इसरो के बड़े संघर्ष के बाद जाकर मिली है वर्तमान सम्मानजनक स्थिति
योगेंद्र योगी
एक समय ऐसा भी था जब संसाधनों की कमी की वजह से रॉकेटों को बैलगाड़ी से भी ले जाया गया था। 1981 में इसरो को कम्युनिकेशन सैटेलाइट के लिए एक टेस्ट करना था और पेलोड ले जाने के लिए बैलगाड़ी की मदद लेनी पड़ी थी।
चंद्रयान तीन की सफलता की गूंज पूरे विश्व में सुनाई देर ही है। पूरे देश में दीवाली जैसा जश्न मनाया गया, किन्तु इस ऐतिहासिक सफलता के भी पीछे भारतीय अंतरीक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) का ऐतिहासिक संघर्ष छिपा हुआ है। क्या आप कल्पना कर सकते हैं जिसकी उपलिब्धयों का लोहा पूरी दुनिया मान रही है, उसके वैज्ञानिक कभी साइकिल और बैलगाड़ियों पर रॉकेट को लादकर प्रक्षेपण स्थल तक ले जाते थे। संघर्ष का ऐसा दौर इसरो के वैज्ञानिकों ने देखा जो आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देता रहेगा। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से ही रूस और अमेरिका स्पेस का सिकंदर बनने के लिए बेताब हो गए थे। दोनों देश एक दूसरे को पीछे छोड़ने के लिए पैसा पानी की तरह बहा रहे थे। सबसे पहले 1957 में रूस ने अंतरिक्ष में कदम रखा। इसके बाद अमेरिका भी रूस के पीछे-पीछे चांद पर पहंच गया। 1969 में अमेरिका ने अपोलो-11 मिशन पर 2 लाख करोड़ खर्च किए थे। जबकि मंगल तक जाने पर भारत को प्रति किलोमीटर 7 रुपए का खर्च आया था। आम तौर पर ऑटो का किराया इससे ज्यादा होता है, मंगलयान की लागत सिर्फ 400 करोड़ थी। चंद्रयान-3 की लागत मिशन इंपासिबल 7 की लागत का सिर्फ एक चौथाई यानि 25 फीसदी है।
भारत की अंतरीक्ष की दौड़ में आज जो सुनहरा वर्तमान देखने को मिल रहा है, उसकी संघर्ष की कहानी एक मिसाल है। अंतरीक्ष की इस दौड़ में भारत की विजय पताका लहरा रहे भारत के वैज्ञानिकों ने ऐसे दिन भी देखे हैं जब केरल के मछुआरों के गांव थुंबा की एक चर्च के आगे खाली जगह से रॉकेट लॉन्च किया गया था। चर्च के बिशप के घर को प्रयोगशाला बनाया गया था। इससे भी ज्यादा रोमांचकारी बात यह है कि भारत ने पहले रॉकेट के लिए नारियल के पेड़ों को लांचिंग पैड बनाया था। हमारे वैज्ञानिकों के पास अपना दफ्तर नहीं था, वे कैथोलिक चर्च सेंट मैरी मुख्य कार्यालय में बैठकर सारी प्लानिंग करते थे। अब पूरे भारत में इसरो के 13 सेंटर हैं। भारत की स्पेस की दुनिया में हिंदुस्तान का सफर केरल के तट थुंबा से हुआ था। भारत ने 21 नवंबर 1963 को अपने पहले साउंडिंग रॉकेट को लॉन्च किया था। उस वक्त दुनिया के किसी देश ने कल्पना भी नहीं की थी कि भारत एक दिन अंतरिक्ष में ऐसी उड़ान भरेगा जो सबके लिए मिसाल बन जाएगी। उस समय देश में ट्रांसपोर्टेशन के पर्याप्त साधन तक नहीं थे। जिसकी वजह से रॉकेट के हिस्से को साइकिल की मदद से लॉन्चिंग की जगह पर पहुंचाया गया था। पहले रॉकेट के कुछ हिस्सों को साइकिल पर भी ले जाया गया था।
एक समय ऐसा भी था जब संसाधनों की कमी की वजह से रॉकेटों को बैलगाड़ी से भी ले जाया गया था। 1981 में इसरो को कम्युनिकेशन सैटेलाइट के लिए एक टेस्ट करना था और पेलोड ले जाने के लिए बैलगाड़ी की मदद लेनी पड़ी थी। इसके अलावा भारत के पहले रॉकेट के लांच के समय भारतीय वैज्ञानिक हर रोज तिरुअनंतपुरम से बसों में आते थे और रेलवे स्टेशन से दोपहर का खाना खाते थे। केरल के थुंबा से पहला रॉकेट लॉन्च होने के 6 साल बाद डॉ. विक्रम साराभाई ने 15 अगस्त 1969 को इसरो की स्थापना की थी। भारत में अंतरिक्ष अनुसंधान के लिए सर्वप्रथम 1962 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और उनके करीबी सहयोगी और वैज्ञानिक विक्रम साराभाई के प्रयासों से भारतीय राष्ट्रीय समिति की स्थापना की गई थी, जिसके अध्यक्ष विक्रम साराभाई थे। बाद में सन् 1969 में डॉ. विक्रम साराभाई ने स्वतंत्रता दिवस के दिन भारतीय राष्ट्रीय समिति के स्थान पर भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की स्थापना की थी। डॉ. विक्रम साराभाई को भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम का जनक भी कहा जाता है।
1971 में श्रीहरिकोटा में स्पेस सेंटर बना था, जिसे आज सतीश धवन अंतरिक्ष सेंटर के नाम से जाना जाता है। अब यहीं से सभी सैटेलाइट्स को लॉन्च किया जाता है। 19 अप्रैल 1975 को इसरो ने अपना पहला सैटेलाइट आर्यभट्ट लॉन्च किया। 1977 में सैटेलाइट टेलीकम्युनिकेशन एक्सपेरिमेंट प्रोजेक्ट शुरू हुआ, जो टीवी को गांव-गांव तक लेकर गया। इन्हीं मुश्किलों में हमारे वैज्ञानिकों ने पहला स्वदेशी उपग्रह एसएलवी-3 लांच किया था। यह 18 जुलाई 1980 को लांच किया गया था। दिलचस्प बात यह है कि इस प्रोजेक्ट के डायरेक्टर पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर अब्दुल कलाम थे। इस लांचर के माध्यम से रोहिणी उपग्रह को कक्षा में स्थापित किया गया। 1981 में इसरो का पहला कम्युनिकेशन सैटेलाइट लॉन्च हुआ। जब कारगिल युद्ध में दुश्मन की लोकेशन का पता लगाने के लिए अमेरिका के जीपीएस की जरूरत पड़ी थी तब अमेरिका ने मदद से साफ इंकार कर दिया और तब हिंदुस्तान ने ठाना था कि वे अब अपना जीपीएस बनाकर रहेगा। आज भारत उन चुनिन्दा देशों में शामिल है, जिनके पास अपना खुद का नेविगेशन सिस्टम है। इसी तरह एक दौर ऐसा भी था जब भारत को रूस ने अमेरिका के दबाव में आकर क्रायोजेनिक रॉकेट टेक्नोलॉजी देने से मनाकर दिया था। लेकिन भारत के वैज्ञानिकों ने ना सिर्फ स्वदेशी तकनीकि विकसित की बल्कि आज इसकी मदद से एक साथ दर्जनों सैटेलाइट अंतरिक्ष में भेज रहा है। इस लॉन्चिंग के साथ भारत ग्लोबल कॉमर्शियल मार्केट में एक मजबूत प्लेयर बनकर उभरा है। चंद्रयान-3 की उपलब्धि से निश्चित तौर पर देश में अंतरिक्ष के लिए विदेश निवेश का आकर्षित होगा। भारत अमेरिका सहित अन्य देशों की तुलना में बेहद कम कीमत पर सैटेलाइट लांचिंग का बेताज बादशाह बन चुका है।
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