वेद अपौरुषेय हैं और इसके उपदेश शाश्वत और सनातन हैं

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गुंजन अग्रवाल

संस्कृत-भाषा का शब्द ‘धर्म’ अत्यन्त उदात्त अर्थ रखता है। संस्कृत में अर्थग्रथित शब्द बनाने की अद्भुत क्षमता रही है। किन्तु उसका भी जैसा उत्कृष्ट उदाहरण ‘धर्म’ शब्द में मिलता है, वैसा अन्यत्र नहीं मिलता। भारतवर्ष ने जो कुछ सशक्त निर्माण-कार्य युग-युग में संपन्न किया है और कर रहा है, वह सब ‘धर्म’ है। यह धर्म-भाव प्रत्येक हिंदू के हृदय में अनादिकाल से अंकित है। यदि यह प्रश्न किया जाए कि सहस्रों वर्ष प्राचीन भारतीय संस्कृति की उपलब्धि क्या है और यहाँ के जनसमूह ने किस जीवन-दर्शन का अनुभव किया था, तो इसका एकमात्र उत्तर यही है कि भारतीय-साहित्य, कला, जीवन, संस्कृति और दर्शन— इन सबकी उपलब्धि ‘धर्म’ है। भारतीय-जीवनरूपी मानसरोवर में तैरता हुआ सुनहला हंस धर्म है। उसी के ऊपर हमारी संस्कृति के निर्माता प्रजापति ब्रह्मा जीवन के सब क्षेत्रों या लोकों में विचरते हैं। (‘कल्याण’, ‘धर्मांक’, पृ. 91, गीताप्रेस, गोरखपुर)।
व्याकरण में ‘धर्म’ शब्द की व्युत्पत्ति इस रूप में है कि ‘धृञ्’ धातु से ‘मक्’ प्रत्यय करने पर ‘धर्म’ शब्द बनता है। ‘धृञ्’ धातु का अर्थ ही है— ‘धृञ् धारणपोषणयो’ अर्थात् किसी भी शास्त्रीय नियमों का धारण करना एवं उनका यथोचितरूपेण पालन करना। (धर्मांक, पृ. 97)। इस व्युत्पत्ति के आधार पर धर्म की दो परिभाषाएँ इस देश में सदा से मान्य रही हैं। पहला, धर्म ही समस्त जगत् का आधार है— ‘धर्मो विश्वस्य जगत: प्रतिष्ठा’ (महानारायणोपनिषद्, 22.1) और दूसरा, धर्म ही प्रजाओं के जीवन में सर्वोपरि तत्त्व है— ‘तस्माद्धर्मं परमं वदन्ति (महानारायणोपनिषद्, 22.1)। उसे ही दूसरे प्रकार से कहा गया है कि जो तत्त्व मनुष्य के, समाज के, राष्ट्र के और विश्व के जीवन को धारण करता है, वही धर्म है— ‘धारणाद् धर्ममित्याहुधर्मो धारयति प्रजा:’।

जिस प्रकार वेद अनन्त है, उसी प्रकार धर्म के भी अनन्त लक्षण हैं। श्रुति-स्मृति में धर्म के जो लक्षण कहे गए हैं, उनको एकत्रित करना मनुष्य के वश की बात नहीं है। (धर्मांक, पृ. 27)। नारायणपण्डित ने हितोपदेश (1.8) में जिसे 8 लक्षणों वाला धर्म कहा है, मनुस्मृति (6.92) ने जिसे 10 लक्षणों वाला धर्म कहा है और भागवतमहापुराण में जिसको विस्तार करके 30 लक्षणोंवाला धर्म बताया गया है, वही तो मनुष्यमात्र के लिए सर्वमान्य सनातन धर्म है— ‘सनातनस्य धर्मस्य मूलमेतत् सनातनम्’। स्थूल रूप से, जिस कार्य को करने से (ऐहलौकिक, सांसारिक) उन्नति और (पारलौकिक) मोक्ष की प्राप्ति हो, वही धर्म है— ‘यतो भ्युदयनि: श्रेय स सिद्धि: स धर्म:’ (वैशेषिक दर्शन, 1.1.2)।

इस प्रकार धर्म वह प्रणाली अथवा संस्था है, जिसकी सर्वांगपूर्ण परिभाषा बन चुकी है (धर्मांक, पृ. 5) कि जो हमें सभी तरह से विनाश और अधोगति से बचाकर उन्नति की ओर ले जाता है, वही धर्म है। सनातन का अर्थ है नित्य। जो तत्त्व सर्वदा निर्लेप, निरञ्जन, निर्विकार और सदैव स्वस्वरूप में अवस्थित रहता है, उसे शाश्वत सनातन कहते हैं। (‘क्यों? : पूर्वार्ध’, शास्त्रार्थ महारथी पं. माधवाचार्य शास्त्री, पृ. 59)। वेद से, धर्मशास्त्रों से तथा परम्परा प्राप्त शिष्टाचार से अनुमोदित जो धर्म है, उसे ही सनातन धर्र्म कहते हैं। ‘सनातन धर्म’ के विभिन्न अर्थ हैं। व्याकरण की दृष्टि से ‘सनातन धर्म’ में षष्ठी-तत्पुरुष समास है अर्थात् ‘सनातनस्य धर्म इति सनातन धर्म:’। सनातन का धर्म, सनातन में लगाई गई षष्ठी विभक्ति स्थाप्य-स्थापक-संबंध की बोधक है। दूसरे शब्दों में जिस प्रकार ईसाइयत, इस्लाम, पारसी एवं बौद्धमत अपने साथ ही क्रमश: ईसा, मुहम्मद, जरथ्रुष्ट एवं बुद्ध के भी बोधक हैं, उसी प्रकार सनातन धर्म भी यह बताता है कि यह धर्म उस सनातन अर्थात् नित्य तत्त्व परमात्मा द्वारा ही चलाया गया है, किसी व्यक्ति के द्वारा नहीं। (धर्मांक, पृ. 7)।

सनातन धर्म अनादि और अनन्त है; क्योंकि सृष्टि की उत्पत्ति के समय से लेकर प्रलयकाल तक यह विद्यमान रहता है। यह सनातन इसलिए नहीं है कि यह सनातन ईश्वर द्वारा स्थापित है, अपितु यह स्वयं भी सनातन या नित्य है। यह प्रलयकाल तक अस्तित्व में रहेगा, प्रलय के बाद भी नष्ट होनेवाला नहीं है, अपितु गुप्त रूप से तब भी यह अवस्थित रहता है। अगले कल्प में यह पुन: लोगों की रक्षा और उन्नति के लिए प्रकट हो जाता है। इस तरह यह धर्म अनादिकाल से, कल्पों- कल्पों से चला आ रहा है। व्याकरण की दृष्टि से इस दूसरे अर्थ का बोधक कर्मधारय समास है, जिसके अनुसार ‘सनातन धर्र्म’ इस पद का विग्रह होता है— ‘सनातनश्चासौ धर्मश्च’ अर्थात् सनातन रूप से रहनेवाला धर्म। (धर्मांक, पृ. 7-8)। यह धर्म केवल सनातन ही नहीं है, वरन् भारतीय चिन्तन का आधार ‘नवोनवो भवति जाएमानो’ (ऋग्वेद, 10.85.19)। तीसरे अर्थ में भी ‘सनातन धर्म’ कर्मधारय समास में है, पर यहाँ ‘सनातन’ पद में दूसरे अर्थ की अपेक्षा कुछ और विशेषता है। यहाँ उसका विग्रह होगा ‘सदा भव: सनातन: सनातनं करोति इति सनातनयति सनातनयतीति सनातन:। सनातनश्चासौ धर्म इति सनातन धर्र्म:।’ यह सनातन केवल इसलिए नहीं है कि यह सनातन परमात्मा द्वारा संस्थापित है, यह धर्म सनातन इसलिए भी नहीं है कि यह स्वयं में अविनश्वर है, अपितु यह सनातन इसलिए है कि इस धर्म में विश्वास रखने वाला तथा इस धर्म पर चलने वाला भी सनातन हो जाता है। यह धर्म अपने अनुयायी को भी अमर बना देता है। (धर्मांक, पृ. 8)

यहाँ एक प्रश्न उठता है कि इस धर्म के अनुयायी के अमरत्व का स्वरूप क्या है? इस प्रश्न का उत्तर हमें ‘सनातन धर्म’ शब्द के चौथे अर्थ में मिलेगा। चौथे अर्थ में भी तीसरे अर्थ की तरह ‘सनातन’ में कर्मधारय समास है, अर्थात् ‘सनातनयति इति सनातन:’ अर्थात् वह धर्म जो हमें सनातन बनाता है, सनातन धर्म है। पर यहाँ ‘सनातनयति’ का अर्थ होगा ‘सनातनं परमात्मस्वरूपं प्रापयति इति’ अर्थात् जो हमें परमात्मस्वरूप को प्राप्त करवाता है, वह धर्म सनातन धर्र्म है। इस धर्म के मार्ग पर चलने वाला अपने नित्य शुद्ध, बुद्ध, मुक्त सच्चिदानन्दस्वरूप का साक्षात्कार करके परमात्मा के साथ एक हो जाता है। (धर्मांक, पृ. 8)। इसलिए हमारे धर्म का नाम सनातन धर्र्म अत्यन्त उपयुक्त है।

प्रख्यात इतिहासकार डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल

(1904-1966) के अनुसार सनातन धर्म के दो अंग हैं— एक दर्शन या अध्यात्म विचार और दूसरा सदाचार या लोकाचार। संसार के इतिहास में सनातन धर्र्म एक विलक्षण प्रयोग और उपलब्धि है। संसार का जो कुछ उच्चतम तत्त्वज्ञान है और जो महती अध्यात्म विद्या है, और जो मनुष्य के मन की ध्यान-शक्ति से ब्रह्मतत्त्व और सृष्टि के विषय में जो तत्त्व परिज्ञात हुए, उसकी समष्टि ही सनातन धर्म है। किन्तु मानवीय बुद्धि का प्रकर्ष सनातन धर्म का केवल एक अंग है। उसका दूसरा अंग है वह आचार जो श्रुति, स्मृति, पुराण, आगम, संहिता, तन्त्रादि संस्कृत-वाङ्मय में तथा उनपर आश्रित देश-भाषा के अनेक ग्रन्थों में कहा गया है; अथवा इन ग्रन्थों में अनुक्त होते हुए भी जो सज्जनों से सेवित जाति-धर्म और कुल-धर्मों के रूप में लोकाचार की तरह परम्परा से चला आता है, वह भी सनातन धर्म है। संक्षेप में श्रुतियों में प्रदर्शित और युग-युग के सदाचार से सम्मत जो महान् धर्म है, उसे ही सनातन धर्म कहते हैं। सनातन धर्म पृ. 8)। इसलिए हमारे धर्म का नाम सनातन धर्म अत्यन्त उपयुक्त है। एक निश्चित मान्यता या आचार तक सीमित नहीं, न ही इसकी परिधि में एक निश्चित समुदाय आता है; बल्कि यह तो भारतवर्ष के सारे वर्ण, जाति और अंतर्जातियों का धर्म है। यह धर्म सबको स्वीकार करते हुए, साथ लेकर चलता है। सबके साथ सम्प्रीति सनातन धर्म की विशेषता है। वृक्ष-पूजा, नाग-पूजा, भूमि-पूजा आदि भौमिक मान्यताओं से लेकर श्रुति-प्रतिपादित ब्रह्मतत्त्व तक विचारों और आचारों के अनेक स्तर सनातन धर्म के अंग हैं। इस प्रकार के करोड़ों-करोड़ मानवों का जो एक शक्तिशाली भारत-राष्ट्र है, उसका धर्म सनातन धर्म है। (‘सनातन धर्म का स्वरूप’ लेख में, सनातन धर्म और उसके उन्नायक, श्री बाबा साहब आप्टे स्मारक समिति, चण्डीगढ़, 1999, पृ. 11-12)

यह स्मरणीय है कि भारतवर्ष में सनातन धर्र्मी वही हो पाता है, जो भारतवर्ष को अपनी मातृभूमि, पुण्यभूमि, कर्मभूमि स्वीकार करता है और जीवन व मरण के लिए इसी देश के भवचक्र को स्वीकार करता है। भारतवर्ष ही सनातन धर्र्म की क्रीड़ा-स्थली है, यही वह स्थली है, जिसकी महिमा वेदादि शास्त्रों से लेकर विदेशियों तक ने गाई है— ‘माताभूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या:’ (अथर्ववेद, 12.1.12), ‘न भारतसमं वर्षं पृथिव्यामस्ति भो द्विजा:’ (ब्रह्ममहापुराण, 27.71), ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ इत्यादि। इस प्रकार की भावना में एक ऐसा सूक्ष्म रस है, जो ऊपर से न दिखाई पडऩे पर भी सनातन धर्र्म की समस्त ज्ञान और कर्ममयी पद्धति को सींचता रहता है। जीवन के लिए वह अमृतभूमि है। हम नाम तो धर्म का लेते हैं, पर श्रद्धा का सारा सम्पुट देश की संस्कृति के लिए अर्पित करते हैं। फलत: वेद, सनातन धर्र्म और भारत-राष्ट्र ये तीनों तत्त्व परस्पर ओतप्रोत हो गए हैं। यह सनातन धर्म अनादि-अपौरुषेय वेद के द्वारा प्रतिपादित है। मनुस्मृति में वेद को धर्म का मूल स्वीकार किया गया है— ‘वेदोऽखिलो धर्ममूलम्’ (मनुस्मृति, 2.26)। भागवतपुराण (6.1.40) में कहा गया है कि वेद में जो कुछ कहा गया है, वही धर्म है— ‘वेदप्रणिहितो धर्मो ह्यधर्मस्तद्विपर्यय:’। संक्षेप में हिंदू-समाज ने अपना धर्म अपौरुषेय वेदों से प्राप्त किया है। वेद में दिए हुए धर्म के सिद्धान्त अपरिवर्तनीय हैं; क्योंकि वे उन शाश्वत सिद्धांतों पर आधारित हैं जो कि मनुष्य और प्रकृति में हैं। वे कभी भी परिवर्तित नहीं हो सकते। (वैष्णवी, शक्ति-आराधना अंक, वाराणसी, 1994, पृ. 126)

सनातन धर्म एवं विभिन्न मत-सम्प्रदाय

सनातन धर्र्म न तो किसी समय-विशेष में प्रारम्भ हुआ है और न किसी विशेष संस्थापक या पैगंबर से ही इसका श्रीगणेश हुआ है। (धर्मांक, पृ. 5)। यह धर्म स्वयं भगवान् के द्वारा प्रतिपादित है, भगवान् के समान सर्वव्यापक है, सब जीवों का हित करता है, मनुष्यमात्र को ज्ञान-विज्ञान के विकास की खुली स्वतन्त्रता देता है एवं अधर्म-पापाचार-अनाचार आदि की वृद्धि से धर्म का तिरोभाव होने पर धर्मरक्षा के लिए त्रिलोकपति भगवान् भी साकार होते हैं (आत्मज्ञान, लेखक: जगद्गुरु स्वामी प्रकाशानन्द जी महाराज, प्रकाशक: महादेवी ज्ञान केन्द्र, नयी दिल्ली, 1999, पृ 60)

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
—भगवद्गीता, 4.7

जिस प्रकार कोई माता-पिता भिन्न-भिन्न अवस्थावाली अपनी सन्तानों को उनकी प्रकृति, स्वभाव और स्वास्थ्य को देखकर नाना प्रकार के भोजन बनाकर देते हैं और शारीरिक दृष्टि से उन्हें पुष्ट रखते हैं, उसी प्रकार हिंदू-धर्म हरेक व्यक्ति या उसके आत्मिक विकास के अनुसार ज्ञान देकर उसकी उत्तरोत्तर उन्नति करने में सहायक बनता है। यह बात अन्य मत-सम्प्रदायों में नहीं पाई जाती। ये ऐहलौकिक उन्नति को येन-केन-प्रकारेण करने में समर्थ होने पर भी पारलौकिक उन्नति के बारे में मूक होकर कृतिविराम हैं और हिंदू-धर्म के मुखापेक्षी हैं। (आत्मज्ञान, पृ. 61)।

केवल ऐहिक सुख या स्वर्गसुख बतलानेवाले मत-सम्प्रदाय वास्तव में बुद्धिमान के लिए त्याज्य ही हैं। सर्वोत्तम धर्म वह है, जो परम कल्याण की प्राप्ति करानेवाला है। ऐसा धर्म एकमात्र सनातन हिंदू-धर्म ही है। (धर्मांक, पृ. 55) अतएव हम गर्व से कह सकते हैं कि हमारा ही धर्म ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ धर्म है। हमारी ही परम्परा और संस्कृति परम वैज्ञानिक एवं परम श्रेष्ठ है।

आज भारतवर्ष में सनातन धर्र्म को मजहबों के समकक्ष खड़ा करके उसे राष्ट्रजीवन से निर्वासित करने का कुचक्र चल रहा है। धर्मप्राण व्यक्ति साम्प्रदायिक कहा जा रहा है। स्वामी विवेकानन्द (1863-1902) ने इस बात को कई बार दोहराया था कि भारत के पतन का कारण धर्म नहीं है, अपितु धर्म के मार्ग से दूर जाने से ही भारत का पतन हुआ है। इतिहास साक्षी है कि जब-जब हम अपने धर्म को भूल गए, तब-तब हमारा पतन हुआ। हर बार धर्म के जागरण से ही नवोत्थान की लहर चली। 19वीं शती में स्वामी विवेकानंद जी ने इस नवजागरण का सूत्रपात किया था। उन्होंने हिंदुत्व को भारत की राष्ट्रीय पहचान के रूप में प्रतिष्ठित किया। शिकागो में दिनांक 11 सितम्बर, 1893 को दिए अपने प्रथम भाषण में उन्होंने अपने हिंदू होने पर गर्व का विस्तार से वर्णन किया है।

विवेकानन्द के समान ही श्री अरविन्द (1872-1950) ने भी कहा कि जिसे हम हिंदू-धर्म कहते हैं वह वास्तव में सनातन धर्र्म है; क्योंकि यही वह विश्वव्यापी धर्म है जो दूसरे सभी धर्मों का आलिंगन करता है। यदि कोई धर्म विश्वव्यापी न हो तो वह सनातन भी नहीं हो सकता। कोई संकुचित धर्म, सांप्रदायिक धर्म, अनुदार धर्म कुछ काल और किसी मर्यादित हेतु के लिए ही रह सकता है। यही एक ऐसा धर्म है जो अपने अंदर विज्ञान सायंस के आविष्कारों और दर्शनशास्त्र के चिन्तनों का पूर्वाभास देकर और उन्हें अपने अंदर मिलाकर जड़वाद पर विजय प्राप्त कर सकता है। यही एक धर्म है जो मानवजाति के दिल में यह बात बैठा देता है कि भगवान् हमारे निकट हैं, यह उन सभी साधनों को अपने अंदर ले लेता है जिनके द्वारा मनुष्य भगवान् के पास पहुँच सकते हैं। यही एक ऐसा धर्म है जो प्रत्येक क्षण, सभी धर्मों के मानते हुए इस सत्य पर जोर देता है कि भगवान् हर आदमी और हर चीज में हैं तथा हम उन्हीं में चलते-फिरते हैं और उन्हीं में हम निवास करते हैं। यही एक ऐसा धर्म है जो इस सत्य को केवल समझने और उस पर विश्वास करने में ही हमारा सहायक नहीं होता बल्कि अपनी सत्ता के अंग-अंग में इसका अनुभव करने में भी हमारी मदद करता है। यही एक धर्म है जो संसार को दिखा देता है कि संसार क्या है— वासुदेव की लीला। यही एक ऐसा धर्म है जो हमें यह बताता है कि इस लीला में हम अपनी भूमिका अच्छी-से-अच्छी तरह कैसे निभा सकते हैं, जो हमें यह दिखाता है कि इसके सूक्ष्म-से-सूक्ष्म नियम क्या हैं, इसके महान-से-महान विधान कौन-से हैं। यही एक ऐसा धर्म है जो जीवन की छोटी-से-छोटी बात को भी धर्म से अलग नहीं करता, जो यह जानता है कि अमरता क्या है और जिसने मृत्यु की वास्तविकता को हमारे अंदर से एकदम निकाल दिया है।

श्रीअरविन्द ने गर्व से कहा है कि जब यह कहा जाता है कि भारतवर्ष ऊपर उठेगा तो उसका अर्थ होता है सनातन धर्म ऊपर उठेगा। जब कहा जाता है कि भारतवर्ष बढ़ेगा और फैलेगा तो इसका अर्थ होता है सनातन धर्म बढ़ेगा और संसार पर छा जाऐगा। धर्म की महिमा बढ़ाने का अर्थ है देश की महिमा बढ़ाना। श्री अरविन्द के अनुसार यह हिंदू-जाति सनातन धर्म को लेकर ही पैदा हुई है, उसी को लेकर चलती है और उसी को लेकर पनपती है। जब सनातन-धर्म की हानि होती है तब इस जाति की भी अवनति होती है और जब सनातन धर्म का उत्थान होता है, तब इस जाति का भी उत्थान होता है। सनातन-धर्म ही हमारे लिए राष्ट्रीयता है। धर्म के लिए और धर्म के द्वारा ही भारत का अस्तित्व है।

जगद्गुरु भारत-राष्ट्र
‘भायां रत: भारत:’ अर्थात् जो ‘भा’ (प्रतिभा— ज्ञान अथवा काश) में रत (काशालय) है, आसक्त है, वही भारत है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर (1861-1941) ने इस भारतवर्ष को ‘महामानवसमुद्र’ कहा है। भूमि, भूमि पर बसनेवाला जन और जन की संस्कृति— इन तीनों के सम्मिश्रण से राष्ट्र का स्वरूप बनता है। अथर्ववेद में कहा गया है—

भद्रमिच्छन्त ऋषय: स्वर्विदस्तपो दीक्षामुपसेदुरग्रे।
ततो राष्ट्र बलमोजश्च जातं तदस्मै उपसंनमन्तु॥

अर्थात् जनता के कल्याण की इच्छा करने वाले आत्मज्ञानी ऋषि प्रारम्भ में तप करते रहे और दीक्षा लेते रहे। उनके उस यत्न से राष्ट्र बलवान् और ओजस्वी हो गया। इसलिए देव भी उस राष्ट्र के पास जाकर नम्र हो जाएँ।
ऋषि स्वतन्त्र राष्ट्र में क्या चाहते थे

आ यद्वामीय चक्षसा मित्र वयं य सूरय:।
विचष्टे बहुपाय्ये यते महि स्वराज्ये॥

अर्थात् हे मित्रता करने वालों अर्थात् जिनके अन्दर विरोध नहीं है, ऐसे सज्जनों जिनकी दृष्टि विशाल है ऐसे सज्जनों! तुम सभी तथा हम सभी विद्वान् मिलकर, विस्तृत तथा अनेक की सहायता से, जिसका संरक्षण या पालन होता है, ऐसे स्वराज्य में स्वराज्य-व्यवस्था को ठीक रखने के लिए उत्तम प्रकार से यत्न करें।

अर्थात् जिनका विरोध हट गया है, जिनकी दृष्टि विशाल हो गई है, और जो विद्वान् हैं, वे ही स्वराज्य-व्यवस्था के योग्य हैं। जो आपस में झगड़ते रहते हैं, जिनकी दृष्टि संकुचित है तथा जो विद्याहीन हैं, वे स्वराज्य-व्यवस्था के अयोग्य हैं।
जिस (राष्ट्र) में ब्राह्मब्रल और क्षात्रबल— दोनों परस्पर समन्वय के साथ विद्यमान रहते हैं, वह (राष्ट्र) पुण्यशाली है—

यत्र ब्रह्म च क्षत्रं च समयञ्चौ चरत: सह।
तं लोकं पुण्यं ज्ञेषं यत्र देवा: सहासिना॥

वेद का सनातन धर्र्म से, सनातन धर्र्म का भारत-राष्ट्र से और भारत-राष्ट्र से हिंदुओं का जो सम्बन्ध है, वह भी सनातन ही है। तीनों को अलग-अलग देखना उचित नहीं। राष्ट्र के प्रति ऐसी दृष्टि से लिए प्रज्ञा का नेत्र चाहिए। जिसके पास वह दृष्टि है, वह देखता है, दूसरा नहीं— पश्यद् अक्षण्वान् नो विचेतदन्ध:। पुराण कहते हैं कि इस दृष्टि को पाने के लिए स्वर्ग के चिकित्सा शास्त्रियों अर्थात् अश्विनीकुमारों को भी भारत में आना पड़ता है, यहाँ के आश्रमों में बैठकर वैकुण्ठलोक के अधिपति श्रीराम और श्रीकृष्ण को भी वसिष्ठ और सान्दीपनि से श्रुति और मानवधर्मशास्त्र पढऩा पड़ता है।
सारांशत: सम्पूर्ण वेद की 1131 शाखाएँ, 1131 ब्राह्मण, 1131 आरण्यक एवं 1131 उपनिषद्— इन महाग्रन्थों की समष्टि वेद है। इन्हीं महाग्रन्थों से निकलकर सनातन धर्म खड़ा हुआ है। और उस सनातन धर्म की क्रीड़ास्थली भारतवर्ष है। वेद का न कभी अन्त हुआ है, न कभी होगा। वेद से प्रादुर्भूत सनातन धर्म का न कभी अन्त हुआ है, न कभी होगा। भारतवर्ष का न कभी अन्त हुआ है, न कभी होगा। वेद, सनातन धर्म और भारतवर्ष का यह गूढ़ रहस्य है, उसके समस्त इतिहास और विस्तार में यह तथ्य ओतप्रोत है, प्रत्येक सनातन धर्मी के हृदय पर इसकी अमिट छाप है। डॉ. आनन्द कुमारस्वामी (1877-1947) कहा करते थे कि यह जो सनातन धर्मी है, यह विश्व का नित्य तत्त्वज्ञान है।

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