देश का विभाजन और सावरकर , अध्याय 6 ( ख ) सावरकर जी का हिंदुत्व
उपरोक्त लेखक हिमांशु की मान्यता है कि मुसलमानों की इस प्रकार की भारत विरोधी सोच को समझकर ही सावरकर जी जैसे नेताओं ने अपनी लेखनी को पैना किया था। उन्होंने देशवासियों का जागरण करते हुए 'हिंदुत्व' जैसी पुस्तक की रचना की। इसके बारे में उपरोक्त गांधीवादी लेखक महोदय लिखते हैं कि 'भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने और यहाँ से मुसलमानों और ईसाइयों को बाहर निकाल देने के तमाम तरीक़े प्रारंभ में सावरकर ने अपनी विवादित किताब ‘हिंदुत्व ‘ में विस्तार से प्रस्तुत किए। इस पुस्तक को लिखने की अनुमति उन्हें आश्चर्यजनक रूप से अंग्रेज़ों की कैद में रहते दे दी गई थी।
हिंदू राष्ट्र की उनकी परिभाषा में मुसलमान व ईसाई शामिल नहीं थे, क्योंकि वे हिंदू सांस्कृतिक विरासत से जुड़ते नहीं थे, न ही हिंदू धर्म अंगीकार करते थे। उन्होंने लिखाः ‘ईसाई और मुहम्मडन,जो कुछ समय पहले तक हिंदू ही थे और ज़्यादातर मामलों में जो अपनी पहली ही पीढ़ी में नए धर्म के अनुयायी बने हैं, भले ही हमसे सांझा पितृभूमि का दावा करें और लगभग शुद्ध हिन्दू ख़ून और मूल का दावा करें। लेकिन उन्होंने एक नई संस्कृति अपनाई है, इस वजह से ये हिंदू नहीं कहे जा सकते हैं।’
‘नए धर्म अपनाने के बाद उन्होंने हिंदू संस्कृति को पूरी तरह छोड़ दिया है… उनके आदर्श तथा जीवन को देखने का उनका नज़रिया बदल गया है। वे अब हमसे मेल नहीं खाते ,इसलिए इन्हें हिंदू नहीं कहा जा सकता।’
काफिर और कुफ्र पर मौन साध जाने वाले ये गांधीवादी लेखक इतिहास के इस सच को नहीं समझ पाए कि सदियों से भारत में रहने वाले लोग भी किस प्रकार भारत को अपना नहीं मानते थे ? इसके विपरीत वे भारत को मिटाने और यहां पर अपनी पीढ़ियों का शासन स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। जिन लोगों को यहां रहते-रहते कई शताब्दी गुजर गई थीं, उनके मन मस्तिष्क भी भारत में रहकर अपने पूर्वजों के देश और वहां के धर्म स्थलों में अटके-भटके रहते थे। वहीं से वे धार्मिक और राजनीतिक ऊर्जा लेकर भारत के विनाश के लिए नरसंहारों का खेल खेला करते थे। सावरकर जी ने उन चीजों को समझा और ‘हिंदुत्व’ में उनका स्पष्ट वर्णन कर देशवासियों को बताया कि हिंदू वास्तव में कहते किसको हैं? जो लोग शताब्दियों से यहां रह कर भी इस देश को अपनी पुण्य भूमि, पवित्र भूमि और पितृ भूमि मानने को तैयार नहीं हैं वे इस देश की राष्ट्रीयता से जुड़े हुए नहीं हैं और क्योंकि हिंदू इस देश की राष्ट्रीयता का उद्बोधक, संबोधक शब्द है ,इसलिए ऐसे लोगों को हिंदू नहीं कहा जा सकता।
हिंदू और आर्य राष्ट्रधर्म
सावरकर जी के दृष्टिकोण से देखा जाए तो हिंदू इस देश के आर्य धर्म, आर्य संस्कृति और आर्य राष्ट्र का स्वाभाविक उत्तराधिकारी है। उनके दृष्टिकोण में हिन्दू आर्य वैदिक ऋषियों की संतान है , जो हमारे आर्य राष्ट्र, आर्यावर्त की मूल चेतना, धर्म चेतना और वैदिक चेतना से चेतनित है। भारतवर्ष की वैदिक चेतना से आर्य हिंदू का सीधा संबंध है। वह उसकी रक्षा के लिए मर सकता है, मिट सकता है ,अपना सब कुछ खो सकता है, अपना बलिदान दे सकता है, पर वैदिक धर्म की आर्य राष्ट्र चेतना को वह मिटते नहीं देख सकता। हर काल में वह अपनी वैदिक राष्ट्र चेतना को जीवंत बनाए रखने के लिए किसी सावरकर को खोज सकता है, सावरकर पर सोच सकता है। वह गांधी को सम्मान दे सकता है पर गांधीमय नहीं हो सकता।
भारत का बहुसंख्यक समाज किसी तथाकथित गांधीवादी विचारधारा के भंवरजाल में फंसकर अपने क्रांतिकारी इतिहास की दीर्घकालिक परंपरा को नहीं भुला सकता । जिसमें इस्लाम के आगमन के पहले दिन से लेकर 1947 तक और उसके बाद से आज तक उसने अनेक वीर वीरांगनाओं को अपनी आर्य संस्कृति की रक्षा के लिए मरते मिटते देखा है। उनके मरने मिटने की पवित्र भावना और बलिदानी परंपरा पर उसे गर्व होता है। इसके विपरीत गांधीवाद इस गर्व और गौरव बोध को या तो हल्का कर देना चाहता है या मिटा देना चाहता है।
गांधीवादी हिमांशु आगे लिखते हुए अपने मन की भड़ास इस प्रकार निकालते हैं कि ‘हिंदुत्ववादी राजनीति के जनक सावरकर ने बाद में दो- राष्ट्र सिद्धांत की विस्तृत व्याख्या की। इस वास्तविकता को भूलना नहीं चाहिए कि मुस्लिम लीग ने तो पाकिस्तान का प्रस्ताव सन् 1940 में पारित किया था, लेकिन आरएसएस के कथित महान विचारक व मार्गदर्शक सावरकर ने इससे बहुत पहले दो-राष्ट्र सिद्धांत प्रस्तुत कर दिया था।
सन् 1937 में अहमदाबाद में हिंदू महासभा के 19 वें राष्ट्रीय अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने स्पष्ट रूप से यही बात दोहराई- ‘फ़िलहाल हिंदुस्तान में दो प्रतिद्वंद्वी राष्ट्र पास-पास रह रहे हैं। कई अपरिपक्व राजनीतिज्ञ यह मानकर गंभीर ग़लती कर बैठते हैं कि हिंदुस्तान पहले से ही एक सद्भावपूर्ण राष्ट्र के रूप में ढल गया है या सिर्फ़ हमारी इच्छा होने से ही इस रूप में ढल जायेगा… आज यह क़तई नहीं माना जा सकता कि हिंदुस्तान एक एकता में पिरोया हुआ और मिलाजुला राष्ट्र है। बल्कि इसके विपरीत हिंदुस्तान में मुख्य तौर पर दो राष्ट्र हैं-हिन्दू और मुसलमान। ’
‘हिंदुत्ववादी विचारकों द्वारा प्रचारित दो-राष्ट्र की इस राजनीति को 1939 में प्रकाशित गोलवलकर की पुस्तक ‘वी, एंड आवर नेशनहुड डिफाइंड’ से और बल मिला। भारत में अल्पसंख्यकों की समस्या से निपटने के लिए गोलवलकर ने इस किताब में नस्ली सफ़ाया करने का मंत्र दिया, उसके मुताबिक़ प्राचीन राष्ट्रों ने अपनी अल्पसंख्यक समस्या हल करने के लिए राजनीति में उन्हें (अल्पसंख्यकों को) कोई अलग स्थान नहीं दिया। मुस्लिम और ईसाई, जो ‘आप्रवासी’ थे, उन्हें स्वाभाविक रूप से बहुसंख्यक आबादी अर्थात ‘राष्ट्रीय नस्ल’ में मिल जाना चाहिए था। गोलवलकर भारत से अल्पसंख्यकों के सफ़ाये के लिए वही संकल्प प्रकट कर रहे थे कि जिस प्रकार नाज़ी जर्मनी और फ़ासीवाद इटली ने यहूदियों का सफ़ाया किया है। वे मुसलमानों और ईसाइयों को चेतावनी देते हुए कहते हैं, ‘अगर वह ऐसा नहीं कर सकते तो उन्हें बाहरी लोगों की तरह रहना होगा, वे राष्ट्र द्वारा निर्धारित तमाम नियमों से बँधे रहेंगे।’
दोगले गांधीवाद का उदाहरण
गांधीवादियों की मानसिकता को समझने के लिए एक उदाहरण देना पर्याप्त होगा। जिस समय अंग्रेज यहां पर शासन कर रहे थे ,उस समय 1870 के दशक में :-
भगवान हमारी दयालु रानी को बचाओ ।
लंबे समय तक हमारी महान रानी रहे ।।
यह गीत गाना सभी सरकारी समारोहों के लिए अनिवार्य कर दिया गया था। इसमें विदेशी रानी के लिए चाटुकारिता पूर्ण शब्दों का प्रयोग किया गया था। इस गीत का हमारे देश की सांस्कृतिक विरासत से कोई संबंध नहीं था। ऐसे ही चाटुकारिता भरे गीतों को आगे चलकर कांग्रेस और मुस्लिम लीग ब्रिटिश सत्ताधीशों के लिए गाती रहीं। उन्हें इस प्रकार के चाटुकारिता पूर्ण गीतों के गाने में कभी किसी प्रकार की आपत्ति नहीं हुई। मुस्लिम लीग को इन्हीं तो मैं किसी प्रकार की सांप्रदायिकता भी नहीं दिखाई दी। जबकि अंग्रेजों ने अपनी रानी के लिए बनाए इस प्रकार के गीतों को कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेताओं से गवाकर उन्हें ईसाई सांप्रदायिकता में जकड़ लिया था।
तब इस गीत को गाते हुए डिप्टी कलेक्टर बंकिम चंद्र चटर्जी को बहुत पीड़ा हुई। उन्हें इस प्रकार का गीत अपने राष्ट्र- अभिमान पर चोट मारता हुआ दिखाई दिया। वह एक स्वाभिमानी और राष्ट्रभक्त व्यक्ति थे। फल स्वरुप उन्होंने इस गीत का विरोध करते हुए 1876 में ‘आनंदमठ’ नामक उपन्यास की रचना की तो उसमें ‘वंदेमातरम’ शीर्षक से अपना एक नया गीत लिखा। इस गीत ने देश के क्रांतिकारियों को बड़ा प्रभावित किया। देश के कोने कोने में इसको पसंद किया गया। देश का युवा इसे गाता था तो देशभक्ति की पवित्र भावना से मचल उठता था। बंकिम चंद्र चटर्जी इस गीत के माध्यम से पूरे देश में प्रसिद्धि प्राप्त कर गए थे। इस गीत ने युवाओं के भीतर देशभक्ति का संचार किया और नई ऊर्जा से भर कर उन्हें विदेशी गुलामी के जुए को उतार फेंकने के लिए प्रेरित किया।
हमारे देशभक्त क्रांतिकारियों ने उस गीत को तुरंत पकड़ लिया। बात तो छोटी सी है, पर मानसिकता को दिखाती है। अपने जन्म लेते ही जहां कांग्रेस ‘भगवान हमारी दयालु रानी को बचाओ’ गाती जा रही थी, वहीं हमारे क्रांतिकारी भारत और भारतीयता से प्रेम करते हुए ‘वंदे मातरम’ बोल रहे थे, गा रहे थे। दोनों की सोच देश के प्रति समर्पण के भाव के अंतर को स्पष्ट कर देती है। बात स्पष्ट है कि जो दयालु रानी के दीर्घजीवी होने की कामना ईश्वर से कर रहे थे, वे देश के बंटवारे के लिए जिम्मेदार बने और जो ‘वंदे मातरम’ बोल रहे थे वे देश को स्वाधीन कराने के माध्यम बने।
डॉ राकेश कुमार आर्य
(यह लेख मेरी नवीन पुस्तक “देश का विभाजन और सावरकर” से लिया गया है। मेरी यह पुस्तक डायमंड पॉकेट बुक्स दिल्ली से प्रकाशित हुई है जिसका मूल्य ₹200 और पृष्ठ संख्या 152 है।)
मुख्य संपादक, उगता भारत