भारतीय संविधान और राष्ट्रपति
15 अगस्त 1947 को जब हम आजाद हुए तो उस समय हमारे पास कोई संविधान नहीं था। ब्रिटेन से हम तब तक प्रशासनिक आधार पर पूरी तरह जुड़े हुए थे। इसलिए हमने आजादी के बाद ब्रिटिश शासन प्रणाली को ही अपने लिए उपयुक्त माना और उसी के मॉडल पर हमने अपने लिए प्रधानमंत्री पद की सृजना की और उसी से काम चलाना शुरू किया। इसलिए फौरी तौर पर व्यवस्था बनायी गयी कि पंडित जवाहर लाल नेहरू देश में प्रधानमंत्री होंगे तो वायसराय लार्ड माउंट बेटन देश के प्रथम गर्वनर जनरल होंगे। गर्वनर जनरल हमारे देश के राष्ट्रपति का पूर्ववर्ती माना जाना चाहिए।
26 जनवरी 1950 को देश के पहले और अंतिम भारतीय गर्वनर जनरल राजगोपाला चारी ने नवनिर्मित संविधान की प्रस्तावना का पाठ किया और भारत में गणराज्य की स्थापना की घोषणा की। लार्ड माउंट बेटन ने 21 जून 1948 को अपना कार्य भार चक्रवर्ती राजगोपाला चारी को दिया था। जिन्होंने 26 जनवरी 1950 को डा. राजेन्द्र प्रसाद को भारत का राष्ट्रपति मनोनीत कर अपना कार्यभार छोड़ दिया। डा. राजेन्द्र प्रसाद के राष्ट्रपति बनते ही गवर्नर जनरल का झंडा उतार दिया गया। इस झंडे के स्थान पर भारतीय गणराज्य का झंडा लहराने लगा।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 52 में लिखा है कि भारत का एक राष्टï्रपति होगा। साथ ही अनु. 53 (1) के अनुसार भारतीय संघ का प्रशासनिक अधिकार राष्टï्रपति में निहित होगा, जो उसका प्रयोग प्रत्यक्षत: या अपने अधीनस्थ पदाधिकारियों के माध्यम से भारतीय संविधान के अनुसार करेगा। इस प्रकार भारतीय संविधान ने भारत के राष्ट्रपति के पद को सर्वाधिक गरिमा मय, श्रद्घामय और सम्मानपूर्ण बनाया है। शासन के कर्णधार लोग कभी-कभी दलगत आधार पर कोई संविधानेतर कार्य कर सकते हैं, या किसी वर्ग विशेष के खिलाफ कोई निर्णय ले सकते हैं, जिससे जनता में शासन के प्रति नीरसता या उदासीनता का भाव पैदा हो सकता है, लेकिन राष्ट्रपति संविधान का रक्षक बनकर बैठा है, वह ऐसे निर्णयों के प्रति राजनीतिक दलों की शिकायतों को या जनता की आवाज को सुनेगा और अपनी सरकार को जन अपेक्षाओं के अनुरूप निर्णय लेने के लिए प्रेरित करेगा, उससे ऐसी अपेक्षा की जाती है। इसलिए पंडित नेहरू ने कहा था भारतीय राष्ट्रपति को मात्र नुमायशी राष्ट्राध्यक्ष बनाने का हमारा लक्ष्य नहीं है। राष्ट्रपति हमारी सुरक्षा सेनाओं का सर्वोच्च पदाधिकारी है। वह प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है और फिर उसी की सलाह पर अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करता है। इस प्रकार देश का शासन अप्रत्यक्ष रूप से एक ऐसे राष्ट्र प्रमुख के हाथों संचालित होता है, जिससे पूरी तरह निष्पक्ष और न्यायपूर्ण होने की अपेक्षा की जाती है। इसलिए राष्ट्रपति के पद पर बहुत ही सुलझे हुए वयोवृद्घ राजनीतिज्ञ को बैठाने की परंपरा भारत में विकसित हुई है। यद्यपि स्वतंत्र भारत में कई बार ऐसे मौके आये जब नगर की रायसीना हिल्स में बैठा राष्ट्र प्रमुख कहीं ना कहीं पूर्वाग्रहग्रस्त है, लेकिन संवैधानिक परंपराओं और मर्यादाओं ने फिर भी भारतीय लोकतंत्र की रक्षा कराई है।
संविधान के अनुच्छेद 75 के अनुसार सभी मंत्री राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त ही अपने पद पर रह सकते हैं। संसद के दोनों सदनों से संयुक्त होकर राष्ट्रपति संसद का अभिन्न अंग बन जाता है। वही दोनों सभाओं की बैठक आहूत करता है तथा उनकी समाप्ति की घोषणा भी करता है, वह अनुच्छेद 85 के अनुसार लोकसभा को भंग भी कर सकता है। राष्ट्रपति दोनों सदनों की संयुक्त बैठक को संबोधित करता है तथा बजट सत्र का शुभारंभ भी राष्ट्रपति के अभिभाषण ासे होता है। राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियां उसे डिक्टेटर बनातीं हैं, पर भारत ने लोकतंत्र के वास्तविक अर्थ को समझ लिया है, इसलिए राष्ट्रपति संवैधानिक प्रमुख से अधिक कभी कुछ नहीं बना। यह स्थिति सचमुच वंदनीय है।