विदेशों में भारतीय संस्कृति

एशिया महाद्वीप में भारतवर्ष की भागोलिक स्थिति अत्यंत महत्वपूर्ण है। एशिया के दक्षिण में भारतवर्ष फेेला हुआ है। प्राचीनकाल से एशिया के प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्रों से भारतवर्ष का संबंध रहा है। वस्तुत: एशिया की समृद्घि और उदय का भारतीय इतिहास से बहुत घनिष्टï संबंध रहा है। संपूर्ण एशिया के इतिहास और संस्कृति पर भारत का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा।
प्राचीन संबंध-
संसार में पाश्चात्य विद्वानों के मत से मेसोपोटामियां की सुमेर और अक्कदी संस्कृतियां एवं मिश्र में नील नदी की घाटी की संस्कृति सबसे पुरानी है। भारतवर्ष में सिंधु प्रदेश की सभ्यता भी इन्हीं की समकालीन थी। मेसोपोटामियां के उर और अन्य नगरों में सिंधु सभ्यता के कारीगरों की बनाई हुई सुंदर कलापूर्ण वस्तुएं मिली हैं। मिश्र के प्राचीन सुरक्षित शवों (ममियों) पर भी भारत की महीन मलमल लपेटी हुई है। प्राचीन संसार को कपास और रूई के वस्त्र भारत की ही देन है। प्राचीन समुद्री व्यापार के उल्लेख हमें वैदिक साहित्य और रामायण में मिलते हैं। महाभारत में तो विदेशों से आवागमन और व्यापार का बहुत विशद वर्णन है। जातककथाओं में बावेरू (बेबीलोन) में भारतीय व्यापारियों के जाने का धन कमाने का उल्लेख है।
अशोक ने (272-232 ई. पू.) उस समय के संसार से अपने राजनैतिक संबंध बनाए। अशोक ने पांच राजाओं के नाम दिये हैं-सीरिया के अन्तियोक, मिश्र के  टालेमी, साइरीन (उत्तरी अफ्रीका) के मग, मकदूनिया के एंटिगोनस और एपिरस (ग्रीस का एक भाग) के अलक्जेंडर। इनसे मौर्य साम्राज्य के राजनैतिक संबंध थे। अशोक ने इन देशों में अपने धर्म प्रचारक भेजे और वहां पपर चिकित्सालय खुलवाये। अशोक के समय में हुई बौद्घ सभा में यह निर्णय हुआ कि विदेशों में बौद्घ-प्रचारक भेजे जाएं। मज्झिम नामक भिक्षु हिमालय के दूर के प्रदेशों में गये। दक्षिण पूर्वी द्वीप समूहों में शोण और उत्तर गये। यवन देशों में भी एक अच्छा प्रचारक मंडल भेजा गया। इसके बाद भारतीयों की दूसरे देशों में जाने और वहां अपना धर्म एवं संस्कृति फेेलाने की जो परंपरा शुरू हुई वह कम से कम पंद्रह सौ वर्षों तक चलती रही। भारतीय प्रचारक जिन देशों में गये उनमें लंका, मध्य एशिया, चीन, जापान, बर्मा, मलाया, सुमात्रा, जावा इत्यादि हैं।
हिंद चीन में स्याम को लेकर तीन बडे भारतीय उपनिवेश बने, जिनमें चम्पा और कंबुज भी थे।
लंका
लंका या सिंहल ने धर्म, भाषा, कला और स्थापत्य में भारत से बहुत कुछ पाया है। प्राचीन अनुश्रुति के अनुसार भारत के एक राजकुमार ने ईसा से छह सौ वर्ष पहले लंका में अपना राज्य स्थापित किया। भारत में वस्तुत: रामायण के समय से लंका एक घरेलू शब्द बन गया। किंतु इतिहास में अशोक ने अपने दूसरे शिलालेख में ताम्रपर्णी (लंका) का जिक्र किया है जहां उन्होंने बौद्घ प्रचारक भेजे थे। लंका में बौद्घ धर्म फेेलाने का काम अशोक के पुत्र महेन्द्र और कन्या संघमित्रा ने किया।
बर्मा
बर्मा को प्राचीन साहित्य में सुवर्णभूमि कहा गया है। बर्मा में ईसवीं सन के आसपास ही भारतीयों के उपनिवेश बन गये थे। पांचवीं से आठवीं शताब्दी तक बर्मा पर भारतीय संस्कृति का बडा प्रबल प्रभाव रहा। बर्मा की लिपि, धर्मशास्त्र और धर्म भारत की ही देन है। कला और स्थापत्य में भी बर्मा पर भारतीय प्रभाव स्पष्टï है। पगान (प्राचीन अरिमर्दनपुर) और प्रोम (प्राचीन श्रीक्षेत्र) के पास मिले एक प्राचीन मंदिर, बुद्घमूर्तियां एवं ताड़ और स्वर्णपत्रों पर लिखे हुए धर्म ग्रंथ आदि इसका प्रमाण है।
चंपा-
चंपा एक हजार वर्ष तक भारतीय संस्कृति का प्रधान केन्द्र रहा है। तीसरी शती ईसवीं में चंपा में हिंदू राजा राज्य करते थे। चौथी शताब्दी में भद्रवर्मन नामक राजा ने मिसोन में एक विशाल शिवमंदिर बनवाया जो बहुत समय तक पूर्व में प्रसिद्घ तीर्थ रहा। आठवीं शती तक संस्कृति भाषा और भारतीय हिंदू धर्म का वहां इतना प्रचार हो गया था कि वह भारत का ही एक प्रदेश कहा जाने लगा। चंपा में पाये गये कुछ संस्कृत लेख प्राचीन भारत में प्रचलित संस्कृति कविता के उत्कृष्टï उदाहरण हैं।
हिन्देशिया
हिन्देशिया के द्वीपों में भारतीय व्यापार के लिए जाया करते थे। ईसा की चौथी और पांचवीं शती के लेखों से पता चलता है कि उस समय जावा (प्राचीन यवद्वीप) में तारूमा नाम के हिंदू राजवंश का शासन था। हिन्देशिया का स्वर्णयुग शैलेन्द्र राजवंश शासनकाल (आठवीं और नौवीं शती) माना जाता है। इस युग में भारत से बहुत अधिक यातायात व आदान प्रदान होता था। शैलेन्द्रों का केन्द्र सुमात्रा (प्राचीन सुवर्णद्वीप) में श्रीविजय का साम्राज्य समूचे दक्षिण पूर्वी एशिया में फेेल गया था। शैलेन्द्रों का भारत और अन्याय पड़ोसी देशों से व्यापारिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक संबंध था। बौद्घमत के अनुयायी होने से इन राजाओं ने अपने साम्राज्य में बहुत से बौद्घ विहार और मंदिर बनवाये। नालंदा विश्वविद्यालय में भी इन्होंने विहार बनवाया। नालंदा से मिले एक ताम्रपत्र से पता चलता है कि सुवर्णद्वीप के शैलेन्द्र सम्राट बालपुत्र ने मगध के राजा से अनुरोध किया कि वे उनके लिए पांच गांव खरीद दें और नालंदा विश्वविद्यालय को दें। जिससे वहां के विदेशी छात्रों के लिए स्थापित विहार का खर्च चल सके।
मलाया-
मलाया (प्राचीन कलयद्वीप) और उसके पास केडा (प्राचीन कटाह) इत्यादि द्वीपों में भी भारतीय राज्य स्थापित हुए थे। इन स्थानों से बहुत सी प्राचीन बस्तियों और मंदिरों के अवशेष मिले हैं। साथ ही गुप्तकालीन और उसके बाद के युग की मूर्तियां बडी मात्रा में मिली हैं। मलाया के वेलेजली प्रदेश में रांगामाटी (बंगाल) के एक भारतीय महानाविक बुधगुप्त का संस्कृत अभिलेख मिला है।
चीन
चीन और भारत के सांस्कृतिक आदान प्रदान का इतिहास पहली शती ईसवीं से लेकर बारह सौ वर्ष तक जाता है। 65 ई में चीनी दूतमंडल के साथ दो भारतीय भिक्षु कश्यप मातंग और धर्मरक्ष चीन गये। इन्होंने चीन में बौद्घधर्म की नींव जमाई। इसके बाद भारतवर्ष से भारतीय विद्वानों का एक प्रवाह बराबर चीन की ओर बहता रहा। चीनी यात्री बहुत बडी संख्या में भारतवर्ष में धर्म की शिक्षा व तीर्थ यात्रा के लिए आते रहे। इनमें गुप्तयुग में आने वाला फाहन और हर्ष के समय में युवानच्वाड मुख्य है। बौद्घ और अन्य भारतीय साहित्य चीनी भाषा में अनूदित होता रहा। यह सारा साहित्य चीनी त्रिपितक की पांच हजार पोथियों में आज भी विद्यमान है। हर्ष के समय में यह संबंध काफी घनिष्टï हो गया था। चीन में भारतीय दूतमंडल भेजे गये और भारत में चीनी दल आया और दस वर्ष तक नालंदा विश्वविद्यालय में रहकर भारतीय विद्याओं का अध्ययन करता रहा। भारत से लौटकर उसने नालंद के आचार्यों को तीन पत्र संस्कृत में लिखे और उनके उत्तर प्राप्त हुए। इससे मालूम होता है चीन और भारतवर्ष के बीच नियमित आवागमन था। बौद्घगया से कई चीनी लेख मिले हैं जिनसे प्रकट है कि मध्ययुग तक बौद्घ तीर्थों की यात्रा करने चीनी भारतवर्ष में निरंतर आते रहते थे।
तिब्बत-
कैलाश और मानसरोवर का प्रदेश होने के कारण तिब्बत भारत के बहुत निकट रहा है। इन तीर्थों की यात्रा के लिए भारतीय महाभारत के समय से ही जाते रहे हैं। ईसा की सातवीं शती में तिब्बत ने बौद्घ धर्म व ब्राही लिपि को अपनाया और उन्हें बहुत थोड़े परिवर्तन के साथ आज तक सुरक्षित रखा है। इसका श्रेय तिब्बत के राजा स्त्रोग-छन-गम्पो को है। चीन के तिब्बत में बहुत सा भारतीय साहित्य अनूदित हुआ जो आज भी सुरक्षित है।
नेपाल
नेपाल से भारत का संबंध बहुत पुराना है। कहा जाता है कि नेपाल की प्राचीन राजधानी ललितपत्तन को अशोक की पुत्री चारूमित्रा और उसके पति अग्निब्रहमा ने बसाया था। भारत के लिच्छिवि लोग इस ईसवी सन के आसपास नेपाल गये और उन्होंने अपना राज्य कायम किया। अपने साथ वे लोग भारतीय संस्कृति को भी ले गये थे। नेपाल की भाषा, साहित्य, धर्म और कला पर भारत का गहरा रंग है। मुस्लिम आक्रमण के कारण जब बंगाल और बिहार के बौद्घ बिहार तोड़ दिये गये, तो बहुत से भिक्षु नेपाल भाग गये। वे अपने साथ बहुत से हस्तलिखित गं्रथ भी ले गये जो आज भी वहां सुरक्षित हैं।
समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति से पता चलता है कि नेपाल भी उसके अधीन राज्यों में से था। गुप्तों के समय में नेपाल की संस्कृति पूर्णरूपेण भारतीय हो गयी थी।
चीनी तुरकिस्तान
यह प्रदेश एशिया का हृदय कहा जाता है। बहुत प्राचीनकाल से ही भारत से इसके निकट के संबंध रहे हैं। महाभारत में भी इस प्रदेश का वर्णन है। युधिष्ठिर के यज्ञ में यहां के लोग सुंदर घोड़े, सोना और समूर लाये थे। प्राचीन बौद्घ और संस्कृत ग्रंथों में इस प्रदेश का नाम कम्बोज था। कम्बोज भारतवर्ष के अंदर ही माना जाता था। चीन और पश्चिम को जोडऩे वाले दो मार्ग तुर्किस्तान से गुजरते हैं। ये रेशम के मार्ग कहलाते हैं जहां से होकर चीन और भारत का हजारों वर्षों से आवागमन रहा है। तुर्किस्तान के प्राचीन नगरों के अवशेष मिले हैं, जिनसे भारत और चीन के संबंधों और सांस्कृतिक आदान प्रदान कर काफी प्रकाश पड़ता है।
भारतीय चिकित्सक भी अरब देशों में गये और भारतीय आयुर्वेद का वहां प्रचार हुआ। चरक, सुश्रुत, पशुचिकित्सा, स्त्रीरोग, सर्पविद्या आदि विषयों की पुस्तकें अरबी में अनूदित हुईं। भारतीय संगीत के ग्रंथों का भी अरबी में अनुवाद किया गया। अबर एक सुसंस्कृत जाति थी और उन्होंने भारतवर्ष से काफी कुछ ग्रहण किया। उन्होंने नये शिष्य के अदम्य उत्साह से संसार में अपने ज्ञान का प्रसार किया जिसके साथ ही भारतीय साहित्य और संस्कृति का भी प्रचार हुआ। विशेषत: पंचतंत्र का अरबी अनुवाद यूरोप में बहुत लोकप्रिय हुआ। अत: इस प्रकार से विदेशों में भारतीय संस्कृति फली फूली।

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