इंद्रियों की शक्तियों का स्रोत क्या है! और कौन इन शक्तियों को पिण्ड में समेट लेता है?
” दोहा”
तत्वार्थ- हमारे धर्म – शास्त्रों में ऋषियों ने बताया है कि ब्रहमाण्ड़ में जो देवता : सूर्य, चन्द्र, जल, अग्नि माने गए है इनका संमवर्ग वायु है अर्थात् वायु इनकी शक्ति को समेट भी लेता है और इनका रक्षण भी करता है। जैसे – वायु के प्रकोप से तेज अंदड़ अथवा बादल छाने पर सूर्य चंद्र और अग्नि शक्तिहीन हो जाते है इसके अतिरिक्त वायु अपने वेग से जल को सुखा देता है। ध्यान रहे वायु इन चार देवताओं का शक्ति स्रोत भी माना गया है जैसे वायु के वेग से मंद अग्नि भी प्रचंड अग्नि बन जाती है सूर्य और चंद्र की किरणो का विकीरण मंद-मंद वायु में अधिक सुहाना होता है समुद्र में उठने वाली लहरों का वेग वायु और भी तीव्र कर देता है ठीक इसी प्रकार हमारे पिण्ड में अर्थात हमारे शरीर में मन इंद्रियों का समवर्ग प्राण माना गया है। प्राण से ही मन और इंदिया क्रियाशील रहती है किन्तु जब प्राण अपनी शक्तियों को समेटने लगता है तो मन और इंद्रिया स्थिल हो जाते हैं अर्थात शक्तिविहीन हो जाते हैं जैसे जब मृत्यु समान संन्किर होती है तो मन इंद्रिया मरने लगते है हृदय की गति मन्द पड़ जाती है नब्ज छूटने लगती है कान सुनना बंद करने देते हैं आँख देखना बंद कर देती है लोग पूछते हैं क्या तुम मुझे पहचान पहचानती हो तो मरनासन व्यक्ति कोई उत्तर नहीं देता है हाथ, पैर ठंडे पड़ जाते है कहना का भाव यह है कि मन – ज्ञान इंद्रियों और कर्म इंडिया पिंड़ में प्राण कि शक्ति क्षीण होने पर चेतना रहित हो जाती है इससे सिद्ध होता है कि जैसे ब्रह्माण में वायु उपरोक्त चार देवताओ का समवर्ग है ठीक-ठीक इसी प्रकार पिंड में सभी इंद्रियों का समवर्ग प्राण है। अर्थात इनकी शक्ति का अजस्र स्रोत हैं।
पिंड़ और ब्रह्माण्ड में कौन किसका संवर्ग है?
ब्रह्माण्ड में वायु समेटता, सूर्य – चन्द्र जल आग । पिण्ड़ में प्राण समेटता, मन- इंद्रियों की बाग।
तत्वार्थ: जैसे की उपरोक्त पोहे में वर्णित है कि ब्रह्माण्ड में सूर्य, चन्द्र, जुल और आग का नियंत्रण वायु करता है ठीक इसी प्रकार पिण्ड़ में मन और इंद्रियों की बाग अर्थात लगाम प्राण के हाथ में रहती है भाव यह है कि ग्राम पिण्ड में प्राण की शक्ति सबै सर्वोपरि है जबकि ब्रह्माण्ड़ में वायु की शक्ति सर्वोपरि है कैसी विचित्र और विभिदता पूर्ण विधाता ने सृष्टि रचाई है और कितनी वैज्ञानिक है यह देखकर और जानकर मन रोमांचित होता है और मुख से निकलता है हे प्रभु! तेरी लीला अपरमपार है इसलिए ऋषि भी यह कहती : नेती – नेती कहते चले गए।