शिक्षा का उद्देश्य अभी भी स्पष्ट नहीं
पिछले दिनों केन्द्र सरकार ने शिक्षा पर सबका समान अधिकार मानते हुए इस दिशा में कुछ कदम उठाये हैं। गरीबों को भी अब निजी स्कूलों में अपने बच्चों को पढाने का अवसर मिलेगा। सरकार की नीति है कि पिछड़ा और दलित समाज भी शिक्षा क्षेत्र में अपनी स्थिति को मजबूत बना सके, इसलिए उस क्षेत्र में बढने के लिए गरीबों को राहत देने का प्रयास किया गया है। इस सबके बावजूद भी शिक्षा की दिशाहीनता अभी भी बरकरार है। शिक्षा का उद्देश्य मानव निर्माण न होकर अभी तक एक पढी लिखी मशीन के रूप में नागरिकों का निर्माण करना रहा है। रोजगार देना और उपभोक्तावादी संस्कृति को बढावा देना प्रचलित शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य है। लार्ड मैकाले ने जब इस शिक्षा पद्घति को लागू किया था तो उस समय उसे ब्रिटिश साम्राज्य के हितों की रखवाली के लिए भारत में पढे लिखे अंग्रेजीदां नवयुवकों की आवश्यकता थी। भारत के पढे लिखे नवयुवकों को नौकरी देकर उन्होंने बबून (एक विशेष प्रजापति का बंदर) कहा। बाद में ये शब्द बाबू के रूप में रूढ़ हो गया। इन बाबुओं की फौज को ही वर्तमान शिक्षा प्रणाली तैयार करती आ रही है। रोजगार देना व पाना ही इस शिक्षा नीति का उद्देश्य रहा। अंग्रेजी जमाने में ब्रिटिश राजभक्त नौकरी पेशा वर्ग इस शिक्षा प्रणाली ने तैयार किया तो वर्तमान में ईसाई मत और पश्चिमी संस्कृति के नंगेपन को अपने लिए वरदान मानकर चलने वाले उच्छं्रखल युवकों का निर्माण यह शिक्षा प्रणाली कर रही है। एक सुसभ्य और सुसंस्कृत मानव समाज यह शिक्षा प्रणाली नहीं बना पायी। जबकि शिक्षा का उद्देश्य सुसभ्य और सुसंस्कृत उन्नत गुणों से संपन्न मानव समाज का निर्माण करना ही होता है। रोजगार तो ऐसे मानवीय गुणों से संपन्न व्यक्ति के पीछे स्वयं ही घूमता है। विद्वान का सर्वत्र सम्मान होता है, उसके गुणों के कारण उसका हर स्थान पर पूजन होता है। यह बात हमारे भारतीय समाज में रूढ़ थी, परंतु आज पढा लिखा आदमी एक दूसरे के कान काटने में माहिर हो गया है। इसलिए आज उससे बचके रहने की बातें की जाती हैं। यह शिक्षा की दिशाहीनता का ही परिणाम है। जब मैकाले ही यहां से चला गया है तो अब हम उसकी शिक्षा नीति को बंदरिया के मृत बच्चे की तरह क्यों ढो रहे हैं। आज शिक्षा नीति में व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता है। मजहबी तालीम पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाया जाए। धार्मिक शिक्षा को अनिवार्य किया जाए। ज्ञात रहे मजहबी तालीम धार्मिक शिक्षा नहीं होती है। मजहबी तालीम का अर्थ है पंथीय शिक्षा को बढावा देना, मानव को दानव बनने के लिए प्रेरित करना। जबकि धार्मिक शिक्षा का उद्देश्य होता है व्यक्ति को मानवतावादी बनाना। धर्म मानवतावादी होता है, जबकि मजहब दानवतावादी होता है। हमने धर्मनिरपेक्षता के नाम पर शिक्षा क्षेत्र में उतरे मजहबी मदरसों की शिक्षा पर कभी भी प्रतिबंध लगाने की बात नहीं सोची। इसलिए मजहबी तालीम खुले रूप में राष्टï्र और धर्म का अपमान कर रही है। दुर्भाग्यवश अब भी मजहबी तालीम के स्कूलों पर कोई कार्यवाही नहंी की गयी है। उनके विषय में कहा गया है कि वे स्कूल की परिभाषा में नहीं आते हैं। शिक्षा के उद्देश्यों में राष्टï्रवाद और मानवतावाद को शामिल किया जाए। सब मानव ही एक नहीं हैं अपितु सारी सृष्टिï के सारे प्राणधारी एक ही चेतन की परम सत्ता से चेतनित हैं। इसलिए हमारा भाई चारा (बिरादरी, ब्रदरहुड, भ्रातृत्व) हर प्राणी के साथ बढना चाहिए। यदि भाईचारा केवल पंथीय लोगों के प्रति ही माना जाता है तो विपरीत पंथी लोग हमारे लिये पराये हो जाते हैं और देर सबेर हम उन्हें शत्रु मानने लगते हैं। पिछले दो ढाई हजार साल से हम पंथीय मान्यताओं से शासित और अनुशासित रहे हैं। इसलिए उपद्रव और अशांति का माहौल हमारे लिए बना रहा है। इतिहासबोध को हमने खूंटी पर टांग दिया और कभी भी यह लिखने पढने या बोलने का साहस नहीं किया कि पंथीय मान्यताओं के कारण ही वर्तमान विश्व समाज में सर्वत्र अशांति व्याप्त है। हमें अपने समाज में व्याप्त अशांति को शांति में परिवर्तित करने के लिए प्रयास करना चाहिए। हम मशीनी मानव समाज का नहंी अपितु संवेदनाओं से भरे हुए मानव समाज का निर्माण करें। अभी भी समय है। भारत के पास उसका सांस्कृतिक रूप से समृद्घ इतिहास है, उस इतिहास को सही परिप्रेक्ष्य में समझने व मानने की आवश्यकता है। शिक्षा के लिए धर्म शिक्षा को अनिवार्य बनाकर फिर कार्य शिक्षा दी जाए। कर्म के आधार पर वर्ण व्यवसाय निश्चित किया जाए। वर्ण को एक मीढी तक ही लागू रखा जाए। यदि अगली पीढी अपना वर्ण परिवर्तित कर क्षत्रिय से ब्राहमण बन रही है तो उसे ब्राहमण माना जाए। इस प्रकार की मान्यता को समाज में रूढ कर अपने राष्टï्रीय चरित्र के निर्माण में शामिल किया जाए। इससे जाति विहीन समाज की रचना का हमारा सपना और संवैधानिक संकल्प पूरा होगा। शिक्षा सबके लिए हो और समान हो उससे सामाजिक समानता का निर्माण होगा। शिक्षा में जैसी जैसी जिसकी योग्यता होगी, उसे वैसा वैसा रोजगार मिल जाने से आरक्षण जैसी जातीय हिंसा को जन्म देने वाली सामाजिक विसंगति से हमारा छुटकारा हो जाएगा। शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त बुराईयों के प्रति हमने अभी आंखें मूंद रखी हैं अभी हम इस दिशा में सोच नहीं रहे हैं। यद्यपि हमने बहुत कुछ गंवा दिया है। अब समय आ गया है कि हमें सही दिशा में सही निर्णय कर लेना चाहिए।
मुख्य संपादक, उगता भारत