार्ग के पथिक वीर विप्र योद्धा ऋषिभक्त स्वामी श्रद्धानन्द” ( क )
-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
स्वामी श्रद्धानन्द ऋषि दयानन्द के शिष्यों में एक प्रमुख शिष्य हैं जिनका जीवन एवं कार्य सभी आर्यजनों व देशवासियों के लिये अभिनन्दनीय एवं अनुकरणीय हैं। स्वामी श्रद्धानन्द जी का निजी जीवन ऋषि दयानन्द एवं आर्यसमाज के सम्पर्क में आने से पूर्व अनेक प्रकार के दुव्र्यसनों से ग्रस्त था। इन दुव्यर्सनों के त्याग में ऋषि दयानन्द के साक्षात् दर्शनों से प्राप्त प्रेरणा एवं आर्यसमाज के सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों के अध्ययन का बहुत महत्वपूर्ण स्थान रहा। स्वामी श्रद्धानन्द ने अपनी आत्मकथा ‘कल्याण मार्ग का पथिक’ नाम से लिखी है। इस कथा में स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपने जीवन के सभी पक्षों का प्रकाश किया है। उनकी आत्मकथा शायद पहली आत्मकथा है जिसमें एक महापुरुष ने अपने चारित्रिक पतन की घटनाओं का भी विस्तृत एवं समालोचनात्मक वर्णन करते हुए अपने हृदय के सभी भावों को अपने पाठकों के सम्मुख खोलकर रखा है। ऐसा साहस नगण्य लोग ही कर सकते हैं। स्वामी जी की आत्मकथा एवं उनके किये कार्यों पर दृष्टि डालने से उनके प्रति श्रद्धा एवं प्रेम उमड़ता है। आज के युग में हम किसी व्यक्ति से ऐसी अपेक्षा नहीं कर सकते कि वह अपने जीवन की अनेकानेक बुराईयों को दूर कर स्वामी श्रद्धानन्द जी जैसा जीवन व्यतीत कर सकता है। इस लेख में हम उनके प्रमुख कार्यों व घटनाओं को स्मरण कर रहे हैं।
स्वामी श्रद्धानन्द जी का बचपन का नाम बृहस्पति था। आपका जन्म गुरुवार (फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी 1913 व्रिकमी) 3 अप्रैल, सन् 1856 को ग्राम तलवन जिला जालंधर (पंजाब) में लाला नानकचन्द जी क्षत्रिय के घर में हुआ था। पिता पुलिस विभाग में सेवारत रहे। जन्म के कुछ समय बाद पिता से आपको मुंशीराम नाम प्राप्त हुआ था जो संन्यास से पूर्व तक रहा। जन्म के तीन वर्ष बाद बरेली नगर में आपकी शिक्षा आरम्भ हुई थी। 10 वर्ष की अवस्था होने पर सन् 1866 में काशी में आपका उपनयन संस्कार हुआ था। इन दिनों आपके पिता इसी स्थान पर सेवारत व पदासीन थे। 17 वर्ष की अवस्था में आप क्वीन्स कालेज, बनारस में अध्ययन हेतु प्रविष्ट हुए थे। श्री मोतीलाल नेहरू इस कालेज में आपके सहपाठी थे। 21 वर्ष की आयु में मुंशीराम जी का विवाह हुआ। आपकी धर्मपत्नी श्रीमती शिवदेवी जी धार्मिक संस्कारों से ओतप्रोत थी। अपने पतिधर्म का इतनी उत्तमता से निर्वाह किया जिसे स्वामी श्रद्धनन्द जी की आत्मकथा पढ़कर ही जाना जा सकता है। माता शिवदेवी जी के पिता सोंधी परिवार के लाला शालिग्राम थे। सन् 1879 में मुंशीराम जी के जीवन में अनेक घटनायें घटी जिन्होंने पौराणिक रीति से पूजापाठ करने वाले मुंशीराम जी को नास्तिक विचारों का युवक बना दिया था। जिन दिनों आप अपने पिता के साथ बरेली में रह रहे थे, सौभाग्य से तब वहां वेदों के अपूर्व विद्वान तथा वेदों के प्रचारक ऋषि दयानन्द का उपदेशार्थ पधारना हुआ।
स्वामी दयानन्द के बरेली में आयोजित उपदेशों में सुरक्षा की दृष्टि से मुंशीराम जी के पिता नानक चन्द जी को ड्यूटी पर नियुक्त किया गया था। ऋषि दयानन्द के उपदेश सुनने उन दिनों बरेली के बड़े बड़े अंग्रेज अधिकारी भी आया करते थे। उपदेशों में सत्यधर्म की मान्यताओं का उल्लेख व उनका मण्डन तथा असत्य व तर्कहीन बातों का खण्डन किया जाता था। ऋषि दयानन्द ईश्वर में विश्वास रखने वाले उच्चकोटि के महापुरुष व महात्मा थे। अतः मुंशीराम जी के पिता ने मुंशीराम जी को ऋषि दयानन्द के व्याख्यान सुनने के लिए वहां जाने की प्रेरणा की। पिताभक्त मुंशीराम जी अपने पिता की प्रसन्नता के लिये ऋषि दयानन्द के प्रवचनों में गये थे। उन्होंने न केवल उनके उपदेश ही सुने थे अपितु उनसे शंका समाधान भी किया था। इसे हम नास्तिक-आस्तिक संवाद भी कह सकते हैं। ऋषि दयानन्द ने मुंशीराम जी के सभी प्रश्नों व शंकाओं का समाधान कर दिया था। इससे मुंशीराम जी के मन व आत्मा में सच्ची आस्तिकता का बीज पुनः अंकुरित हो गया। समय आने पर वह विचार फला व फूला और उसने मुंशीराम जी को भी एक आदर्श ईश्वर-भक्त तथा देश व समाज का सुधारक ही नहीं बनाया अपितु देश का निर्माता एवं वैदिक धर्म का आदर्श प्रचारक व सेवक बनने का गौरवपूर्ण अवसर भी प्रदान किया। इससे मुंशीराम जी एक आदर्श देशभक्त, समाज सुधारक तथा वैदिक धर्म के उद्धारक व प्रचारक बने। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपनी आत्मकथा ‘कल्याण मार्ग का पथिक’ नाम से लिखी है। इस पुस्तक को सभी पाठकों को पढ़ना चाहिये। इससे उन्हें भी कल्याण के मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्राप्त होगी।
मुंशीराम जी संन्यास धारण करने से पूर्व अपने जीवन में महात्मा मुंशीराम जी के नाम से प्रसिद्ध हुए। आप सत्यार्थप्रकाश पढ़कर व उससे प्रभावित होकर सन् 1875 में आर्यसमाज की स्थापना के 9 वर्ष बाद सन् 1884 में आर्यसमाज, जालन्धर के सदस्य बने थे। अपनी विद्वता, सामाजिक कार्यों एवं संगठन विषयक योग्यता सहित वैदिक धर्म के प्रति समर्पण के कारण आर्यसमाज का सदस्य बनने के दो वर्ष बाद सन् 1886 में ही आप आर्यसमाज जालन्धर के प्रधान चुने गये। आपकी शिक्षा मुख्तारी की परीक्षा पास करने तक हुई थी। आपने सन् 1888 में जालन्धर में वकालत करनी आरम्भ की थी। आप वही मुकदमें लिया करते थे जो सत्य हुआ करते थे। किसी मुकदमें का झूठा होना यदि आपको पता चलता तो उसे आप छोड़ देते थे। अपने ज्ञान एवं पुरुषार्थ से शीघ्र ही आप एक सफल वकील सिद्ध हुए थे। आपने अपनी आय से जालन्धर में एक बड़ी कोठी बनवाई थी जिसे बाद में आपने अपनी अन्तिम सम्पत्ति के रूप में वेद प्रचारार्थ गुरुकुल कांगड़ी को दान कर दी थी। सन् 1889 की बैसाखी के दिन आपने जालन्धर से ‘सद्धर्म प्रचारक’ नामक एक उर्दू पत्र का प्रकाशन आरम्भ किया था। यह पत्र भी अत्यन्त लोकप्रिय हुआ। बाद में हिन्दी की महत्ता के कारण आपने भारी घाटा उठाकर इसका प्रकाशन हिन्दी भाषा में कर दिया। इस पत्र में प्रकाशित महात्मा मुंशीराम जी के लेख व सम्पादकीय पंजाब के पाठकों द्वारा बहुत रुचि से पढ़े जाते थे।
मनमोहन कुमार आर्य
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