क्या कानून बनाने मात्र से ही रुक जाएंगे अपराध?
योगेंद्र योगी
चीन और ईरान सहित कई देश इसके उदाहरण हैं, जहां हर साल बड़ी संख्या में मृत्युदंड दिया जाता है। इसके बावजूद इन देशों में अपराध नहीं थम रहे हैं। चाहे चीन हो या भारत, अपराधों की जड़ कहीं ओर है और निदान कहीं और ढूँढ़ा जा रहा है।
केंद्र सरकार ने संसद में भारतीय दंड विधान को बदलने और उनमें आमूल-चूल परिवर्तन वाले लाने वाले विधेयकों को पेश किया है। सरकार ने तीनों संहिताओं- भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (आईईए) में बदलाव का मसौदा रखा है और सभी नए कानूनों को इनसे बदला जाएगा। सवाल यही है कि क्या सिर्फ कानून बदलने से अपराध के हालात बदल जाएंगे। निर्भया केस इसका उदाहरण है। उस मामले के बाद कानून कठोर कर दिया गया। पोक्सो एक्ट लाया गया। दुष्कर्म और हत्या के लिए मृत्युदंड का प्रावधान किया गया। फिर भी देश में ऐसे जघन्य अपराधों की संख्या बढ़ती जा रही है। चीन और ईरान सहित कई देश इसके उदाहरण हैं, जहां हर साल बड़ी संख्या में मृत्युदंड दिया जाता है। इसके बावजूद इन देशों में अपराध नहीं थम रहे हैं। चाहे चीन हो या भारत, अपराधों की जड़ कहीं ओर है और निदान कहीं और ढूँढ़ा जा रहा है।
वर्ष 2022 में दुनिया में 883 लोगों को मौत की सजा दी गई जो 2021 से 53 फीसदी ज्यादा है और पांच साल में सबसे अधिक है। एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के मुताबिक ईरान और सऊदी अरब में मौत की सजाओं में हुई बड़ी वृद्धि के चलते खासतौर पर एशिया में मौत की सजा में इतनी अधिक बढ़ोतरी देखी गई है। निर्भया दुष्कर्म और हत्या प्रकरण के बावजूद देश में दुष्कर्म और हत्या की वारदातों में कमी नहीं आई। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट मुताबिक, देश में रोजाना औसतन 86 रेप के मामले दर्ज हो रहे हैं। आंकड़ों के अनुसार, साल 2021 में बालिग महिलाओं के साथ बलात्कार के कुल 28 हजार 644 मामले दर्ज हुए तो वहीं नाबालिगों के साथ 36 हजार 069 घटनाएं हुईं। पिछले 5 साल के आंकड़ों की तुलना में नाबालिग महिलाओं के साथ बलात्कार के मामलों का ग्राफ तेजी से बढ़ा है।
कानून में कितने ही संशोधन हो जाएं, जब तक जमीनी हकीकत नहीं बदलेगी, अपराधों पर अंकुश नहीं लग सकेगा। गंभीर आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे नेताओं का राजनीति से बहिष्कार नहीं होगा, तब देश में अपराध सुधार की दिशा में किए गए तमाम प्रयास बेमानी साबित होंगे। देश में वर्तमान में कुल 4001 विधायक हैं, जिसमें से 1,777 यानी 44 फीसदी नेता हत्या, बलात्कार, अपहरण जैसे अपराधों में लिप्त रहे हैं। वहीं वर्तमान लोकसभा में भी 43 फीसदी सांसद आपराधिक मामलों में घिरे हैं। करीब 23 साल पहले वर्ष 2004 में यही संख्या 22 फीसदी थी, जो कि अब दोगुनी हो गई है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि हमारी कानून प्रणाली गरीब और हाशिए पर मौजूद लोगों को लेकर पक्षपाती है। हालात यह हैं कि गरीब और पिछड़ों को अमीर लोगों के मुकाबले ज्यादा कड़ी सजा मिलती है। अपराध को रोकने के लिए जो सर्वाधिक बुनियादी चीज है वह है बुनियादी सुविधाएं, जब तक आम लोगों को बुनियादी सुविधाएं नहीं मिलेगी तब तक अपराधों पर लगाम लगाना बहुत मुश्किल है।
नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स ने लॉ कमिशन की मदद से पिछले 15 सालों में मौत की सजा पाए 373 दोषियों के इंटरव्यू के डेटा को स्टडी किया गया। जिसमें पाया गया कि इनमें तीन चौथाई पिछड़ी जातियों और धार्मिक अल्पसंख्यक वर्गों से थे। 75 फीसदी लोग आर्थिक रूप से कमजोर तबके से थे। गरीब, दलित और पिछड़ी जातियों के लोगों को हमारी अदालतों से कठोर सजा इसलिए मिलती है, क्योंकि वे अपना केस लड़ने के लिए काबिल वकील नहीं कर पाते। आतंक से जुड़े मामलों के लिए सजा पाने वालों में 93.5 प्रतिशत लोग दलित और धार्मिक अल्पसंख्यक हैं। इसके विपरीत देश के बड़े गैंगेस्टर दर्जनों मुकदमे दर्ज होने के बावजूद भी वे अदालत से छूट जाते हैं। जब तक पूरी प्रक्रिया में सुधार नहीं होगा तब तक अपराध नहीं रुक सकतेे। अपराध रोकने के लिए न्याय का तौर-तरीका बदलने की जरूरत है। अपराध रोकने के लिए सबसे महत्वपूर्ण पुलिस बल है। जब तक पुलिस बल में अमूल चूल परिवर्तन नहीं होगा और पुलिस में जब तक राजनीति हस्तक्षेप बंद नहीं होगा तब तक अपराधों पर लगाम लगाना टेढ़ी खीर है। इसके अलावा आर्थिक विषमता, शिक्षा और बुनियादी सुविधाओं का विस्तार करके ही अपराधों पर अंकुश लगाया जा सकता है। सिर्फ कानून की किताब में बदलाव से अपराधों के हालात नहीं बदलने वाले।
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