वेद का परमचक्षु ज्योतिष

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सूर्य पितामहो व्यासो वसिष्ठोऽत्रि पराशरः। कश्यपो नारदो गर्गो मरीचिर्मनुरङ्गिरा ।।
लोमशः पौलिषश्चैव च्यवनो यवनो भृगुः। शौनकोऽष्टादशश्चैते ज्योति: शास्त्र प्रवर्तका:।।
(ज्योतिष शास्त्र के 18 प्रवर्तक )

शिक्षाघ्राणं तु वेदस्य, हस्तौकल्पौऽथ पठ्यते, मुख‌ व्याकरणं स्मृतं, निरुक्तं श्रौतं मुच्यते।
छन्द पादो तु वेदस्य, ज्योतिषामयनं चक्षु, तस्मास्त सांगमधि त्यैव ब्रह्मलोके महीयते।।

वेदाहि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः कालानुपूर्व्या विहिताश्च यज्ञाः।
तस्मादिदंकालविधानशास्त्रं यो ज्योतिषं वेद स वेद यज्ञान् ।।

काल के दो रूप हैं। एक तो प्राणियों का अन्त करने वाला काल और दूसरा है कलनात्मक अर्थात् गणित किया जाने वाला काल यानि समय। सूर्य (कालेश्वर) इस काल का उत्पादक या निर्माता है। ज्योतिष स्वयं उस काल का विधायक शास्त्र है यानि काल गणना ही ज्योतिष का मुख्य प्रपिपादन है। इसी से वेदाङ्गत्वंज्योतिषस्योक्तमस्मात् अर्थात् ज्योतिष वेद का अङ्ग सिद्ध होता है। वेदों के स्वरूप की रक्षा हेतु वेदाङ्गों अर्थात १-शिक्षा, २-कल्प, ३-निरूक्त, ४-व्याकरण, ५-छन्द और ६-ज्योतिष की उत्पत्ति हुयी है। इन ६ वेदाङ्गों के बिना वैदिक मन्त्रों के ऋषिदृष्ट अर्थ की रक्षा सम्भव नहीं हो सकती है और न यज्ञार्थ कालबोध की पहिचान ही। अतः पञ्चाङ्ग ज्योतिष रूपी कालविधायक शास्त्र का एक मात्र उपकरण है। दैनिक व्यवहार में आने वाले क्षण ,मुहूर्त ,लग्न, प्रहर (याम), तिथिमान, दिनमान, रात्रिमान, दिवसमान, सप्ताह, मास, ऋतु , अयन, वर्ष (संवत्सर ) और उनके अन्तर्गत के किसी उत्सव यथा पूर्णिमा, अमावस्या एवं सङ्क्रान्ति आदि का ज्ञान ज्योतिष शास्त्र से ही होता है।

युगदृष्टा महर्षि दयानंद सरस्वती के मानस पुत्र वेदांग (वेदाङग्) ज्योतिष मर्मज्ञ आचार्य श्री दार्शनेय लोकेश ने महर्षि दयानंद की अभिलाषा पर केंद्रित वैदिक तिथि पत्रक (श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम्) के रूप में प्रकाशित कर भारतवर्ष के पंचाङग् जनित ज्योतिर्विदों के मध्य एक हलचल पैदा कर समस्त पंचाङगों को रेखांकित कर प्रश्नचिह्न लगा दिया है । महर्षि दयानंद के कालखण्ड एवं उपरांत बड़े धुरंधर मानस पुत्रों ने महर्षि के मानस पुत्रों के रूप में भारत भूमण्डल के सुदूर भी वेद की बात को बोधगम्य शैली में पहुंचा कर राष्ट्र पर बहुत उपकार किया है। ऐसे एक नहीं, दो नहीं अपितु अनगिनत मातृभूमि के नमनीय विद्वानों ने राष्ट्र पर बहुत बड़ा उपकार किया है यथा चाहे समाज सुधार का कार्य हो, नारी शिक्षा, बाल विवाह, अनमेल विवाह, पुनर्विवाह, सती प्रथा, दलितोद्धार अस्पर्शता, ऊंच-नीच, भेदभाव, भाषा, क्षेत्रवाद, जातिवाद इत्यादि समस्त बुराइयां कुरीतियों को मिटाने का बेजोड़ कार्य किया है। यहां तक कि राष्ट्र को स्वतंत्र कराने में 85% से अधिक क्रांतिकारी चाहे वह गरम दल से हो या नरम दल से, सभी के सभी महर्षि के विचारों से प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप में प्रभावित भी थे और प्रकाशित भी।

स्वाधीनता सेनानी दादा भाई नौरोजी, बाल गंगाधर लोकमान्य तिलक, हुतात्मा स्वामी श्रद्धानंद, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, पंडित श्यामजी कृष्ण वर्मा, पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, आजाद चंद्रशेखर, बलिदानी शिरोमणि भगत सिंह ऐसे अनेकानेक सपूत सत्यार्थ प्रकाश पढ़कर स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े और स्वीकार किया कि यदि हम सत्यार्थ प्रकाश ना पढ़ते तो हमें स्वराज्य का कोई बोध नहीं होता। राष्ट्र आज उनके सुकृत्य को नमन कर हृदयाञ्जलि देकर गौरवान्वित है। परंतु वेदांग ज्योतिष पर आज तक महर्षि के बाद किसी का ध्यान नहीं गया। स्यात् ज्योतिष जो कि वेद का चक्षु है उसे उन्होंने वहीं तक सीमित कर दिया कि जन्मपत्री शोकपत्री है। महर्षि के अग्रिम विचार की निम्न पंक्ति को नहीं पढ़ा। जहां महर्षि ने सत्यार्थ प्रकाश में उल्लेख किया है कि हांँ ज्योतिष के गणित पक्ष को जानना आवश्यक है जिसमें अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित एवं सूर्य सिद्धांत जैसे प्रमाणिक, आधारित ज्योतिष ग्रन्थ ही अनुकरणीय हैं। महर्षि ने यजुर्वेद का भाष्य करते हुए भी लिखा है कि गणित ज्योतिर्विद का सदैव सम्मान भी होना चाहिए और ऐसे ज्योतिर्विद सत्करणीय भी हैं।

अतः महर्षि के विचारों को आत्मसात् करते हुए आचार्य श्री दार्शनेय लोकेश ने तिथिपत्रक के रूप में वेद मंत्रों को उद्धृत करते हुए कालगणना से लेकर त्यौहार, पर्व कब और किस तिथि में मनाने से वैज्ञानिक लाभ मिलता है क्रांतिदर्शी ज्योतिर्विद के रूप में कार्य किया है और कर रहे हैं। आज संकल्प पाठ में कहीं एक अरब सत्तानवें करोड़ और कहीं एक अरब छियानवें करोड़ बोला जा रहा है जबकि महर्षि रचित ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में ऋषिकृत एक हजार चतुर्युगी का वर्णन के आधार पर एक अरब सत्तानवें करोड़ सृष्टि संवत् बनता है। अभी-अभी ८ जून से १६ जून २०२३ तक के ज्योतिष शिविर, गुजरात (रोजड़) से पूर्व परोपकारिणी सभा संग्रहालय में ८७ वर्ष पूर्व शिलालेख पर एक अरब सत्तानवें करोड़ उन्तीस लाख उनपचास हजार उनतालीस, विक्रमाब्दे उन्नीस सौ पिच्चानवें, दयानंद जन्माब्दे एक सौ चौदह लिखा है। जिसका छायाचित्र भी लेख के साथ संलग्न किया गया है।

श्री ब्रह्मगुप्ताचार्य विरचित ब्राह्मस्फुट सिद्धांत मध्यमाधिकार श्लोक २६ व २७ में गतिकालि ३१७९ के लिए निम्नानुसार सृष्टि संवत् संख्या दी हुई है।

कल्प परार्धे मनवः षटकस्य गताश्चतुर्युगत्रिधराः
त्रीणी कृतादीनी कलेर्गोडगैकगुणः ३१७९
(शकान्तेऽब्दाः ॥ २६ ॥)

नवनगशशिमुनिकृत नवयमनगवन्देन्छवः १९७२९४७१७९ शकनृपान्ते।
सार्धमतीतमनुनां सन्धिभिराद्यन्तरान्त गतै: ।।२७।।

श्री भास्कराचार्य कृत सिद्धांत शिरोमणि में भी उक्त सृष्टि संवत यथावत् लिखते हैं।

इतिहासकार अलबेरूनी भी एक अरब सत्तानवें लिखता है। ११ वीं शताब्दी में अलबेरूनी (९७३-१०४८) अपनी किताब उल-हिंद में शक् ९५३, विक्रम संवत् १०८८ के लिए सृष्टि संवत् १९७२९४८१३२ लिखता है। उस कालखण्ड का अलबेरूनी भी तारा विज्ञान (खगोल शास्त्री), भूगोल और संस्कृत का उद्‌भट विद्वान था । वैदिक संपत्ति के वर्तमान चिरपरिचित लेखक पं. रघुनन्दन प्रसाद शर्मा ने कलियुग गताब्द ५०३० में सृष्टि संवत् १९७२९४९०३० लिखा है। ऐसा ही अनेकानेक विदेशी विद्वानों ने भी स्वीकार किया है।

अतः अब आवश्यकता इस बात की है कि महर्षि के विश्वशांति के १० नियमों में २ नियम यह भी हैं कि सत्य को ग्रहण करने में और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए। साथ ही अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिए। महर्षि दयानंद एक आर्ष तिथि पत्रक निकालना चाहते थे। उन्हें पौराणिक तिथि पत्रकों (पञ्चांग) पर कुछ संदेह दृष्टिगोचर होने लगा था। इसलिए वे एक विशेष आर्ष पञ्चांग निकालना चाहते थे । इस कारण वे सुयोग्य संपादक की खोज में भी लग चुके थे। इस संबंध में १८ अगस्त १८८३ को तत्कालीन पत्र “भारत मित्र” के संपादक श्री कृष्ण खत्री ने अपने नाम को प्रस्तावित करते हुए स्वामी जी को उनके जोधपुर के पते से पत्र लिखा। तभी कुछ दिनोंपरान्त २९ सितम्बर १८८३ को महर्षि को विष दे दिया गया और महर्षि अजमेर भी आ गए थे। इस विष की घटना के कारण अग्रिम कार्य पर विराम लग गया और बात वही की वहीं रह गई। यहां महर्षि के एक अंतिम अपूर्ण प्रयास पर विराम लग गया। परंतु देर से सही फिर भी उचित समय पर आचार्य श्री दार्शनेय लोकेश ने महर्षि के वेदांग में ज्योतिष के पक्ष को गणित एवं वैज्ञानिक आधार पर कदम उठाकर महर्षि के एक कालगणना खगोलीय पक्ष को वेदानुकूल रखकर महर्षि को नमन करते हुए उनके किए कार्यों को आगे बढ़ाने का कार्य श्लाघनीय एवं वंदनीय है। अतः हम सब मां भारती के सपूत संस्कृत, संस्कृति के संवर्धन हितार्थ श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम् को स्वयं अपनाकर समाज एवं राष्ट्र पर सत्यार्थ का पुरुषार्थ के साथ संकल्प लेकर ज्योतिष के गणितीय पक्ष को सशक्त कर ऋषियों की परंपरा के संवाहक बनें ।

हम सभी श्री मोहन कृत आर्ष पत्रकम् को सत्य एवं असत्य के आधार पर अपनाकर अपने समस्त पर्व और शुभ कार्यों को गणित ज्योतिष के आधार पर ही मनाने का प्रयास करें। जिससे हमें सत्यासत्य का ठीक बोध हो सके। हमारे बीच से ही आर्य तिथि पत्रक के रूप में आचार्य श्री दार्शनेय जी ने जो अनुपम और अद्भुत कार्य किया है और कर रहे हैं ।उनको सभी लोगों के साथ-साथ आर्य समाज से जुड़े हुए महानुभाव इस ओर विशेष ध्यान देंगे। जिससे गणित ज्योतिष का मंतव्य अपने वैदिक गंतव्य तक पहुंचे।

श्वासों का उद्देश्य कर्म है, थक कर क्यों मर जाएं ।
और मरने से पहले कुछ करलें, याद सभी को आएं।।

शुभेच्छु
गजेंद्र सिंह आर्य
(पूर्व प्राचार्य/राष्ट्रीय वैदिक प्रवक्ता)
अनूपशहर, बुलंदशहर -२०३३९०
उत्तर प्रदेश
चल दूरभाष – ९७८३८९७५११

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