मृत्यु शय्या पर पड़े भीष्म से नही पूछा कोई सवाल

द्रोपदी जैसी सन्नारी पर एक आरोप ये भी है कि जब महाभारत युद्घ के पश्चात पाण्डवों को मृत्यु शय्या पर पड़े भीष्म ने उपदेश दिये तो उस समय द्रोपदी ने बीच में हस्तक्षेप करते हुए पितामह से कहा कि आपके ये उपदेश उस समय कहां गये थे जब मेरा चीरहरण किया जा रहा था। कहा जाता है कि द्रोपदी के इस प्रश्न पर पितामह भीष्म ने कह दिया था कि बेटी उस समय मैंने दुर्योधन का दूषित अन्न खा रखा था, इसलिए मेरी बुद्घि में उस समय दोष था। पर अब इतने लंबे समय तक बाणों की शय्या पर रहने से मेरा दूषित रक्त बह गया है, अत: अब मेरी बुद्घि भी निर्मल हो गयी है।
जिन लोगों ने महाभारत को पढ़ा है, वो ये अनुमान भली भांति लगा सकते हैं कि महाभारत में भीष्म जैसे महाज्ञानी से ऐसा उपालम्भ पूर्ण (उलाहने से भरा हुआ) संवाद करना संवाद को हल्कापन देना होता है। फिर जो प्रसंग है और जो अवसर है वह भी कम गंभीर नहीं। मृत्यु शय्या पर पड़े व्यक्ति से उपालम्भ पूर्ण संवाद करने से हर व्यक्ति बचता है। तीसरे पितामह का हार्दिक प्रेम पांडवों के प्रति था और वह अपने उसी प्रेमपूर्ण अनुराग के कारण ही मृत्यु शय्या पर उस समय विराजमान थे। चौथे, हस्तिनापुर की राजगद्दी पर पितामह भीष्म धर्मराज युधिष्ठर को देखना चाहते थे, इसलिए वह तब तक प्रतीक्षा करना चाहते थे जब तक उनका ये मनोरथ पूर्ण न हो जाए, इस तथ्य को पाण्डवों सहित द्रोपदी भी जानती थी, तब वह पितामह को उस पीड़ादायक अवसर पर ताना कैसे मार सकती थी, विशेषत: तब जब उसके पति युधिष्ठर को पितामह का सम्भावित वियोग हृदय से उद्वेलित कर रहा था और वह बहुत अधिक शोक मना रहे थे। युधिष्ठर नही चाहते थे कि युद्घोपरांत वह शासक बनें, लेकिन पितामह के समझाने पर ही वह शासक बनने के लिए तैयार हुए थे। अत: द्रोपदी पति के हृदय की पीड़ा और पितामह के प्रति असीम श्रद्घा भाव को देखकर आदर्श महिला की भांति शांत ही रही और उसने सारे उपदेश को बड़ी श्रद्घा से सुना।
जहां तक चीरहरण के समय के दृश्य की बात है तो उस समय पितामह भीष्म शांत रहे थे लेकिन उनका दुखी हृदय से उस समय का शांत रहना अवश्य ही निंदनीय नही माना जा सकता। क्योंकि द्यूत क्रीड़ा में सम्मिलित होना धर्मराज युधिष्ठर के लिए ही धर्मसंगत नही था। वह कार्य राजधर्म के प्रतिकूल था, दूसरे स्वयं को जुए में हारने के पश्चात द्रोपदी को दांव पर लगाना धर्मराज के लिए और भी दोषपूर्ण था। अत: जब द्रोपदी ने कौरवों की सभा में पितामह भीष्म से अपने चीरहरण के समय प्रश्न किया कि पितामह मुझे बताओ कि धर्मराज ने जब स्वयं को जुए के दांव में हरा लिया था तो क्या उन्हें मुझे (अर्थात अपनी पत्नी को) दांव पर रखने का अधिकार रह गया था? तब द्रोपदी के इस प्रश्न पर भीष्म शांत रह गये थे।
द्रोपदी का प्रश्न बड़ा तर्क संगत था कि जब युधिष्ठर स्वयं को ही हार गये तो मैं उनकी अर्धांगिनी होने के कारण उसी समय हारी गयी मानी जानी चाहिए थी। फिर उन्हें मुझे अलग से दांव पर रखने की अनुमति क्यों दी गयी? द्रोपदी जुए के अधर्म में हुए अधर्म की ओर पितामह का ध्यान खींच रही थी। इस तर्क संगत बात को सुनकर पितामह नीची गर्दन कर गये उन्होंने केवल इतना कहा-‘सौभाग्यशालिनी! धर्म का स्वरूप अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण मैं तुम्हारे इस प्रश्न का ठीक ठीक विवेचन नही कर सकता। जो स्वामी नही है, वह पराया धन दांव पर नही लगा सकता। परंतु स्त्री को सदा ही अपने पति के अधीन देख जाता है। ‘इसके उपरांत भी पितामह भीष्म की गौरवमयी उपस्थिति का प्रभाव धृतराष्टï पर पड़ा। उसे अहसास था कि पितामह चीरहरण के कारूणिक दृश्य पर कितने दुखी हो रहे होंगे इसलिए उसने अपने पुत्र दुर्योधन को लताड़ते हुए कहा-‘रे मंद बुद्घि दुर्योधन! तू तो जीता हुआ ही मारा गया। दुर्विनीत! तू श्रेष्ठ कुरूवंशियों की सभा में अपने ही कुल की महिला सती साध्वी द्रोपदी को लाकर उससे पापपूर्ण बातें कर रहा है।तब उन्होंने द्रोपदी से वर मांगने के लिए कहा, ताकि अनर्थ और अधर्म के फल से बचा जा सके। धृतराष्ट से मिले वरों के अनुसार पाण्डवों को उनका राज्य मिल गया।
इस प्रकार द्रोपदी ने अपने बुद्घि कौशल से धर्मराज का राज्य पुन: वापस दिला दिया। लेकिन धर्मराज ने पुन: जुआ खेला और राज्य हार गया, इसमें गलती द्रोपदी की थी या धर्मराज की, या परिस्थितियों की या काल ही ऐसा करा रहा था? पाठक निर्णय करें।
द्रोपदी अपने पितामह भीष्म के प्रति श्रद्घा से भरी थी। उसने पितामह की विवशता को समझ लिया था और वह परिस्थितियों के प्रवाह में बहते अपने पति को भी देख रही थी। वह विदुषी थी इसलिए धर्म को भली प्रकार समझती थी। जो कौरव सभा में धर्म के सूक्ष्म प्रश्न को उठाकर सभी की बोलती बंद कर सकती थी, वह पितामह भीष्म के अंतिम समय में अपने धर्म के प्रति असहज रही हो या उसे निभाना भूल गयी हो, यह कैसे हो सकता था? महाभारत के शांति पर्व में राजा के धर्मानुकूल नीतिपूर्ण व्यवहार का वर्णन भीष्म के द्वारा किया गया है। यहां उन्होंने युधिष्ठर को राज्य रक्षा के साधनों, वर्णाश्रम धर्मों, राजा की आवश्यकता और उत्पत्ति, राजा के प्रधान कार्य और दण्ड द्वारा युगों के निर्माण, राजा को उभयलोक में सुख प्राप्ति कराने वाले छत्तीस गुणों की व्याख्या आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है। द्रोपदी पूरे उपदेश के दौरान शांत रही है। कहीं पर भी उसने प्रश्न नही उठाया कि आपका यह साधूपन उस समय कहां गया था जब मेरा चीरहरण किया जा रहा था?
द्रोपदी पर दोषारोपण महाभारत में नही किया गया, बल्कि क्विदंतियों में कुछ लोगों ने महाभारत के नाम पर किया है। ये वो ही लोग हैं जिन्होंने नारी को पैरों की जूती समझा, और नारी उत्पीडऩ को अपना हथियार समझा। ऐसे लोग वास्तव में भारतीय संस्कृति के शत्रु ही हैं। सच के रूप में आना चाहिए।

– राकेश कुमार आर्य

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